raja ram mohan ray -in hindi
(२२,मई १७७२ ,निर्वाण -२७ सितम्बर ,१८८३ )
राजा राम मोहन रॉय
२७ , सितम्बर –
पुनर्जागरण के प्रेणता -राजा राम मोहन राय की पुण्य तिथि पर विशेष
(२२,मई १७७२ ,निर्वाण -२७ सितम्बर ,१८८३ )
वैदिक काल में नारी का स्थान भले ही सम्मान जनक रहा हो ,भले ही विदुषी नारियों के लिए जाना जाता रहा हो ,किन्तु कालांतर का इतिहास स्याह अंधकार से आप्लावित ही रहा। बाद में नारी की स्थिति बद से बदतर होती चली गयी और मध्य काल आते -आते पूजनीय कही जाने वाली नारी को पुरुष के चरणों की दासी और पैरों की जूती बना दिया गया। समाज- पुरुष प्रधान हो गया ,नारी को धर्म की आड़ में परंपरा और रूढ़ियों की ज़ंजीरों में जकड़ दिया गया। पुरुष की नारी के प्रति मानसिकता रूढ़ हो गयी ,और रवैया दोयम दर्जे का हो गया। पुरुष ने नारी को धक्रेल कर हाशिये में ला खड़ा किया। यह कटु सत्य है कि १८ वी सदी तक नारी उपेक्षा ,अपमान और भेदभाव की शिकार होती रही ,उससे उसके सारे अधिकार छीनकर बेबस ,लाचार और अबला बना दिया।
पुरुष प्रधान समाज का कानून देखिये -पुरुष एक नहीं कई-कई विवाह कर सकता था , किन्तु किसी स्त्री के पति की मृत्यु हो जाये तो वह दूसरे विवाह की बात तो दूर ,कल्पना भी नहीं कर सकती थी। उस समय एक विधवा का जीवन कितना दारुण रहा होगा इसकी कल्पना सहज की जा सकती है -विधवा उसका सिर मुंडवा दिया जाता था ,वह सफ़ेद कपड़ों के अतिरिक्त अन्य रंग का कपड़ा नहीं पहन सकती थी ,वह किसी सामाजिक -मांगलिक उत्सव में सम्मिलित नहीं हो सकती थी ,राह चलती विधवा को देखना अपशकुन माना जाता था। यह दशा थी उन स्त्रियों की जो सती होने से बच जाती थी अन्यथा स्त्री को उसके पति की मृत्यु होने पर सती होना पड़ता था। स्वेच्छा से नहीं तो बलपूर्वक उसे सती होने के लिए बाध्य किया जाता था। घर से बहार निकलना जिसके लिए निषिध्द था ,शिक्षा ग्रहण करने पर पाबन्दी थी -ऐसा था उस समय का समाज और ऐसी थी नारी की स्थिति।
इस सामाजिक कुप्रथा के खिलाफ पहला पत्थर फेंकने वाले शख्स का नाम था –राजा राम मोहन राय
वर्तमान नारी को जो स्वतन्त्रता और अधिकार प्राप्त है ,उसका सारा श्रेय सिर्फ और सिर्फ राजा राम मोहन राय को जाता है ,जिसने नारी स्वतन्त्रता और अधिकारों का सर्वप्रथम उद्घोष किया … शंखनाद कर बहरे समाज को जगाया …. अंधे गतानुगतिकों को सच का आइना दिखलाया … सिले हुए होठों को खोला … यह वही राजा राम मोहन राय थे ,जिन्होंने अंगरेजी सरकार को सती प्रथा को प्रतिबंधित करने .. बहु विवाह को वर्जित करने ,विधवा विवाह को वैध ठहराने के लिए क़ानून बनाने के लिए विवश किया। राजासाहब के प्रयास इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते है कि तात्कालिक सामाजिक कुरीतियों के विरुध्द उन्हें किसी बाहरी शत्रु से नहीं ,बल्कि अपनों से लड़ना पड़ा। शत्रु से लड़ना आसन है ,लेकिन अपनों से लड़ना कहीं ज्यादा मुश्किल होता है। इसी चुनौती का सामना करना पड़ा था -राजा मोहन राय को। पहले अपने ही घर में अपने रूढ़ि और परम्परावादी पिता का विरोध सहना पड़ा ,जिसके कारण राजा राम मोहन राय को गृह त्याग भी करना पड़ा।
वाराणसी रहकर उन्होंने वेद ,उपनिषद और हिन्दू दर्शन का अध्ययन किया। सिर्फ हिन्दू ग्रंथों का ही नहीं बल्कि जैन,बौध्द ,इस्लाम और ईसाई धर्म ग्रंथो का भी अध्ययन किया। इस अध्ययन का उद्देश्य हिन्दू धर्म में आ गए आडम्बर और कुरीतियों को हटाकर उसमे सभी धर्मों की अच्छी बातों का समावेश करना था।उन पर हिन्दू विरोधी होने का आक्षेप भी लगाया गया ,जबकि वे हिन्दू धर्म के नहीं बल्कि हिन्दू धर्म में आ गई बुराइयों के विरोधी थे।वे एकेश्वरवाद के प्रबल पक्षधर थे।उन्होंने हिन्दू धर्म में आ गए पाखंड का विरोध अवश्य किया क्योकि उनका मानना था कि पवित्र नदी में स्नान करना ,पीपल को पूजना ,ब्राह्मण को दान-दक्षिणा देना मुक्ति का साधन कदापि नहीं हो सकते। स्वयं अंध-विश्वास के अंशेरे में भटके हुए दूसरों को उन्नति का मार्ग कैसे दिखा सकते है ? उनका मानना था कि समाज और समाज के लोग उन्नति के मार्ग पर तभी अग्रसित हो सकते है, जब पहले से चली आ रही मान्यता को अपने तर्क से सत्य को पहचानने का प्रयास करेंगे। जब तक अन्धविश्वास ,रूढ़िवादिता ,धर्मांधता रहेगी ,समाज में अंधकार बना रहेगा। हिन्दू दर्शन की भांति उन्होंने भी ईश्वर के सर्वव्यापी अस्तित्व को स्वीकारते हुए समस्त चर प्राणियों में ईश्वर के अस्तित्व को मान्यता दी। सामाजिक और धार्मिक सुधार के उद्देश्य से १८१४ में आत्मीय सभा की स्थापना की ,जिसे बाद में १८२८ में ब्रह्म समाज में परिवर्तित कर दिया गया।
यह राजा राम मोहन राय ही थे ,जिन्होंने लार्ड विलियम बैंटिक को १८२९ में अधिनियम १७ के अंतर्गत सती प्रथा को प्रतिबंधित करवाया ,इसके अतिरिक्त हिन्दू विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया तथा बाल विवाह ,बहु विवाह और मूर्ति पूजा का सशक्त विरोध किया। वे स्त्री शिक्षा के साथ -साथ पाश्चात्य शिक्षा के भी प्रबल पक्षधर थे।अज्ञानता के तिमिरांध को ज्ञान के आलोक से मिटाया जा सकता है। वे चाहते थे कि नारिओं को भी वही अधिकार प्राप्त होने चाहिए जो पुरुष को प्राप्त है। बनी बनाई लकीर को मिटाकर नई लकीर खींचना निस्संदेह चुनौती पूर्ण था ,जिसे राजा साहब ने अपने अदम्यसाहस और दृढ इच्छा शक्ति से आधुनिक भारत की परिकल्पना को यथार्थ रूप में परिणत कर दिखाया।जिस नारी स्वतन्त्रता का मुद्दा आज उठाया जा रहा है ,उसकी परिकल्पना राजा साहब १८ वी सदी में ही कर चुके थे।
राजा राम मोहन राय को मिली सफलता हम सब के लिए भी एक प्रेरणा है ,यदि इरादों में मज़बूती है ,उद्देश्य में पारमार्थिकता है ,न्याय की भावना है ,तो आप एकाकी होकर भी अपने लक्ष्य में सफल हो सकते है।
पारिवारिक पृष्ठभूमि और कृतित्व
जन्म –२२ ,मई-१७७२
जन्म स्थान –बंगाल राज्य के हुगली जिले में स्थित राधा नगरी गांव
पिता –रमाकांत राय (वैष्णव संप्रदाय )
माता –तारिणी देवी (शैव संप्रदाय )
वैवाहिक जीवन -तीन विवाह
संतान – दो पुत्र -राधा प्रसाद और राम प्रसाद
प्रचलित पहचान –आधुनिक भारत के जनक ,सुधार आन्दोलन के प्रवर्तक ,
बंगाल नव जागरण के पितामह
भाषा के ज्ञाता -बंगला ,फारसी ,अरबी ,संस्कृत ,अंग्रेजी
पत्रकारिता /संपादन /अनुवाद -संवाद कौमुदी ,मिरत-उल-अकबर ,ब्रह्म मैनिकल ,वेदांत सार ,टुफरवुल मुवादीन (फारसी ),विराट उल (पर्शियन )
संस्थापक – आत्मीय सभा ,ब्रह्म समाज
उपाधि –राजा (मुग़ल शासक द्वारा )
निर्वाण –२७ सितम्बर ,१८८३
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