geeta adhyay saar-9 in hindi
geeta adhyay saar-9 in hindi
geeta adhyay saar-9 in hindi-अध्याय नौ
अध्याय नौ
इस अध्याय को राज विद्या राज गुह्य योग कहा गया है
आठवें अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को ब्रह्म ,अध्यात्म ,कर्म ,अधिभूत ,अधिदैव ,अधियज्ञ के बारे में विस्तार से समझाया था
इस नवें अध्याय में भगवान ने प्रभाव सहित विज्ञानं महासर्ग -महा प्रलय , दैवी प्रकति का आश्रय लानेवाले भक्तों ,कार्य कारण रूप से भगवत्स्वरूप विभूतियों ,सकाम-निष्काम उपासना और पदार्थों व क्रियाओं को भगवद अर्पण का फल बताकर भक्ति के अधिकारियों और भक्ति का वर्णन करते हुए भगवान् का तिरस्कार करने वाले एवं आसुरी-राक्षसी व मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेनेवालों का वर्णन किया है
भगवान अर्जुन को बार -बार के जन्म और मृत्यु के बंधन और दुःख रूपी संसार से मुक्त करने वाले गुह्य ब्रह्म विद्या को ब्रह्म विज्ञानं सहित समझाते हुए कहते है कि यह समस्त जगत परब्रह्म परमात्मा की आदि प्रकृति अथार्त अव्यक्तअक्षर ब्रह्म का ही विस्तार है। सभी परब्रह्म पर आश्रित है किन्तु परब्रह्म किसी पर आश्रित नहीं है।
भगवान् सृष्टि की और प्रलय के बारे में बतलाते हुए कहते है कि एक कल्प पूर्ण होनेपर समस्त सृष्टि प्रकृति में लींन हो जाती है और दूसरे कल्प के प्रारम्भ में स्वयं मैं अथार्त परब्रह्म ही फिर से सृष्टि की रचना करते है। सृष्टि की रचना आदि कर्म में मैं अनासक्त और उदासीन रहने के कारण कर्म मुझ परब्रह्म को कर्म बंधन में नहीं बांधते।
परब्रह्म श्री कृष्ण की अध्यक्षता में माया देवी चर -अचर जगत की सृष्टि और विलय कराती है। इस तरह सृष्टि का चक्र चलता रहता है।
भगवान् ज्ञानी और अज्ञानी के सम्बन्ध में बतलाते हुए कहते है कि जब मैं मनुष्य जन्म धारण करता हूँ ,तब परमभाव को ना जानने के कारण अज्ञानी मेरा अनादर करते है क्योकि वे आसुरी स्वाभाव से मोहित ,वृथा आशा ,वृथा कर्म वृथा ज्ञान के कारण मुझे पहचान नहीं पाते,किन्तु दैवी स्वाभाव वाले साधक ज्ञान-यज्ञ द्वारा द्वैत -अद्वैत भाव से या अन्य प्रकार से पूजा ,उपासना,भक्ति करते है।
भगवान् बतलाते है कि यह सृष्टि परमात्मा का ही विस्तार है। धार्मिक संस्कार ,स्वधा ,औषधि ,मंत्र ,घी ,अग्नि ,हवनकर्म में मैं ही हूँ। इस जगत का पिता ,माता ,धारण करनेवाला, और पितामह भी मैं ही हूँ।
परमधाम का पोषण करनेवाला ,सबका स्वामी ,साक्षी, निवास स्थान ,शरण लेने योग्य ,मित्र, उत्पत्ति ,प्रलय ,आधार ,निधन और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ। ओंकार ,ऋग्वेद ,सामवेद ,और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। मैं ही सूर्य में तपता हूँ ,वर्षा का निग्रह व उत्सर्जन करता हूँ। अमृत ,मृत्यु ,सत् ,असत ,भी मैं ही हूँ।
सकाम-निष्काम उपासना और पदार्थों व क्रियाओं को भगवद अर्पण का फल बताकर भक्ति केअधिकारियों और भक्ति का वर्णन करते हुए भगवान् कहते है कि अनन्य प्रेम भक्ति ही मोक्ष प्राप्ति का श्रेष्ठ उपाय है।
भगवान श्री कृष्ण कहते है कि वेदो में वर्णित सकाम कर्म करने वाले साधक अनेक प्रकार से मुझे पूजकर इंद्रलोक को प्राप्त कर स्वर्ग का सुख भोगते है , और संचित पुण्य कर्मो का फल भोगकर पुनः मृत्यु लोक मे आते है , अर्थात वेदो मे बताए हुए सकाम कर्म करने वाले मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते है। किन्तु जो भक्तजन अनन्य भाव से चिंतन करते हुए मेरी उपासना करते है, उन नित्ययुक्त भक्तो का योग क्षेम मैं स्वयं वहन करता हू।
भगवान यह भी कहते है कि जो भक्त श्रद्धापूरवक अन्य देवी देवताओ की पूजा करते एक प्रकार से वे मेरी ही पूजा करते है क्योकि सब यज्ञों का भोक्ता और स्वामी परब्रह्म परमात्मा मैं ही हूँ। ऐसे मनुष्य जो मेरे अधियज्ञ स्वरूपको नहीं जानते ,,उनका ही आवागमन होता है ,किन्तु मुझ परब्रह्म को पूजने वाले पुनर्जन्म से मुक्त परमधाम अथार्त मुझे ही प्राप्त होते है।
जो मनुष्य प्रेंम भक्ति से फल ,फूलपत्र ,जल ,या कोई भी पूजन सामग्री मुझे अर्पण करता है मैं उसके उस प्रेम उपहार को स्वीकार भी करता हूँ और उसका भोग भी करता हूँ। मैं सभी प्राणियों के प्रति समभाव रखता हूँ। मेरा कोई अप्रिय नहीं। जो श्रद्धा और प्रेम से मेरी उपासना करते है ,वे मेरे समीप रहते है और मैं उनके समीप रहता हूँ।
यदि कोई बड़े से बड़ा दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरी उपासना करता है ,तो उसे भी साधु ही मनना चाहिए।
यह निश्चित सत्य है कि मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता। अतिरिक्त स्त्री ,वैश्य ,क्षूद्र ,पापी आदि जो कोई मेरा शरणागत हो जाता है ,वह परमधाम को प्राप्य होता है।
भगवान् अर्जुन को यही सलाह देते है कि तुम भी मुझ में मन लगाओ ,मेरे भक्त बनो ,पूजा करो ,प्रणाम करो। मुझे अपना परम लक्ष्य मानकर अपने आप को मुझसे युक्त करके तुम मुझे ही प्राप्त होओगे।
दसवाँ अध्याय अगले अंक में ….
जय श्री कृष्णा ….... राधे –राधे
,
No Comments