geeta adhyay saar-4
geeta adhyay saar-4
geeta adhyay saar-4 चौथा अध्याय
चौथा अध्याय
इस अध्याय में कुल ४२ श्लोक हैइस अध्याय को ज्ञान कर्म संन्यास योग कहा गया है इस अध्याय में कर्मयोग का विस्तारजन्म और कर्म की दिव्यताकर्म के तत्व और तदनुसार यज्ञ के महत्वज्ञान और कर्मयोग की अनुशंसा का वर्णन किया गया है।
तीसरे अध्याय में भगवान् ने बतलाया कि कर्तव्य कर्म कर्म करने से ही सम बुद्धि प्राप्त होती है। पिछले अध्याय में भगवान् ने अर्जुन से कहा था कि विवेकपूर्वक किये कर्मों को मुझे अर्पित करदेऔर निष्काम भाव ,निर्मम व निःसन्ताप होकर शास्त्र विहित कर्त्वय कर्तव्य कर्म करो। कर्त्तव्य का पालन करते हुए यदि प्राणों की आहुति भी देना पड़े तो भी श्रेयस्कर है। पिछले अध्याय में भगवान् ने कामना को ही सारे पापों का मूल बताकर काम रुपी शत्रु का वध करने उपदेश दिया था। इस चौथे अध्याय में पुनः तीसरे अध्याय में वर्णित कर्मयोग का ही विस्तार है।
भगवान् अर्जुन को बतलाते है कि इस कर्म योग का सन्देश सर्वप्रथम मैंने राजा विस्वान को दिया था। राजा विस्वान ने कर्मयोग का सन्देश अपने पुत्र मनु को दिया , मनु यही सन्देश अपने पुत्र ईक्ष्वाकु को दिया,इस प्रकार यह राज -ऋषियों तक पहुँचा किन्तु कालांतर में उत्तम रहस्य वाला यह कर्म-योग लुप्त प्रायः हो गया था। इस कथन पर एक बार तो अर्जुन को भी विश्वास नहीं हुआ क्योकि विवस्वान तो सृष्टि के आदि में जन्मे थे ,यह कैसे संभव है ?इस पर भगवान् ने कहा जिसे कोई और नहीं जान सकता ,उन सबको मैंजनता हूँक्योकि मैं अजन्मा,अविनाशी और समस्त का परमेश्वर हूँ। प्रकति को अधीन कर मैं तब-तब प्रकट होता ,जब -जब
अथार्त धर्म घटने और अधर्म बढने लगता है ,तब-तब अधर्मी का नाशकर धर्म की रक्षा और संस्थापना के लिए अवतरित होता हूँ।जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म के मर्म को जान लेता है ,वह जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम को प्राप्त होता है। मैं अपने शरणागत की मनोकामना पूर्ण करता हूँ। चारों वर्णो का रचयिता भी मै ही हूँ। सृष्टि रचना कर्म का कर्ता होकर भी मैं अकर्ता ही हूँ। जैसे मैं कर्म -बंधन से मुक्त हूँ ,मेरी शरण आकर मेरा शरणागत भी कर्म-बंधन से मुक्त होजाता है। कर्म का रहस्य जानना विद्वानों के लिए भी अत्यन्त कठिन है ,उसी सकाम और निष्काम कर्म के रहस्य को मैं तुम्हारे समक्ष उद्घाटित कर रहा हूँ ,इसे जानकर तुम कर्म-बंधन से मुक्त हो जाओगे।
भगवान कहते है कि जो स्वयं को नहीं बल्कि प्रकति को कर्ता मानकर कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है ,वह ही ज्ञानी है ,योगी है। जो मनुष्य कर्मफल की प्राप्ति की इच्छा से रहित आसक्ति का त्याग कर सर्वथा -सदैव परमात्मा में नित्य तृप्तरहता हैऔर अकरम रहने के कारण कर्म -बंधन से मुक्त रहता है। परमात्मा केअतिरिक्त किसी अन्य का आश्रय नहीं लेता ,वह कर्म करते हुए भी वास्तविक रूपसे अकर्म ही बना रहता हैऔर कर्म-बंधन से मुक्त रहता है। वह मनुष्य जो ममता तथा आसक्ति से रहित होकर ज्ञान में स्तिथ हो गया ,ऐसे मनुष्य के कर्म के समस्त बंधन विलुप्त हो जाते है। भगवान् कहते है जो सभी में परमात्मा को ही देखता है ,वह परमात्मा को प्राप्त होता है। .
वेदों में विभिन्न यज्ञओ यज्ञों का वर्णन हुआ है ,जिनका विधि -विधान पृथक -पृथक हो सकता है किन्तु योगीजन इन यज्ञों के प्रसाद रुपीज्ञान अमृत को प्राप्तकर परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करते है। यज्ञ न करनेवालों के लिए लोक-परलोक दोनों ही सुखदयकसकरे नहीं हो सकते। इन सभी यज्ञों में भी ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ हैक्योकि तत्व ज्ञान की प्राप्ति ही समस्त कर्मों का लक्ष्य है। ज्ञानरूपी अग्नि कर्मरूपी लकड़ी को जलाकर भस्मकर देती है तत्व ज्ञान द्वारा ही अंतःकरण की शुद्धि की जा सकती है। भगवान् कहते है कि जिसने कर्मयोग के द्वाराअपने समस्त कर्म परमात्मा को अर्पण कर दिए तथा ज्ञान व विवेक द्वारा परमात्मा के सम्बन्ध में समस्त संशयों का नाश कर दिया ,ऐसे आत्म-ज्ञानी कर्म-बंधन में नहीं बंधते अर्थात कर्म-बन्धन से मुक्त रहते है।
चौथा अध्याय समाप्त
पांचवाँ अध्याय अगले अंक में……..
आत्मिक निवेदन -यदि आपको गीतोपदेश पढ़कर आत्मिक -सुख की अनुभूति हो रही है ,तो अपने स्वजनों को
शेयर करें।
जय श्री कृष्णा ………राधे-राधे
No Comments