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geeta adhyay saar -3

June 24, 2016
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आत्मिक निवेदनगीता   में  अथाह  ज्ञान  है  किन्तु  मनुष्य  के पास  समय  बहुत  कम   है  और  विघ्न  ज्यादा  है  अतः   मनुष्य  को   चाहिए  कि  समग्र  न सही  सार  तत्व  तो ग्रहण  कर ले , जैसे हंस  जल  से दूध  ग्रहण  कर लेता है।गीता अध्याय सार इसी उद्देश्य का एक सार्थक प्रयास है। 





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श्री हरि
तीसरा अध्याय 
इस अध्याय को कर्म योग कहा गया है। 
इस अध्याय में कुल ४३ श्लोक है। 
दूसरे अध्याय में भगवान ने सांख्य योग,कर्म योग और स्थित प्रज्ञ के बारे में समझाया  था। तीसरे अध्याय में अर्जुन भगवान् के पूर्व  वचनों का आशय ठीक सेसमझ ना आने के कारण भगवान् से प्रश्न करते है कि  मेरे लिए कल्याण का कौनसा साधन श्रेष्ठ होगा ?इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् अपने वचनों को स्पष्ट करते है। 





 

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अर्जुन द्वारा यह प्रश्न करने पर कि मैं  किसे श्रेष्ठ मानू -कर्म अथवा ज्ञान को क्योकि आप तो ज्ञान को कर्म से श्रेष्ठ बता रहे है। आप तो मेरे हित  का कोई एक उपाय बताये।इस पर भगवान् ने कहा कि  यह मनुष्य की निष्ठां पर निर्भर है। केवल कर्म का त्याग कर मुक्त नहीं हुआ जा सकता। वही मनुष्य श्रेष्ठ है  जो बुद्धि द्वारा इन्द्रियो को क़ाबू  मे कर कर्मेन्द्रियों द्वारा निष्काम कर्म करता है। स्वहित में किया जाने वाला कर्म मनुष्य को कर्म-बंधन में बांधता है। कर्तव्य -कर्म का पालन अनासक्त-रहित और सेवा भाव से किया जाना चाहिए। सर्वव्यापी ब्रह्म सदैव से सेवा में ही प्रतिष्ठित रहे है। उस मनुष्य का जीवन व्यर्थ है जो सेवा द्वारा  सृष्टि चलाने में सहयोग प्रदान नहीं करता। इसके विपरीत जो मनुष्य परमात्मा में ही रमण करता है,उसी में तृप्त-संतुष्ट रहता है,परमात्मा के अतिरिक्त किसी अन्य पर आश्रित नहीं रहता ,उसके लिए कोई कर्तव्य -कर्म शेष नहीं रह जाता। परमात्मा को अनासक्त कर्त्तव्य -कर्म द्वारा ही पाया जा सकता है। मैं  स्वयं कर्म करता हूँ ,ताकि अन्य सभी मेरा अनुसरण करे। ज्ञानियों को चाहिए कि  वे अपनी भांति ही दूसरों के लिए  अनासक्त कर्म के प्रेरणा-स्त्रोत बने।
अज्ञानतावश मनुष्य स्वयं को कर्ता समझने लगता है ,जबकि सृष्टि के समस्त कर्म प्रकृति के माध्यम से  -परमेश्वर की शक्तिओ  द्वारा होते है। ज्ञानी इस सत्य को जानकर कर्म में आसक्त नहीं होते ,इसके  विपरीत अज्ञानी इस सत्यको न जान पाने के कारण  कर्मों में आसक्त रहता है।मेरे उपदेशों का पालन करने वाले  कर्म -बंधन से मुक्त हो जाते है।
मनुष्य को राग -द्वेष के वशीभूत नहीं  होना चाहिए ,क्योकि ये दोनों ही मनुष्य के कल्याण में विघ्न  उत्प्पन करते  है।अस्वाभाविक कार्य से कही ज्यादा अच्छा हैआत्म-विकास के लिए किया जानेवाला गुणरहित  स्वाभाविक कर्म।
अर्जुन द्वारा मनुष्य के पाप आचरण करने के बारे में पूछने पर भगवान् बतलाते है कि काम के वशीभूत होकर ही मनुष्य पाप कर्म करता है। काम  आत्मा ज्ञान को ढक  देता है और मन,बुद्धिऔर इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है। इंद्रिय ,मन ,और बुद्धि से श्रेष्ठ है – आत्मा। अतः हे अर्जुन ,तुम भी बुद्धि द्वारा मन को वश में कर सर्व प्रथम इस ज्ञान और विवेक का नाश करनेवाले काम रुपी शत्रु का वध करो। 
तीसरा अध्याय समाप्त 
एक छोटी सी अपेक्षा  -अपने स्वजनों के साथ  गीता अध्याय सार की  यह पोस्ट अवश्य  share करेँ। 
चौथा अध्याय अगले अंक में 
जय श्री कृष्णा…… राधे-राधे 

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