geeta adhyay saar-15 in hindi
गीता अध्याय सार -१५
गीता अध्याय सार -१५
चौहदवे अध्याय में भगवान् ने बतलाया था कि अनन्य भक्ति के द्वारा अर्ताथ भगवान् पर आश्रित होकर ,भगवान् को ही अपना सर्वस्व मानकर मनुष्य गुणातीत हो जाता है। भगवान् ने बतलाया था कि सब प्राणियों की उत्पत्ति प्रकृति से हुई है। प्रकृति से उत्पन्न,सत रज और तम गुण जीवको देह के साथ बांध देते है। इन्ही तीन गुणों के कारण मनुष्य के पुनर्जन्म निर्धारण होता है।
पन्द्रहवे अध्याय में कुल २० श्लोक है
पन्द्रहवे अध्याय को पुरूषोत्तम योग कहा गया है
इस अध्याय में संसार को वृक्ष के सामान बतलाया गया है। जीव परमात्मा का ही अंश है किन्तु अज्ञानता वश मनुष्य प्रकृति के कार्य, शरीर, इन्द्रियां ,मन ,बुद्धि आदि सेअपना सम्बन्ध मान लेता है और मैं ,मेरा , मेरे लिए जैसे व्यभिचार दोष में बंध जाता है।यही व्यभिचार दोष भक्ति में बाधा बनता है।
भगवान् इस संसार की तुलना सनातन पीपल वृक्ष से करते हुए कहते है कि यह संसार माया शक्ति से उत्पन्न वृक्ष के सामान है। इसका मूल परमात्मा है ,ब्रह्माण्ड इसकी शाखायें है ,वेद मन्त्र इसके पत्ते है।
इस संसार वृक्ष को तत्व से जान लेने वाला ही वेदों को जानने वाला है।प्रकृति के गुण रुपी जल से इसकी वृद्धि होती है। विषय भोग इसकी कोपले है। अहंकार और इच्छा रुपी जड़े पृथ्वीलोक में कर्म बंधन बनकर फैली हुई है। इस माया रुपी वृक्ष के स्वरुप का आदि और अंत का पता नहीं। मनुष्य को चाहिए कि इस संसार रुपी वृक्ष की अहंकार और इच्छा रुपी जड़ों को ज्ञान और वैराग्य रुपी शस्त्र से काट दे।
मनुष्य को चाहिए कि वह उस परम तत्व को खोजे जिसे पाकर इस संसार में ना आना पड़े अर्ताथ उस परम पुरुष की शरण में चला जाये ,जिसमे ये सारी सनातन विभूतियाँ व्याप्त है।
भगवान् कहते है कि वह मनुष्य ही परम धाम को पा सकता है ,जो मान और मोह से निवृति पा लेता है। आसक्ति रुपी दोष को जीत लेता है। परमात्मा के स्वरुप में नित्य स्तिथ कर लेता है। कामनाओ का अंत कर लेता है। सुख-दुःख के द्वन्द से मुक्त होकर वह मनुष्य उस स्वयं प्रकाशित परमधाम को प्राप्त कर लेता है और ऐसे मनुष्य को फिर से जन्म नहीं लेना पड़ता।
भगवान कहते है कि जीवात्मा ,परमात्मा की ही शक्ति का एक अंश है ,जो प्रकृति में स्तिथ मन सहित छह इन्द्रियों को चेतना प्रदान करता है। मृत्यु के बाद जीवात्मा छह इन्द्रियों को एक शरीर से दूसरे शरीर में ले जाती है। जीव कर्ण ,चक्षु ,त्वचा ,रसना ,घ्राण और मन के द्वारा विषयों का सेवन करता है। जीव को ऐसा करते हुए ज्ञान चक्षु तो देख पाते है किन्तु अज्ञानी जन नहीं देख सकते।
भगवान् कहते है कि सूर्य ,चंद्र और अग्नि में व्याप्त तेज़ भी परब्रह्म परमात्मा का ही होता है। परब्रह्म परमात्मा ही पृथ्वी में प्रवेश कर अपने तेज़ से सभी भूतों को धारण करते है और चन्द्रमा बनकर सभी वनस्पतियों को रस प्रदान करते है। परब्रह्म ही प्राणियों के शरीर में वैश्वानर अग्नि के रूप में स्तिथ है ,जो चारों प्रकार के अन्न को प्राण और वायु से पचाते है।
भगवान् कहते है कि मैं अर्ताथ परब्रह्म परमात्मा समस्त प्राणियों के अन्तः करण में स्तिथ रहता हूँ। मुझ परब्रह्म परमात्मा से ही स्मृति ,ज्ञान तथा शंका का समाधान होता है। मैं ही वेदों द्वारा जानने योग्य ,वेदांत का कर्ता और वेदों का ज्ञात ज्ञाता हूँ।
भगवान् कहते है कि लोक में परब्रह्म के दो दिव्य स्वरुप है ,एक क्षर पुरुष और दूसरा अक्षर पुरुष। जगत क्षर पुरुष का विस्तार है जबकि अक्षर पुरुष अविनाशी है। इन दोनों से भी जो दिव्य पुरुष है वह परब्रह्म परमात्मा है, जो तीनों लोकों का पालन -पोषण करता है परब्रह्म परमात्मा क्षर और अक्षर से उत्तम होने के कारण लोक और वेदों में पुरुषोत्तम कहलाते है। तत्व से जाने वाला ज्ञानी मुझ परब्रह्म से प्रेम करता है और मुझ परब्रह्म की ही भक्ति करता है। मुझ परब्रह्म द्वारा कहे गए गुह्यतम शास्त्र को तत्व से जानकार मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है।
पन्द्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण
सोलहवाँ अध्याय अगले अंक में प्रकाश्य
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जय श्री कृष्णा ….. राधे-राधे
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