world humanitarian day- in hindi
१९ अगस्त -विश्व मानवता दिवस पर विशेष
कोई मनुष्य मानवता से बड़ा नहीं -थ्योडोर पार्कर
मानवता का अध्ययन ही मानवता है -पोप
यह ज्यादा अक्लमंदी की बात होगी कि हम उस खुदा की बात कम करें जिसे हम समझ नहीं सकते और इंसानों की बातें ज्यादा करें जिसे हम समझते है -खलील जिब्रान
आज दुनिया में कही भूख क्रंदन कर रही है तो कही गरीबी विलाप कर रही है। कभी प्राकृतिक आपदा अपना तांडव करने लगती है ,तो कभी अलगाववादी ताक़तों के बम धमाकों का धुँआ दम घोटने लगता है ,इन सब से मानवता लहूलुहान होकर सिसक रही है।
और हम जो स्वयं को मानव कहते है ,मूक दर्शक की भांति ये सब होते देख रहे है -मानवता तड़प रही है कराह रही है और हमारे मुँह से आह तक नहीं निकल रही है।
अपने आप को पशु भी कैसे कहे क्योकि संवेदना तो पशुओं में भी होती है।
अब प्रश्न उठता है कि हम अपने आप को पशुओं से भिन्न क्या कहे ?किस उपमा से उपमित करे अपने आप को ?
हां ,याद आया ,मानव यंत्र कहना उपयुक्त होगा क्योकि यंत्र काम तो करता है लेकिन मानवीय संवेदना नहीं होती यंत्रों में। विज्ञानं की भाषा में रोबोट कहना भी ठीक रहेगा। हां,सचमुच ऐसे ही हो गए हम मानव।
यदि कोई मानव है तो स्वाभाविक है उसमे मानवता होगी यानि कि उससे दया ,करुणा ,प्रेम ,सहानुभूति ,उदारता और सहयोग की भावना भी होगी।
मुसीबत की घडी में मानव ,मानव से ही तो मदद की उम्मीद करेगा ,कोई पशु तो आएगा नहीं आंसू पोछने।
मानवता तड़प रही है ….. कराह रही है …
यह किसी एक देश की वेदना नहीं है बल्कि विश्व व्यापी वेदना है।
पूरी दुनिया में १९ अगस्त की तारीख मानवता दिवस के रूप में मनाई जाएगी। १९ अगस्त को विश्व मानवता के रूप में में मनाने की वजह भी मानवता ही है। वह १९ अगस्त का ही दिन था जब कुछ आतंकियों ने संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय पर हमला किया था और हमले में २२ लोग मारे गए थे। मारे गए लोगों में एक थे मानवता को समर्पित समाज सेवी -सरगियो विएरा डी मेलो। मानवता के लिए अपने प्राण उत्सर्ग करने वालों की याद में संयुक्त राष्ट्र ने १९ अगस्त की तारीख को विश्व मानवता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की ,तब से १९ अगस्त ,विश्व मानवता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
मानवता यह किसी शब्दकोश का शब्द ही नहीं विश्व समुदाय के लिए चिन्ता और चिंतन का विषय भी है। वर्तमान परिप्रेक्ष में जब विश्व समुदाय अमानवीय अप्रिय घटनाओं के दौर से गुजर रहा है इस विषय की गंभीरता को और भी प्रासंगिक बना देता है क्योकि मानव और मानवता का जिस तरह से पतन हो रहा है ,उसने मानव समुदाय के समक्ष एक प्रश्न खड़ा कर दिया है हम कितने मानव है और हममे कितनी मानवता शेष बची है ?
आज जिस तरह से समूचा मानव समुदाय पतित मानव प्रवृति से त्रस्त हो रहा है ,वह किसी एक देश की नहीं वरन समूचे मानव समुदाय की चिंता का विषय बन गया है।
दया ,करुणा ,प्रेम ,सहानुभूति ,उदारता सहयोग जैसी प्रवृतियाँ मानव को मानव होने का बोध कराती है ,पशुओं से भिन्न पहचान देती है। अन्यथा मानव और पशुओं में अंतर ही क्या रह जायेगा ?
त्रस्त मानवता पुकार रही है ,इस आवाज़ को अनसुना नहीं किया जा सकता। आज हर देश ,देश का हर नागरिक असुरक्षा ,अनिश्चितता और आतंक के साये में जी रहा है। रात को सोते समय इस निश्चितता से नहीं सो सकता कि वह सुबह का सूरज देख भी पायेगा या नहीं। सुबह काम -धंधे के लिए निकला आदमी इस निश्चितता के साथ नहीं निकल सकता कि वह शाम को सकुशल घर लौट आएगा।
आज भी विश्व के कई देश ऐसे जहाँ के नागरिक अभिशप्त -नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य है। अकेले अफ्रीका में ११ करोड़ लोग भुखमरी और दुर्भिक्ष से त्रस्त है। बच्चों और स्त्रियों की दुर्दशा देखकर किसी का भी दिल पसीज सकता है। इन देशों के नागरिक यदि किसी दूसरे देश में शरण लेता भी है तो शरणार्थी होने की व्यथा भी काम दहला देनेवाली नहीं होती।
आज विश्व कही कुछ अप्रिय घटित होता है तो सरकारी मदद की ही उम्मीद होती है ,तो क्या सब कुछ सरकार की ही ज़िम्मेदारी है ?हम इंसानों का इंसानियत के नाते ,ऐसे पीड़ितों के प्रति उदारता अथवा सहृदयता दिखलाना मानव कर्तव्य की श्रेणी में नहीं आता ?मानवता दिखलाना क्या धर्म की श्रेणी में नहीं आता ?
आज विश्व समुदाय को जिस भाव बोध की सबसे ज्यादा आवश्यकता है ,वह है –
जिओ और जीने दो .मानवता प्रकाश की वह नदी है जो सीमित से असीमित की ओर बहती है -खलील जिब्रान
देश और समाज दो ऐसे वृक्ष है ,जिनकी जड़ों में मानवता सुरक्षित रह सकती है -जय शंकर प्रसाद
वसुधैव कुटुंबकम की भावना आज की आवश्यकता नहीं बल्कि अनिवार्यता है। भारतीय धर्म ग्रंथों में मानवता के लिए की जानी प्रार्थना मानव ह्रदय में धुँधली हो गई है ,जिसमे प्रार्थना की गई है कि –
मुक्तश्चान्यान विमोचयेत
काले वर्षतुपर्जन्य:पृथिवी शस्य शालिनी
देशोयं क्षोभ रहितो ब्राह्मणा:सन्तु निर्भया
सर्वस्त रतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पशयतु
सर्व कामानवाप्नोतु सर्व :सर्वत्र नन्दतु
सर्वेपि संतु सुखिन : सर्वे संतु निरामय
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चि कश्चिद् दुःखभाग्भवेत
स्वस्ति मात्र उत पित्रे नो अस्तु
स्वस्ति गोभ्यो जगते पुरुषेभ्य:राष्ट्र
विश्व सुभूतं सुविदत्र नो अस्तु
ज्योगेव दृशेम सूर्यम
यह भावना जो धुंधली पड़ गयी है ,इसे फिर से गहरा करना होगा। राष्ट्र ,धर्म ,भाषा और सम्प्रदाय से ऊपर उठकर विश्व समुदाय के प्रत्येक नागरिक आत्म-संकल्प करना होगा – मै निज हित के साथ -साथ परमार्थ को भी ध्यान में रखूँगा। सबके सुखी होने में मेरा सुख भी निहित है ,ऐसी भावना विकसित करनी होगी।
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