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tiruvalluvar quotes in hindi -6

December 19, 2016
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tiruvalluvar quotes in hindi -6

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संत  तिरुवल्लुवर के विचार 

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sant tiruvalluvar




पाखंडियों के सम्बन्ध में संत  तिरुवल्लुवर के विचार 
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जब कोई पाखंडी या धूर्त अपनी चतुराई पर यह सोचकर खुश हो रहा होता है कि  देखो मैंने दूसरों को कैसे मूर्ख  बनाया ,तब उसके शरीर में वास कर रही आत्मा उसकी इस अज्ञानता पर हँस रही होती है कि  देखो इस महामूर्ख को अपना ही घर जला कर कैसे खुश हो रहा है।ऐसे पाखंडी जो मुख पर तो तपस्वी -सी  तेजस्विता रखते है ,उस गधे के समान होते है जो शेर की खाल ओढ़कर घास चरता है। पाखंडी उस  बहेलिये के समान  होते है जो झाड़ियों के पीछे छिपकर चिड़ियों का शिकार करते है अतार्थ धर्मात्मा के वेश में दुष्कर्म करते है ,ऐसे लोग घुघंची की तरह बाहर से देखने में तो सुंदर लगते है किन्तु भीतर काला  दाग लगा होता है। ऐसे लोगों का बाह्य स्वरुप तो बड़ा ही प्रभावशाली होता है किन्तु अन्तःकरण कलुषित होता है। ऐसे प्रभावशाली होने क्या लाभ ?वह सबको तो धोखा दे रहा है लेकिन उसके अंदर का भगवान  तो सब देख रहा है ,उस मूर्ख को यह पता नहीं होता। ऐसे लोग  बाहर से तो बुरी चीजों का त्याग कर देने का आडम्बर करते है, लेकिन लोगों की आँखों में धूल  झोंक कर  वही  बुरा काम करते है। ऐसे पाखंडी -धूर्त प्रारम्भ में तो नहीं किन्तु अंत में अवश्य पछताते है कि  -हाय ,मैंने यह क्या किया ?फिर तीर्थ स्थलों पर जाकर पवित्र जल से स्नान कर अपने काले कृत्यों की कालिख धोने की कोशिश करते है। 
मनुष्य जिस काम या बात को बुरा समझता है  उससे खुद को बचाये रखे ,तो उसे ना तो जटा  रखने की ना और सिर मुंडवाने की आवश्यकता है  ,ना भगवा वस्त्र  पहनने की आवश्यकता है और ना छापा -तिलक लगाने की। 

 ईर्ष्या के सम्बन्ध में संत  तिरुवल्लुवर के विचार 
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ईर्ष्या माचिस की तीली की तरह होती है ,जो जलती तो दूसरों को जलाने के लिए किन्तु पहले खुद ही जलती है। ईर्ष्या मनुष्य का ऐसा दोष है ,जिसके कारण  वह किसी और को नहीं बल्कि स्वयं को हानि पहुँचाता  है।। ईर्ष्या करनेवाले के लिए ईर्ष्या ही उसके लिए बड़ी मुसीबत का कारण  बन जाता है। ईर्ष्यालु मनुष्य को शत्रु भी शायद एक बार बख्श दे किन्तु ईर्ष्या ,ईर्ष्यालु मनुष्य का नाश किये बिना नहीं छोडती। ईर्ष्या ,ईर्ष्यालु मनुष्य को नरक के द्वार के भीतर धकेल कर ही पीछा छोडती है।  ईर्ष्या रहित होना धर्माचरण का ही एक अंग है। मनुष्य कोचाहिए कि वह ईर्ष्या का भाव भी मन में उत्पन्न ना होने दे। ईर्ष्या रहित स्वाभाव के समान कोई दूसरी नियामत नहीं। 

क्रोध के सम्बन्ध में संत  तिरुवल्लुवर के विचार 
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अग्नि उसी को जलती है जो स्वयं चलकर अग्नि के समीप जाता है किन्तु क्रोध की अग्नि क्रोध करने वाले को तो जलाती ही है साथ ही उसके पूरे कुटुंब को भी जला डालती है। मनुष्य के सभी मनोरथ पूर्ण हो सकते है यदि वह क्रोध का त्याग कर दे। अपन भला चाहने वालों को चाहिए कि  वह क्रोध से जितना हो सके दूर ही रहे क्योकि  ऐसा ना करने से क्रोध तुम्हे दबोच लेंगा  और युम्हारा सर्वनाश कर डालेगा। क्रोध से बढ़कर मनुष्य को कोई अन्य शत्रु नहीं क्योकि क्रोध मनुष्य की हंसी छीनकर उसकी  खुशियों की हत्या कर देता है। क्रोध के आने के रास्ते बंद कर दो क्योकि क्रोध अकेला नहीं आता बल्कि मनुष्य की अन्य सभी खुशियों को मार डालने वाले साथियों को भी लेकर आता है। शक्तिहीन को तो क्रोध करना ही नहीं चाहिए किन्तु यदि शक्ति शाली  भी हो तब भी क्रोध नहीं करना चाहिए ,क्योकि क्रोध शक्तिशालियों से भी ज्यादा शक्तिशाली होता है। क्रोध मे आप से बाहर हुआ व्यक्ति मुर्दे के समान ही जाता है किंतु जिसने क्रोध का  त्याग कर  दिया वह सन्त  के समान  हो जाता है। 

  क्षमा के सम्बन्ध में संत  तिरुवल्लुवर के विचार 
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जिन लोगों के कारण तुम्हे कष्ट हुआ है ,तुम उन्हें भी क्षमा कर दो ,इसी में तुम्हारा बड़प्पन है। धरती की तरह सहनशील बनो। हो सकें तो उन लोगों के लिए अपनी ओर  से जितना भला कर सकते हो ,भला करों। तुम्हारे ऐसा करने से वह स्वयं अपनी ही  नज़रों में गिर जायेगा किन्तु तुम बहुत ऊँचे उठ जाओगे। क्षमामय व्यवहार तुम्हे गौरव प्रदान करेगा। जो लोग अपनी बुराई का बदला ले लेते है ,वे कभी प्रशंसा के पात्र नहीं बनते किन्तु जो शत्रु को भी क्षमा कर देता है ,उसकी कीर्ति का गुण -गान सारा संसार करता है। बदला लेने वाला थोड़ी देर के लिए भले ही खुश हो ले किन्तु क्षमा करनेवाले की कीर्ति सदैव गूंजती है। निंदा करनेवाले की कटु वाणी सुनकर भी सहन कर लेनेवाले का मान -सम्मान संसार के त्यागी पुरुषों से भी बढ़कर है। भूखे रहकर या अन्य प्रकार का कष्ट सहन करनेवाले तपस्वी निस्संदेह महान है किन्तु उनका स्थान उन लोगों के बाद ही है ,जिसने अपने शत्रु भी क्षमा -दान दे दिया हो। 

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