shikshak diwas-sarvapalli radha krishanan in hindi-
सर्वपल्ली डॉ. राधा कृषणन
जन्म – ५ सितम्बर १९८८
भारतीय राजनीती के इतिहास में जिन्हें –
देश के प्रथम उपराष्ट्रपति
तथा
देश के दूसरे राष्ट्र पति अर्थात
डॉ. सर्वपल्ली राधा कृष्णन के नाम से जानती है
इन्ही के जन्म दिन को भारत शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है
जानते हो क्यों ?
क्योकि इसी दिन यानी की ५ सितम्बर १८८८ को ही शिक्षक से देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति तक पहुंचने वाले शिक्षाविद ,दार्शनिक ,भारतीय संस्कृति के प्रबल समर्थक -संवाहक -विचारक डॉ.राधाकृष्णन जी का जन्म हुआ था।
राष्ट्रपति बनने के बाद उनके शिष्यों का एक समूह उनके जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव लेकर आया ,जिसे राधा कृष्णन जी सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब से ५ सितम्बर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाने लगा।
किसी भी मनुष्य का बाह्य व्यक्तित्व उसके आंतरिक विचारों का ही प्रतिबिंब होता है। यह कथन डॉ.राधा कृष्णन जी के व्यक्तित्व पर अक्षरशः चरितार्थ होता है। राधा कृष्णन जी दर्शन शास्त्र के विद्यार्थी भी थे और शिक्षक भी। सर्वपल्ली राधा कृष्णनजी की पहचान देश के राष्ट्रपति के रूप में चिन्हित या रेखांकित करना उनके महान व्यक्तित्व को लघुरूप में प्रस्तुत करना होगा। उनके व्यक्तित्व का मूल्यांकन उनके आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विचारों में समाहित है। राधा कृष्णन जी ने हिन्दू धर्म ग्रंथों का गहनता से अध्ययन अन्य धर्म ग्रंथों के साथ तुलनात्मक रूप से किया।
ईसाई मिशनरी द्वारा भारतीय धर्म और धर्म ग्रंथों को रूढ़ ,आडम्बर ,अंध-विश्वास और अतार्किक और मिथकीय मान्यताओं से परिपूर्णहोने के रूप में प्रसारित किया जा रहा था। किसी भी राष्ट्रवादी का ह्रदय अपनी संस्कृति की आलोचना सुनकर और हेय दृष्टि से देखे जाने पर आहात होता है ,शायद इसी भावना ने राधा कृष्णन जी को भारतीय धर्म ग्रंथों का गहनता से अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया होगा। राधा कृष्णन जी ने गूढता से अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकल कि भारतीय संस्कृति सांस्कृतिक विचार-धरा और धर्म शास्त्र चेतना युक्त है ,सत्य है और आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध है ,
उनके जन्म दिन पर उनके विचारों का स्मरण करना हमारे जीवन पथ का पथ प्रदर्शन करेगा।
आप हम अपने दैनिक जीवन में कई सारे आध्यात्मिक शब्दों का प्रयोग तो करते है किन्तु उनमे अन्तर्निहित मर्म को नहीं जानते । राधा कृष्णन जी ने उन्ही आध्यात्मिक शब्दों को दार्शनिक दृष्टि से जाँचा -परखा ,तदुपरांत वैचारिक अभिव्यंजना की।
नीचे दिया गया गद्य अवतरण उनके दार्शनिक एवं आध्यात्मिक वैचारिक सिद्धान्तों की अभिव्यक्ति है।
राधा कृष्णन जी का मनना था कि आध्यात्मिकता के मर्म को समझने के लिए समझनेवाले का ह्रदय भी पवित्र होना चाहिए। ह्रदय को निर्मल बनाकर ही आध्यात्मिक मर्म की अनुभूति की जा सकती है।
वे कहते थे कि मनुष्य जैसा सोचता है ,वैसा ही हो जाता है। मनुष्य की सोच से कृतित्व और कृतित्व से व्यक्तित्व प्रतिबिंबित होता है।
धर्म के अभाव में मनुष्य बे-लगाम घोड़े की तरह हो जाता है। धर्म के प्रति दृढता और विश्वास से मनुष्य भय पर विजय पा सकता है। वह भय चाहे असफलता का हो ,चाहे मृत्यु का।
राष्ट्र और नागरिक के मध्य साम्य बतलाते हुए वे कहते थे कि व्यक्ति और राष्ट्र का निर्माण त्याग से होता है।
उन्होंने कहा कि प्रेम द्वेष से शक्तिशाली होता है।
पुस्तकों के बारे में वे कहते थे कि पुस्तकें एकांत में विचार करने का अवसर प्रदान करती है। पुस्तके एक सेतु है जिस पर से विभिन्न संस्कृतियों का आवागमन होता है ,तो कला मानवीय आत्मा की गहरी परतों को उजागर करती है।
शिक्षा का उद्देश्य बतलाते हुए उन्होंने कहा था कि शिक्षा का उद्देश्य मानव की आतंरिक रचनात्मक प्रवृतियों को इस सीमा तक विकसित एवं सक्षम बनाना होना चाहिए जो प्राकृतिक आपदाओं और परिस्तिथियों से लड़ना सीखा सकें।मानव मस्तिष्क का अधिकतम उपयोग शिक्षा के द्वारा ही किया जा सकता है।वसुधैव कुटुम्बकम की भाँति ही समूचा विश्व एक पाठशाला है। शिक्षा का स्वरुप वैश्विक होना चाहिए ,वैश्विक शांति की स्थापना विश्व की पहली और अनिवार्य आवश्यकता है। मानव यदि दानव बन जाये तो यह मानव की हार है और यदि मानव ,महामानव बन जाये तो ये उसका चमत्कार होगा और यदि मानव ,मानव बन सका तो तो ये उसकी जीत है।
यदि मनुष्य को आत्मज्ञान हो जाए तो आत्मज्ञान मनुष्य की अन्तर्निहित बुराइयों को नष्ट कर देगा। ज्ञान मनुष्य को पूर्णता की शांति प्रदान करता है जबकि प्रेम परिपूर्णता प्रदान करता है। धन ,शक्ति ,दक्षता ये मानव जीवन को भौतिक सुख दे सकने की साधन तो बन सकते है किन्तु जीवन को परिपूर्ण नहीं बना सकते।जानकारी के ढेर को ज्ञान नहीं कहा जा सकता ,ज्ञान वह है जो भीतर के अंधकार को मिटाकर सत्य से साक्षात्कार कराए। आत्मशांति किसी अन्य कारण से नहीं बल्कि स्वयं के स्वभाव में परिवर्तन करके प्राप्त की जा सकती है। यदि मनुष्य जीवन को बुराई और संसार को भ्रम मनाता है तो यह मनुष्य की कृतघ्नता होगी।
मनुष्य का जीवन भले अल्पकालिक हो किन्तु उसमे अनन्त खुशियां समाहित है। सुख- दुःख जीवन की अनिवार्यता है ,इसे समभाव से स्वीकार किया जाना चाहिए। मृत्यु प्रामाणिक सत्य है ,यह धनी -निर्धन का भेद किये बिना सभी को समान रूप से ग्रसित करती है।धनी वर्ग के अहंकार व् असंतोषपूर्ण जीवन की तुलना में शांत मस्तिष्क वाला संतोष और सादगीपूर्ण जीवन कहीं ज्यादा श्रेष्ठ है।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
नाम – राधा कृष्णन ( सर्वपल्ली पुरखों के गाँव का नाम )
जन्म – ५ सितम्बर १९८८
जन्म-स्थान -तिरुत्तनि
पिता – वीरा स्वामी
माता – सीताम्मा
प्रारंभिक शिक्षा -लुथर्न मिशन स्कूल ,तिरुपति
विवाह १९०३ में ,१६ वर्ष की आयु में
पत्नी सिवाकामू
बी.ए १९०० -१९०४ ,वेल्लूर कला संकाय प्रथम श्रेणी
एम . ए मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज (दर्शन शास्त्र )
अध्यापन -सेवा कार्य
मद्रास प्रेसिडेन्ट कॉलेज में दर्शन शास्त्र का अध्यापन
मनो विज्ञानं के आवश्यक तत्व पुस्तक का प्रकाशन
आन्ध्र विश्व विद्यालय के वाईस चांसलर
मैसूर विश्वविद्यालय में दर्शन-शास्त्र के प्राध्यापक
ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में प्राध्यापक
जार्ज पंचम कॉलेज में प्रोफ़ेसर
काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में चांसलर
दिल्ली विश्व विद्यालय के चांसलर
राजकीय सेवा
यूनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व
संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य
सोवियत संघ के लिए भारत की ओर से राजनयिक
उप राष्ट्र-पति चुने गए (१९५२ )
राष्ट्र-पति चुने गए (१९६२ )
सम्मान
ब्रिटिश सरकार द्वारा सर की उपाधि (बाद में लौटा दी गई )
भारत रत्न (१९५४ )
निर्वाण -१७ अप्रैल ,१९७५
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