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mahatma bhartri hari ke anmol vachan-2

March 14, 2017
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mahatma bhartri hari

महात्मा भर्तृहरि के प्रेरक  विचार 

 

 

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महात्मा भर्तृहरि के प्रेरक  विचार 

 महात्मा भृतहरि के विचार जीवनोपयोगी व  व्यावहारिक है ,क्योकि वे पूर्व  में राजा थे,  उन्होंने स्वयं राजसी विलासता को भोगकर सांसारिकता को निस्सार अनुभव किया ,सांसारिक वैभव मात्र भ्रम है। उसी जीवनानुभव को उन्होंने अपनी काव्य कृति वैराग्य शतक में काव्य रूप में अभिव्यक्त किया। संकलित वाक्य काव्यांशों का सरल रूपांतर है-  ये प्रेरक विचार। यहां केवल उन्ही विचारों का संकलन किया गया है जो आज भी प्रासंगिक है। 











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अलंकलरों से सुसज्जित कामिनी के भोग अवस्था व्यतीत हो गई। विषय भोगों के पीछे  दौड़ाते -दौड़ाते थककर चूर हो गए। अब तो इस अवस्था के लोगों को समझ जाना चाहिए कि  न तो गुजरा यौवन लौटेगा और न ही बुढ़ापा पीछा छोड़ेगा। इन्द्रियों की शिथिलता के कारण  विलास भी न कर सकेगा। अब तो भजन और भोजन करना ही शेष रह गया हैऔर भोजन भी इतना ही करना है जितने से भजन हो जाये ।

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संतोष से बढ़कर अन्य कोई धन नहीं। कहा भी है -जब आये संतोष धन ,सब धन धूल समान। आत्मसंयम रख कर ही संतुष्ट हुआ जा सकता है। आत्मसंयमी को कभी किसी के सामने हाथ नहीं फ़ैलाने पड़ते। जिसका अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण नहीं ,वही आय से अधिक खर्च करेगा ,क़र्ज़ लेगा और फिर परेशान  होता रहेगा।

 

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  उदार और विशाल ह्रदय वाले अकूत धन -सम्पदा पाकर भी लेश मात्र भी अहंकार नहीं करते,इसके विपरीत जो नीच वृति के लोग है ,थोड़े को भी बहुत बताकर इतराते है। 

 बड़े बड़ाई न करें ,बड़े न बोले बोल 
रहिमन हीरा कब कहे ,लाख हमारो  मोल 

 

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इस संसार में सम्मानीय काम करनेवालों को ही सम्मान मिलता है। केवल धन -सम्पदा का संग्रह कर लेने से नहीं। धनी अपने धन से सम्मान पाता है तो ज्ञानी अपने ज्ञान से, तो कलाकार अपनी कला से। जिनके पास ज्ञान और कला का धन है ,उन्हें चाहिए कि  वे अपने भीतर आत्मग्लानि अनुभव न करें बल्कि धन पर अभिमान करनेवालों को गर्व से  कहे कि तुझमे और मुझमे कोई फर्क नहीं। यदि तू मेरा सम्मान नहीं कर सकता तो, मैं तेरा सम्मान क्यों करूँ ?तू भी मुझसे सम्मान की अपेक्षा ना रख। तुझे अपने धन का अभिमान है तो  मुझे भी अपने ज्ञान या कला का अभिमान है।

 

अज्ञानियों को जिस अज्ञान   पर खेद होना चाहिए ,उसी अज्ञान पर प्रसन्न होते है। पृथ्वी के थोड़े से अंश के स्वामी होने या धन सम्पदा पाकर अहंकार करने लगते है ,जबकि जानते है जिस चीज का उसने संग्रह किया है,मरने पर  साथ न जायेगे और जिस चीज का संग्रह करना चाहिए था ,उसका तो उसने आंशिक भी अर्जित नहीं किया। अज्ञानियों को  अपनी मूर्खता पर घमंड होता  है ,दुःख नहीं।

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गरीब यह सोचकर धनी के सामने हाथ फैलता है कि  वह दाता है। जिसे गरीब दाता समझ  रहा है ,वह स्वयं ही भिखारी है ,वह भी ईश्वर से ही मांगता है। तो क्यों न क्षुद्र धनिकों के सामने हाथ फ़ैलाने की अपेक्षा उसी सर्व शक्तिमान ईश्वर से माँगा जाए ,जो सबको देता है।

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विद्या का उद्देश्य जीविकोपार्जन के साथ -साथ मानसिक क्लेशों से मुक्त होकर चित्त की  शांति प्राप्ति के लिए  भी होना चाहिए। जीविकोपार्जन के लिए प्राप्त विद्या से धन -वैभव तो प्राप्त हो जायेगा ,मन की शांति कहाँ से लाओगे ? विद्या को विषय भोग का माध्यम बना लेने के कारण  ही अधिकांश लोग धन संपन्न होकर  भी मानसिक रूप से अशांत है।

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मनुष्य को अपने अल्प ज्ञान पर घमंड नहीं करना चाहिए क्योकि  ज्ञान का भण्डार असीम है और मनुष्य उस असीम ज्ञान  का अंश मात्र ही प्राप्त कर पाता है । दुनिया में एक से बढ़कर एक ज्ञानी है ,जब हमारा सामना दूसरे ज्ञानी से होता है ,तब लगता है कि  हमारा ज्ञान तो उसके सम्मुख कुछ भी नहीं।

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माया की गति को नहीं पहचानने  के कारण  ज्ञानवान भी मूर्ख बन जाता है। आग के पास जाने का मतलब है -जल जाना ,किन्तु पतंगा  इस सच को नहीं जानता कि आग के पास जाकर जलकर नष्ट हो जायेगा। मछली भी खुद आगे चलकर काँटें में फंसती है। चलो ,यह तो विवेक हीन है,किन्तु मनुष्य के पास तो विवेक है। अपने विवेक से वह वह अच्छे-बुरे के परिणाम को जान सकता है। किन्तु, अज्ञानता वश मनुष्य भी मोह  के चक्कर में पड़कर मूर्ख बन ही जाता है।

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