geeta adhyay saar-7
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geeta adhyay saar-7- सातवाँ अध्याय
इस अध्याय में कुल ३० श्लोक है
इस अध्याय को ज्ञान -विज्ञानं योग कहा गया है
छठे अध्याय के अंत में भगवान् ने श्रद्धा और प्रेम से ईश्वर भजन करने वाले को अपना श्रेष्ठ भक्त बतलाया था।
सातवें अध्याय में अर्जुन के किसी प्रश्न या संशय का निस्तारण नहींकिया ,बल्कि भगवान् ने स्वयं अपनी ओर से भक्त का ईश्वर के प्रति और ईश्वर का भक्त के प्रति भाव की अभिव्यंजना की है। इस अध्याय में भगवान् ने अर्जुन को ब्रहंम विद्या ज्ञान एवं ब्रह्म अनुभूति का विज्ञानं तथा अनन्य प्रेम से श्री कृष्ण में आसक्त मन वाले तथा श्री कृष्ण के आश्रित होकर अनन्य प्रेम भाव से योग का अभ्यास करते हुए श्री कृष्ण को पूर्ण रूपेण ,निस्संदेह कैसे जाना जा सकता है ,यह युक्ति बतलाई है।
भगवान् कहते है कि हजारों सिद्ध योगियों मेसे कोई एक ही मुझे प्रयत्नपूर्वक जान पाता है। भगवान् कहते है कि मेरी प्रकृति -पृथ्वी ,जल,अग्नि ,वायु ,आकाश ,मन ,बुद्धि ,और अहंकार इन आठ में विभाजित है। ये आठों मेरी अपरा शक्ति है। दूसरी शक्ति है -परा चेतन शक्ति अथार्त पुरूष,जिसके द्वारा यह जगत धारण होता है। प्रकृति और पुरूष के संयोग से ही समस्त प्राणी उत्पन्न हुए है। मैं अथार्तश्री कृष्ण ही समस्त जगत की उत्पत्ति और विनाश का माध्यम हूँ। परमात्मा से श्रेष्ठ और कुछ श्रेष्ठ नहीं है।
यह समस्त जगत परब्रह्म परमात्मा रुपी सूत में मणियों की तरह पिरोया हुआ है। मैं ही अथार्त श्री कृष्ण जल में रस सूर्य और चन्द्र में प्रकाश ,वेदों में ऊँकार ,आकाश में शब्द ,तथा मनुष्य में मनुष्यत्व के रूप में समाया हुआ हूँ। पृथ्वी की गंध और अग्नि का तेज मैं ही हूँ। सम्पूर्ण भूतों का जीवन और तपस्वियों का तप मैं ही हूँ। आसक्ति और कामना रहित बलवानों का बल भी मैं ही हूँ। मनुष्य में धर्मानुकूल सन्तानोत्पत्ति हेतु किया जाने वाला सम्भोग भी मैं ही हूँ। तीनों गुण -सात्विक ,राजसिक और तामसिक गुण की उत्पत्ति मुझसे ही होती है। ये तीनों गुण मुझ पर ही निर्भर है किन्तु मैं इनतीनों पर न तो आश्रित हूँ और न प्रभावित। समस्त जगत प्रकृति के इन्ही तीनों गुणोंसे भ्रमित है,इस कारण ही मनुष्य गुणों से परे अविनाशी परमात्मा को जांन नहीं पाता। भगवान् कहते है कि परमात्मा की इस अलौकिक त्रि गुणमयी माया को जान पाना अत्यन्त कठिन है किन्तु मेरी शरण में आया मनुष्य आसानी से इस माया को पार कर सकता है।
वो मनुष्य मेरी शरण नहीं आते जो पाप कर्म में रत है ,मूर्ख है ,आसुरी स्वाभाव वाले है या माया के द्वारा जिनका ज्ञान हर लिया गया है।
मेरा भजन चार प्रकार के मनुष्य करते है -दुःख से पीड़ित ,परमात्मा को जानने की इच्छा रखनेवाला जिज्ञासु ,किसी इष्ट की इच्छा रखने वाला तथा ज्ञानी। इन चारों में भी मुझे अनन्य भक्ति भाव से भजनेवाला ज्ञानी श्रेष्ठ लगता है। वैसे सभी भक्त श्रेष्ठ होते है किन्तु तत्वज्ञ तो साक्षात् मेरा ही स्वरुप है ,क्योकि युक्त आत्मा उत्तम गति को प्राप्तकर मेरे ही परमधाम में निवास करता है। .अनेक जन्मों के बाद ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर वह परब्रह्मज्ञानी मुझे ही प्राप्त होता है, सब कुछ कृष्ण्मय है,ऐसे महात्मा दुर्लभ है। ऐसे मनुष्य जिनका भोगों की कामना ने हर लिया है ,वेअभीष्ट फल देनेवाले देवताओ की पूजा करते है ,जो अभीष्ट कर्मफल की कामना से देवता को पूजता है ,मैं उस भक्त की श्रद्धाको उसी देवता के प्रति स्थिर कर देता हूँ और देवता के द्वारा उस भक्त का अभीष्ट पूर्ण कर देता हूँ। देवताओ को पूजनेवाले देवलोक प्राप्त करते है ,किन्तु मेरे भक्त परमधाम को प्राप्त होते है।
अज्ञानतावश मेरे स्वरुप को जान नहीं पाते ,ऐसा मान लेते है कि मैं निराकार हूँ तथा रूप धारण करता हूँ। ऐसे मनुष्य परब्रह्म परमात्मा के अजन्मे ,अविनाशी दिव्य रूप को जान नहीं पाते ,उनके सामने मैं कभी प्रकट नहीं होता।
मै भूत ,वर्तमान और भविष्य के समस्त प्राणियों को जानता हूँ ,किन्तु वे प्राणी जो राग ,द्वेष से उत्पन्न द्वंद्व द्वारा भ्रमित है ,ऐसे प्राणी अज्ञता को प्राप्त होते है ,किन्तु जो प्राणी मेरी शरण आकर जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति का प्रयास करते है ,ऐसे प्राणी उस परब्रह्म को समस्त अध्यात्म को तथा समस्त कर्मों को जान लेते है। वे युक्तियुक्त प्राणी ,जो अंत समय में भी मुझे अधिभूत ,अधिदैव और अधियज्ञ रूप से जानते है ,ऐसे प्राणी मुझे ही प्राप्त होते है।
सातवां अध्याय समाप्त
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आठवां अध्याय अगले अंक में
जय श्री कृष्णा ….. राधे-राधे
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