geeta adhyay saar -5
पांचवाँ अध्याय
इस अध्याय में कुल २९ श्लोक है
इस अध्याय को कर्म संन्यास योग कहा है
चौथे अध्याय में भगवान् ने कर्म तथा पदार्थों का स्वरुप से त्याग कर तत्व दर्शी से ज्ञान प्राप्त करने की अनुशंसा की थी और बतलाया था कि परमतत्व का मनन आवश्यक है। साधक कर्म योग के द्वारा तत्व ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
इस पांचवें अध्याय में भगवन ने अर्जुन के इस प्रश्न का प्रतिपादन किया है कि कर्म संन्यास और कर्मयोग में से कौनसा साधन उपयुक्त होगा
अर्जुन द्वारा यह कहने पर कि मेरे लिए कर्म सन्यास और कर्म योग में में से कौन सा योग कल्याणकारी होगा ?इस पर भगवान् ने कहा कि दोनों ही समतुल्य है किन्तु तुलनात्मक रूप से कर्म योग श्रेष्ठ है..राग -द्वैष और आकंक्षा रहित मनुष्य संन्यासी होते है और सहज ही बंधन मुक्त हो जाते है। कर्म सन्यास और कर्म योगको भिन्न समझना अज्ञानता है। इनमे से किसी एक की अनुपालना दोनों का फल देती है। दोनों को एक ही धाम की प्राप्ति होती है। शुद्ध सन्यास भाव कर्म-योग की निःस्वार्थ सेवा से ही प्राप्त होता है।
निर्मल अंतःकरणवाले कर्म योगी सम -दृष्टि रखनेवाले वाले ,कर्म करते हुए, कर्म से निर्लिप्त,मन व इंद्रियों को वश में रखने वाले होते है। तत्व ज्ञानी कर्मयोगी समस्त इन्द्रिय संचालन को अपने से पृथक रखकर उन्हें अपने -अपने विषयों में विचरण करना मानते है। आसक्तिरहित होकर समस्त कर्मो को परमेश्वर को अर्पण करनेवाला -कमल पत्र की भाँति निर्लिप्त रहता है क्योकि कर्मयोगी अंतःकरण की शुद्धि के लिए ही कर्म करते है. सकाम कर्म आसक्ति में बांधता है जबकि आसक्तिरहित कर्मयोगी परम शांति प्राप्त करता है। कर्मयोगी अनासक्त रहकर नौ द्वारवाले देहरूपी गृह में निवास करता है। कर्तापन ,कर्म कर्मफल स्वयं ईश्वर नहीं रचते बल्कि प्रकति करती है।अज्ञान द्वारा ज्ञान को ढक देने से पाप-पुण्य का भागी स्वयं मनुष्य होता है,परमेश्वर नहीं।तत्व ज्ञान द्वारा जिसका अज्ञान नष्ट हो जाता है ,उनके अंतः करण में सच्चिदानंद का स्वरुप सूर्य की भांति चमकने लगता है।ज्ञान द्वारा पापरहित हुए प्राणियों को पुनर्जन्म नहीं लेना पड़ता ,जिनका लक्ष्य परमात्मा हो ,निष्ठां परमात्मा में हो,मन-बुद्धि परमात्मा में स्तिथ हो। ज्ञानीजन सभी जीवों में परमात्मा के ही रूप देखते है। ऐसा मनुष्य ही परब्रह्म में स्तिथ हो सकता है जो इच्छित को पाकर सुखी और अनिच्छित को पाकर दुःखी ना होता हो, जो स्थिर बुद्धिवाला ,संशयरहित और ब्रह्म को जानने वाला हो,ऐसे ज्ञानीजन अविनाशी परम को प्राप्त होते है।
इन्द्रियों और विषयों के संयोग से उत्त्पन होने वाले सुख अंत मे दुःख का कारण बनते है। जो मनुष्य मृत्यु से पूर्व काम एवं क्रोध से उत्त्पन वेग को सहन करने का सामर्थ्य रखते है , वे
ही योगी है , वे ही सुखी है। जो योगी आत्म ज्ञानी है ,आत्मा में ही निवास करते हुए आत्मा में ही सुख पाते है ,वह जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते है अर्थात ब्रह्म निर्वाण प्राप्त कर लेते है। वे मनुष्य भी ब्रह्म को प्राप्त होते है ,जिसके समस्त पाप नष्ट हो गए है ,जिसने ज्ञान द्वारा समस्त संशयो को नष्ट कर लिया है ,मन को वश में कर लिया है ,जो प्राणी मात्र के हित में लगे रहते है।
ब्रह्म निर्वाण प्राप्ति के वे आत्म ज्ञानी भी अधिकारी है जो काम और क्रोध से रहित हो ,जिसने चित्त को जीत लिया हो। वे मुनि भी मुक्त है ,जिन्होंने विषयों का चिंतन न करते हुए ,भौहों के मध्य दृष्टि स्थिर करके ,प्राण और अपांन वायु को सम करके ,इंद्रियों मन,और बुद्धि को वश में कर लिया हो। जो मोक्ष परायण है ,इच्छा,भय ,और क्रोध से सर्वथा रहित है,ऐसा मेरा भक्त मुझे सब यज्ञ और तपों का भोक्ता ,समस्त लोकों का महेश्वर और समस्त प्राणियों का मित्र जानकार शांति को प्राप्त करता है।
पाँचवाँ अध्याय समाप्त
छठा अध्याय अगले अंक में
निवेदन -भगवान् श्री कृष्ण के वचनामृत को अपने सभी स्वजनों के साथ share करें
जय श्री कृष्ण। ….. राधे -राधे
No Comments