जिसने सांसारिक बंधन से मुक्त होने के किये एक बार भी प्रभु स्मरण नहीं किया ,जिसने स्वर्गिक सुख प्राप्ति के लिए धन का संचय नहीं किया ,और जिसने स्त्री प्रसंग का सुख का भोग न किया हो ,ऐसे मनुष्य का जीवन निरर्थक समझना चाहिए। वह माता के युवापन रूप तरु को कटाने वाले कुल्हाड़ी के समान है अर्ताथ,धर्म अर्थ ,धन और मोक्ष प्राप्ति के लिए ही तो मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है ,वह पुरुषार्थहीन ही होगा जिसने इन चारों की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ न किया हो।
दुराचारिणी स्त्री की किसी एक पुरुष से प्रीती नहीं हो सकती। ऐसी स्रियाँ प्रेम किसी और से करती है और दृष्टि किसी अन्य पुरुष पर रखती है ,तथा ह्रदय में प्रेम किसी और के प्रति रखती है। ऐसी स्त्रियों को अविश्वसनीय समझना चाहिए। वह मनुष्य मूर्ख है, जो यह समझता है कि इसका प्रेम मेरे प्रति अनन्य है। ऐसे मनुष्य उस स्त्री के इशारे पर नाचते रहते है।
धन पाकर किसे अहंकार नहीं होता ? विषय -वासनाओं में फँसकर किसने कष्ट नहीं भोगा ?ऐसा कौन है जो स्त्री के मोह-पाश में ना बंधा हो ?ऐसा कौन है जो काल कवलित ना हुआ हो ?ऐसा कौन सा याचक है जो याचना करके भी महान बना हो ?दुष्ट के चुंगल में फँसकर कौन सुखी रह सका है ?अर्ताथ इस संसार में उत्तम गुण और चरित्र वाले लोग बिरला ही होते है।
यह निर्विवादित सत्य है कि विनाश काल में मनुष्य की बुद्धि विपरीत हो जाती हैं। तभी तो राम भी स्वर्ण मृग के मोह में बांध गए जो वास्तव में होता ही नहीं है। ऐसा मृग जो न किसी ने देखा और ना किसी से ऐसे मृग के बारे में सुना।
मनुष्य उत्तम गुणों से ही श्रेष्ठता का सम्मान पाता है ,उच्चासन पर बैठकर नहीं। आज तक ना ऐसा हुआ है और ना होगा। यदि कौआ किसी अट्टालिका के कंगूरे पर बैठ जाये तो क्या वह गरुड़ हो जायेगा ?
संसार में गुणों का ही सम्मान होता है।गुणहीन अकूत धन के ढेर पर बैठकर भी वह सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता जो गुणों से स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। पूर्णिमा का चंद्रमा भी उतना वंदित नहीं होता ,जितना द्वितीय का अकलंकित चंद्रमा वंदित होता है ,जबकि द्वितीया का चंद्रमा पूर्णिमा के चंद्रमा की आभा की तुलना में दुर्बल होता है। अकलंकित होने के कारण आभाहीन होकर भी द्वितीया का चंद्रमा पूजनीय है।
जिसके गुणों की प्रशंसा दूसरे लोग करें ,वह निर्गुण होकर भी गुणवान कहलाता है। इन्द्र भी यदि अपने गुणों की प्रशंसा स्वयं अपने मुख से करें तो भी लघु ही कहलायेगे अर्ताथ गुणवान अपने से अधिक का ध्यान कर मूक ही रहते है जबकि गुणहीन ,गुण न होने पर भी प्रशंसा पाने के प्रलोभन में स्वयं अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता है।
रत्न सुंदर होता है किन्तु स्वर्णजड़ित होकर और भी सुंदर दिखने लगता है। इसी भांति विवेकशील मनुष्य को चाहिए कि वह निरन्तर अपने गुणों में अभिवृद्धि करता रहे।
गुणों में ईश्वर के सदृश होकर भी एकाकी मनुष्य कष्ट ही पाता है। रत्न भी सोने में जड़ित होने की अपेक्षा रखता है ,इसी भांति गुणी मनुष्य को भी उसके गुणों का प्रदर्शन करने के लिए अवसर के आश्रय की आवश्यकता पड़ती है।
ऐसा धन त्याज्य है जो दूसरों को पीड़ा देकर या धर्म विपरीत कृत्य द्वारा या शत्रु से आत्म-सम्मान को गिरवी रखकर प्राप्त हुआ हो।
ऐसी धन सम्पदा किस काम की जो वधू के समान व्यक्तिगत उपभोग के लिए ही हो। धन -सम्पदा वेश्या की भांति सार्वजनिक भोग के लिए होना चाहिए। मनुष्य धन का वैयक्तिक उपभोग में ,स्त्री प्रसंग में ,भोजन पर चाहे जितना खर्च कर ले ,अतृप्त ही रहेगा। ऐसा हमेशा से होता रहा है ,और आगे भी होता रहेगा। धन से तृप्ति परमार्थ पर खर्च करने से ही होती है।
योग्य पात्र को दिया गया दान और असहाय को दिया गया अभय दान कभी नष्ट नहीं होता जबकि समस्त प्रकार के दान ,यज्ञ और बलि आदि नष्ट हो जाते है।
तिनका सबसे हल्का होता है ,तिनके से हल्की रुई होती है और रुई से भी हल्का याचक होता है ,उसे वायु इसलिए अपने साथ उडा ले जाती है कि कहीं याचक उससे कुछ मांग ना ले।
आत्म -सम्मान त्यागकर जीने से मृत्यु का वरण कर लेना कहीं ज्यादा अच्छा है। क्योकि मृत्यु तो एक बार पीड़ा देगी किन्तु आत्म-सम्मान से रहित होकर जीनेवाला जीवन भर पीड़ा पाता है।
वाणी की मधुरता सभी के ह्रदय को प्रसन्नता से भर देती है। मीठी वाणी में कंजूसी या दरिद्रता कैसी ?मीठी वाणी कोई धन तो नहीं, जिसका प्रयोग करने से खर्च हो जाएगी। संसार रुपी कड़वे वृक्ष पर दो ही फल लगते है ,एक -मीठी वाणी और दूसरा सज्जनों की संगति।
जो विद्या या ज्ञान पुस्तकों में रहता है और अपना धन जो दूसरो के पास रखा हो, आवश्यकता पड़ने पर काम ना सकेंगे।
पिछले जन्म के दान ,पुण्य और तप से हमारा आज है ,हमारे आज के दान पुण्य और तप से हमारा कल होगा।
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