ऐसे व्यक्ति का जीवित रहने की अपेक्षा मर जाना कहीं श्रेयस्कर है जिसके हाथों ने कभी दान ना दिया हो ,जिसके कानों ने कभी वेदमन्त्रों का श्रवण ना किया हो ,जिसके नेत्रों ने कभी संतों के दर्शन न किये हो ,जिसके पैरोँ ने कभी पवित्र तीर्थ स्थलों का स्पर्श न पाया हो ,अनैतिक ढंग से अर्जित धन से उदर भरण किया हो ,दुर्गुणों से भरा होने पर भी सिर अहंकार से ऊपर रखता हो। ऐसे अंग धारण करनेवाले शरीर से अच्छा है ,ऐसे शरीर का ही त्याग कर दे।
इसमे वसंत ऋतु का क्या दोष यदि वसंत ऋतु में उसके पौधों में पत्ते नहीं निकलते ,इसमे सूर्य का क्या दोष यदि दिन में उलूक को दिखाई ना दे, इसमे बादलों का क्या दोष यदि वर्षाकाल में चातक की चोंच में जल ना ठहरे ,विधि ने जिसका जैसा भाग्य लिखा है ,उसके लिए अन्य को दोष नहीं दिया जा सकता। धन ,विद्या और धर्म का थोड़ा -थोड़ा संचय करते रहने से एक दिन ऐसे ही भर जाते है ,जैसे बूँद बूँद से घड़ा भर जाता है। इंद्रायन फल कितना ही पक जाए कड़वा ही रहेगा ,वैसे ही दुष्टजन कितनी ही आयु प्राप्त कर ले,अपनी दुष्टता का परित्याग नहीं करते। कुछ मामलों में लज्जा का भी परित्याग कर देना पड़े तो कर देना चाहिए ,यथा व्यवसाय में ,विद्या सीखने में , उदर पूर्ति में।ऐसे लोग सुखी देखे गए है। फूलों की गंध को मिटटी ग्रहण कर लेती है किन्तु फूल मिटटी की गंध ग्रहण नहीं करता। वैसे ही सज्जन , दुर्जनों के बीच रहकर भी उनकी बुरी बातों का प्रभाव अपने पर नहीं पड़ने देते। वह घर ,घर नहीं जो घर योग्य ब्राह्मण के चरण प्रक्षालन से अभिसिंचित न हुआ हो। ऐसे घर को श्मशान के समान समझना चाहिए जो घर न वेद -शास्त्रों के मन्त्र -श्लोक से अनुगुंजित हुआ हो और न यज्ञ की स्वधा के ध्रूम से आच्छादित और स्वाहा की ध्वनि से गूंजित हुआ हो।। सच्चे संत के परिजन कौन ? संत का उत्तर होगा -सत्य मेरी माता है और ज्ञान मेरा पिता है। धर्म मेरा भाई है , शांति गृहणी है , क्षमा मेरा पुत्र तथा दया मेरा मित्र है। ये छह ही मेरे बंधु -बांधव है। इन्ही के साथ रहते हुए मुझे आनंद की प्राप्ति होती है। यदि कोई गृहस्थ सत्य ,धर्म ,ज्ञान ,शांति ,,दया ,क्षमा का गुण अपना ले तो उसका आनन्द साधु -संतों से कितना अधिक होगा ? देह अनित्य है ,वैभव भी सदा नहीं रहता , मृत्यु तो साथ ही रहती है ,अतः मनुष्य को चाहिए कि जितना संभव हो सके धर्माचरण करें ,सत्कर्मों का संचय करें पवित्र दृष्टि से देखना क्या है ? पर स्त्री को भाव रिक्त होकर देखना ,दूसरे के धन को कंकर -पत्थर और सबको अपने समान देखना। इस भावना से देखने को ही पवित्र दृष्टि से देखना कहा गया है। सज्जन कौन ? जिसकी धर्म में तत्परता ,वाणी में मधुरता ,दान देने में उत्साह ,मित्र के विषय में निश्छलता ,गुरु के प्रति विनम्रता ,अन्तःकरण में गंभीरता ,आचरण में पवित्रता ,गुणों में रसिकता ,शास्त्रों में विषय विशेषज्ञता ,रूप में सुंदरता और शिव में भक्ति हो ,वही सज्जन है। कीर्तन में बजनेवाला मृदंग कहता है कि यशोदानंदन के पुत्र के चरण कमल में जिसकी भक्ति नहीं ,जिनकी जीभ अहीर कन्याओं के प्रिय श्री कृष्ण का गुणगान नहीं करती और जिनके कान श्री कृष्ण की लीला कथा का श्रवण नहीं करते ,ऐसे लोगों का जीवन धिक्कार है। परम पिता परमेश्वर अतुलनीय है क्योकि कल्पवृक्ष कहे तो वह लकड़ी है ,चिंतामणि कहे तो वह पत्थर है ,सूर्य कहे तो उसमें उष्णता है ,चन्द्रमा की किरणे कहे तो उसमे क्षीणता है ,समुंद्र कहे तो वह खारा है, काम कहे तो वह देह रहित है ,बलि कहे तो वह दैत्य है ,कामधेनु कहे तो वह पशु है ,फिर प्रभु को किस उपमा से उपमित किया जाये ? हर किसी में कोई ना कोई गुण अवश्य होता है ,हर गुण की स्तिथि के अनुसार उपयोगिता होती है। राजपुत्र से सुशीलता ,विद्वजनों से प्रिय वचन ,जुआरियों से असत्य और स्रियों से छल विद्या सीखी जा सकती है। ऐसे पुरुष शीघ्र नष्ट हो जाते है जो बिना विचार किये आवश्यकता से अधिक खर्च कर देता है ,अशक्त होकर भी ऊर्जा का अपव्यय करता है ,और सभी प्रकार की स्रियों से रति प्रसंग करता है। अपने धर्म -कर्म में पूरी निष्ठां से लगे हुए ज्ञानीजनों को भरण पोषण की चिता करने की आवश्यकता नहीं। प्रभु कृपा से प्रबंध हो ही जाता है। वीर के लिए युद्धकाल ही उत्सव है जैसे निमन्त्रण ब्राह्मणों का ,नई घास गायों का ,पति की प्रसन्नता पत्नी का उत्सव है। जिसे योग्य संतान प्राप्त है ,मृदु भाषिणी पत्नी मिली हो ,परिश्रम और ईमानदारी से अर्जित धन सम्पदा प्राप्त हो ,उत्तम मित्र हो ,धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री के प्रति आसक्ति का भाव न हो ,आज्ञा पालक सेवक हो ,अतिथि सम्मान पाते हो ,सांझ -सवेरे घर में पूजा पाठ होता है। स्वादु भोजन प्राप्त हो ,सज्जनों का सानिध्य प्राप्त हो ,ऐसा गृहस्थ सौभग्यशाली है योग्य ब्राह्मण को दिया गया दान व्यर्थ का खर्च नहीं अपितु पुण्य कृत्य है। इस दान का प्रतिफल दुगना होकर पुनः प्राप्त हो जाता है। सदवृत्ति रखनेवाले मनुष्य विषम परिस्तिथियों में भी अपनी सदवृत्तियों का परित्याग नहीं करते। ऐसे मनुष्य विषम स्तिथियों में अपनी सदवृत्तियों वाला स्वाभाविक गुण बनाये रखते है। जैसे एक प्रवासी राहगीर ने स्थानीय सज्जन से पूछा कि इस नगर में महान कौन है ? सज्जन ने कहा -ताड़ वृक्षों का दल। राहगीर ने पूछा -इस नगर का दाता कौन है ?सज्जन ने कहा -धोबी।वह प्रातः वस्त्र लेकर रात्रि को लौटा देता है। राहगीर ने पूछा -और सबसे चतुर कौन है ?सज्जन ने बतलाया कि इस नगर के सभी पुरुष चतुर है ,जो बड़ी चतुरता से दूसरों का धन और स्त्रियों का हरण कर लेते है। इस पर राहगीर ने कहा कि ऐसे व्यक्तियों के बीच तुम रह कैसे लेते हो ?सज्जन ने बतलाया कि ठीक वैसे ही जैसे विष में उत्पन्न किट विष में जीवित रह लेता है किन्तु विष के प्रभाव से मुक्त रहता है।
उस मनुष्य को सुखी समझना चाहिए जो स्वजनों के प्रति आत्मीयता रखता है ,दूसरों के प्रति दया भाव रखता है ,आवश्यकता पड़ने पर दुष्टों और शक्तिशालियों के साथ यथा- स्तिथि प्रतिरोध और कठोरता का व्यवहार कर सकता हो ,विद्वजनों और बड़ों के प्रति आदर-सम्मान का भाव रखता हो ,पत्नी पर अति विश्वास न कर चातुर्यपूर्ण ढंग से व्यवहार करता हो। इन गुणोंवाला मनुष्य प्रायः सुखी रहता है। सच्चे साधु -संतों के दर्शन तीर्थरूप है ,उनके दर्शन से पुण्य प्राप्त होता है। पवित्र तीर्थ का पुण्य समयांतर के पश्चात् प्राप्त होता किन्तु सच्चे साधु -संतों के दर्शन का फल त्वरित प्राप्त होता है।
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