जैसे नेत्रहीन के लिए दर्पण व्यर्थ है ,वैसे ही जिसकी स्वाभाविक बुद्धि न हो उसके लिए शास्त्रों का ज्ञान व्यर्थ है। दुष्ट को सज्जन बनाने का कोई उपाय इस धरा पर नहीं।मल त्याग करनेवाली इन्द्रिय का कितना भी प्रक्षालन किया जाये ,वह अशुद्ध ही रहेगी। आत्मा से द्वेष रखनेवाला मृत्यु को प्राप्त होता है ,शत्रु का विरोध करनेवाले को धन का क्षय होता है ,राजा से द्वेष नाश के परिणाम के रूप में सामने आता है और ब्राह्मण से किया गया द्वेष कुल के विनाश का कारण बनता है। यदि मनुष्य को हिंसक पशुओं के बीच रहना पड़ जाये ,रह ले। पेड़ के नीचे रहना पड़े ,रह ले। पेड़ की पत्तियां कहकर गुजारा करना पड़े ,कर ले। तिनकों का बिस्तर बनाकर सोना पड़े ,सो ले। तन ढकने के लिए पेड़ों की छाल पहनना पड़े ,पहन ले किन्तु भाई -बन्धुओं के बीच दींन -हीन तिरस्कृत होकर जीवन यापन करना कदापि श्रेष्ठ नहीं। ब्राह्मण वृक्ष तुल्य है ,ईश्वर भक्ति वृक्ष की जड़े है ,वेद इसकी शाखाएं है ,धर्म और कर्म पल्लव है। जड़ों की रक्षा अनिवार्य है क्योकि जड़ों के न रहने पर ना शाखएँ रहेगी और ना पत्ते अतार्थ प्रभु स्मरण के बिना जीवन व्यर्थ है। लक्ष्मी जिसकी माता है ,विष्णु जिसके पिता है , विष्णु के भक्त जिसके बांधव है ,ऐसे मनुष्य के तीनों लोक तो उसके स्वदेश है। रात्रि को एक ही पेड़ पर विभिन्न पक्षी आकर बैठ जाते है और सुबह होते ही दसों दिशाओं में उड़ जाते है। मिलना -बिछुड़ना तो नियति है ,इसका शोक क्यों किया जाये ?
विद्या धन पाकर कोई भी मनुष्य कभी हीन नहीं हो सकता किन्तु जिसके पास विद्या धन नहीं वह सभी प्रकार से हीन है। ज़मीन परपाँव देखकर रखे ,पानी छान कर पियें शास्त्रानुसार वाणी बोले ,और कोई भी कार्य करने से पूर्व भली -भांति विचार कर ले।
सुख चाहनेवाले को कभी विद्या प्राप्त नहीं होती और विद्या चाहनेवाले को सुख प्राप्त नहीं होता अर्ताथ विद्या प्राप्ति के लिए सुख का परित्याग अनिवार्य शर्त है। स्त्री हठधर्मिता से कुछ भी कर सकती है ,विवेकशून्य कुछ भी बोल सकता है और कौआ कुछ भी खा सकता है अर्थात जिसे भले-बुरे का ज्ञान नहीं वह कुछ भी कर सकता है। विधाता का लेख अटल है ,जिसके भाग्य में जितना सुख लिखा है ,वह उतना ही सुख भोग सकेगा और जिसके भाग्य में जितना दुःख भोगना लिखा है ,उसे उतना दुःख भोगना ही पड़ेगा। विधि के लेख को मिटाया नहीं जा सकता।निश्चित अवसर पर राजा ,रंक हो जाता है और रंक राजा बन जाता है। लोभी को याचना करनेवाला मनुष्य शत्रु समान लगता है ,मूर्खों को सही शिक्षा देनेवाला शत्रु समान लगता है ,व्यभिचारिणी स्त्री को सदवृत्ति वाला पुरुष शत्रु समान जान पड़ता है और चोर को चंद्रमा शत्रु समान जान पड़ता है अर्थात अभीष्ट में बाधा उत्पन्न करनेवाले कारक शत्रु के समान लगते है। वे मनुष्य इस धरा पर भार स्वरुप है और मृग के समान विचरण कर रहे है ,जिसमे विद्या गुण नहीं और ,ना तप अर्थात त्याग की भावना तथा जिसमे दान देने की उदारता नहीं। जिसमे ना कोई शील गुण हो और ना धर्मानुसार जीवन यापन करता हो। ऐसे लोग मनुष्य जीवन पाकर भी पशुतुल्य ही है। जैसे छलनी में पानी नहीं ठहरता ,वैसे ही मूर्ख या अपात्र को ज्ञान देने का कोई लाभ नहीं। मलयाचल की ओर से आनेवाली वायु बाँस को चन्दन की भांति सुगन्धित नहीं बना सकती। बुद्धि ही बल है। बुद्धि बल से भुज बल वाले को भी नष्ट किया जा सकता है। जीवन की चिंता क्यों करें ?श्री हरी सबके पालनहार है। ऐसा ना होता तो बच्चे को जीवन देने के लिए माता के स्तन में दूध कैसे बनाते ?यही विचारकर मैं श्री हरी के चरणोंकी सेवा में जीवन व्यतीत करता हूँ। यद्यपि संस्कृत भाषा में ही विशेष ज्ञान है किन्तु अन्य भाषा का भी मैं रसिक हूँ। जैसे अमृत का पानकर भी देवता अप्सराओं के अधरों का रस पीने के लिए आकुल रहते है।
आटे में अन्न से दस गुना और ,दूध में आटे से गुना ज्यादा शक्ति होती है। मांस में दूध से आठ गुना और घी में मॉस से आठ गुना शक्ति होती है। जब घी इतना श्रेष्ठ है तो फिर क्यों भोजन के लिए एक मूक -निर्दोष पशु की हत्या की जाती है।
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