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12th BIHAR

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September 24, 2022
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अर्द्धनारीश्वर,रामधारी सिंह दिनकर

3. अर्द्धनारीश्वर  (रामधारी सिंह दिनकर )

प्रश्न 1.‘यदि संधि की वार्ता कुंती और गांधारी के बीच हुई होती, तो बहुत संभव था कि महाभारत न मचता’। लेखक के इस कथन से क्या आप सहमत हैं? अपना पक्ष रखें

उत्तर. यदि संधि की वार्ता कुंती और गांधारी के बीच हुई होती, तो बहुत संभव था कि महाभारत न मचता’। रामधारी सिंह दिनकर का यह कथन बहुत हद तक सत्य के निकट है . महाभारत का दुर्योधन के अहम के अहम् का परिणाम था . संधि की वार्ता दुर्योधन के साथ हुई ,दुर्योधन पुरुष है , पुरुष में क्रोध के   गुण साथ –साथ  समर्पण के बदले अहम का भाव अधिक होता है। इसके विपरीत  नारी दया ,करुणा ,ममता और सहिष्णुता के गुणों से परिपूर्ण होती है .अपने इन गुणों के कारण नारी कभी भी युद्ध के निर्णय का समर्थन नहीं करती .पुरुष स्वाभाव से कठोर होता है  जबकि पुरुष की तुलना नारियों की भावना कोमल होती है . कुंती और गांधारी माताएं है ,माताओं का ह्रदय तो और भी कोमल होता है .यदि यदि संधि की वार्ता दुर्योधन के स्थान पर  कुंती और गांधारी के बीच हुई होती  तो  बहुत संभव था कि महाभारत न मचता’।

प्रश्न 2. अर्द्धनारीश्वर की कल्पना क्यों की गई होती? आज इसकी क्या सार्थकता है?

उत्तर. अर्द्धनारीश्वर,भगवान शिव और माता पार्वती का समन्वित रूप है ,ऐसी मान्यता है .जो इस बात का द्योतक है कि स्त्री –पुरुष दोनों एक दूसरे के सम्पूरक है.दोनों सामान है . यदि स्त्री में पुरुष के और पुरुष में स्त्री के गुण का समावेश हो जाए तो यह दोनों में से किसी का भी अवगुण या दोष नहीं कहा जा सकता बल्कि गुणों की वृद्धि ही होगी . किन्तु पुरुष प्रधान समाज में पुरुष में नारी के गुण आ जाने को स्त्रैण समझा जाता है ,इसी प्रकार नारियों की भी यही मानसिकता है  कि उसमे पुरुष के गुण उत्पन्न होने से उसके नारीत्व में बट्टा लगेगा .

एक प्रकार से स्त्री -पुरुष के गुणों के बीच एक विभाजन रेखा निर्धारित कर दी गई है . नर-नारी दोनों को भय लगता है कि  विभाजन की रेखा को लाँघने से स्थापित मान्यता को बट्टा लग जायेगा .सूर्य की किरणें स्त्री-पुरुष का भेद किये बिना दोनों पर सामान पड़ती है अर्थात प्रकृति स्त्री-पुरुष का भेद नहीं करती ,प्रकृति की दृष्टि में स्त्री-पुरुष दोनों समान है .किन्तु पुरुष ने नारी को कमज़ोर –अबला समझकर उसे अपनी दासी समझ लिया है . दिनकरजी पुरुष एवं स्त्री को यह  समझाना चाहते हैं कि नारी-नर पूर्ण रूप से समान हैं।दोनों एक दूसरे के गुण अपनाकर अपनी अपूर्णता को पूर्ण कर सकते है . यही बोध करने के लिए शायद अर्द्धनारीश्वर की कल्पना की गई होगी.

प्रश्न 3.रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचन्द के चिन्तन से दिनकर क्यों असन्तुष्ट हैं?

उत्तर. रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचन्द के चिन्तन में दिनकरजी  इसलिए असन्तुष्ट हैं कि वे अर्द्धनारीश्वर के  रूप  की जिस भावना से सृष्टि की गई ,यह भावना उनके साहित्य में नारी के साथ न्याय नहीं करती बल्कि नारी को पुरुष की तुलना में हीन और कमतर आँका गया है और नारी को पुरुष के अधीन रहने को ही नारी की मर्यादा बतलाया है . दिनकरजी का मानना हैं कि अर्द्धनारीश्वर की कल्पना से इस बात का प्रमाण  हैं कि नर- नारी समान हैं एवं उनमें से एक के गुण दूसरे के दोष नहीं हो सकते। किन्तु यह दृष्टि रवीन्द्रनाथ के पास नहीं है। वे नारी के गुण यदि पुरुष में आ जाने को दोष मानते हैं। रवीन्द्रनाथ का मानना है की नारी  को कोमलता ही शोभा देती है। नारी की सार्थकता उसकी भंगिमा के मोहक और आकर्षक होने में है, केवल प्रेम की प्रतिमा बनने में हैं।

कर्मकीर्ति, वीर्यबल और शिक्षा-दीक्षा का नारी के जीवन में कोई महत्त्व नहीं ? प्रेमचन्दजी के अनुसार  “पुरुष जब नारी के गुण ग्रहण का लेता है तब वह देवता बन जाता है, किन्तु नारी जब नर के गुण ग्रहण कर ले ,तो  वह राक्षसी हो जाती है।” इसी प्रकार प्रसादजी ने भी कामायनी में इड़ा के विषय मेंइसी पारकर के विचार प्रकट किये है और  इड़ा को पुरुष  गुण के समान  बतलाया .  तो इस इस तथ्य की पुष्टि करता है  कि प्रसादजी भी नारी को पुरुषों के क्षेत्र से अलग रखना चाहते हैं। नारियों के प्रति इस तरह विचार शोभनीय  नहीं कहे जा सकते । रवीन्द्रनाथ, प्रसाद और प्रेमचन्द जो साहित्य में मूर्धन्य स्थान रखते है ,दिनकरजी इनके नारी के प्रति दृष्टिकोण से व्यथित होते है l

प्रश्न 4. प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग क्या है?

उत्तर. प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग दो वैचारिक प्रवृतियाँ है . प्रवृत्तिमार्ग को गृहस्थ जीवन की स्वीकारोक्ति प्राप्त है ।

नारी गृहस्थ जीवन की मर्यादा बढ़ती है, ऐसा मानते हुए  जो पुरुष गृहस्थ जीवन को उत्तम  मानते हैं , प्रवृत्तिमार्गी माने जाते है।  प्रवृत्तिमार्गियों ने नारी को गले से लगाया, सम्मान दिया। प्रवृत्तिमार्गी जीवन में आनन्द चाहते थे और नारी को आनन्द की खान ममता की प्रतिमूर्ति और  दया, ममता , सहिष्णुता का  भंडार मानते  है।

प्रवृति मार्ग के विपरीत विचार रखनेवाले जो  साधना मार्ग  में गृहस्थ जीवन और नारी सत्ता को अस्वीकार करते है ,निवृतिमार्गी निवृत्ति मार्ग से नारी की मान मर्यादा का आकलन नारी को हेय,निम्नतर और त्याज्य रूप में मूल्यांकित करती है ।  निवृत्तिमार्गियों ने जीवन के साथ नारी को भी अलग ढकेल दिया क्योंकि  नारी उनके लिए  साधना और मोक्ष प्राप्ति  मार्ग में बाधक है  । जब वैयक्तिक मुक्ति की खोज मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी साधना मानी जाने लगी, तब झुंड के झुंड विवाहित लोग संन्यास लेने लगे और उनकी अभागिन पत्नियों के सिर पर जीवित वैधव्य का पहाड़ टूटने लगा। जो संत –महात्मा निवृत्तिमार्ग के समर्थक थे उनमे बुद्ध, महावीर, कबीर आदि प्रमुख  थे।

प्रश्न 5. बुद्ध ने आनन्द से क्या कहा?

उत्तर. महात्मा बुद्ध ने संघ में स्त्रियों को प्रवेश और भिक्षुणी होने का अधिकार देने के पश्चात् अपने शिष्य आनन्द से कहा था कि  मैंने जो धर्म चलाया है , वह पाँच सहस्र वर्ष तक चलने वाला था, किन्तु  मैंने नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार दे दिया है।अब वह केवल पाँच सौ वर्ष चलेगा.

 प्रश्न 6.स्त्री को अहेरिन, नागिन और जादूगरनी कहने के पीछे क्या मंशा होती है, क्या ऐसा कहना उचित है?

उत्तर. स्त्री को अहेरिन, नागिन और जादूगरनी कहने के पीछे पुरुष की मंशा अपनी  कमजोरियों को छुपाकर स्त्री की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ प्रमाणित करना रहा होगा .पुरुष की इस सोच को निंदनीय  ही कहा जायेगा .

प्रश्न 7.नारी के पराधीनता कब से आरम्भ हुई?

उत्तर. नारी की पराधीनता उस समय प्रारंभ  हुई जब मनुष्य  ने खेती करना सीखा .पुरुष खेत पर काम करता और स्त्री घर के भीतर का काम करती .यही से स्त्री –पुरुष की  विभाजन नींव पड़ी .काम के बंटवारे ने स्त्री-पुरुष को भी बाँट दिया .स्त्री का जीवन घर की चाहर दीवारी तक सिमट गया और पुरुष को सीमाहीन अधिकार प्राप्त हो गए .कृषि के आविष्कार के साथ ही नारी की पराधीनता भी आरम्भ हो गई.

प्रश्न 8.  प्रसंग स्पष्ट करें.

(क) प्रत्येक पत्नी अपने पति को बहुत कुछ उसी दृष्टि से देखती है जिस दृष्टि से लता अपने वृक्ष को देखती है।

(ख) जिस पुरुष में नारीत्व नहीं, अपूर्ण है।

उत्तर.

व्याख्या.(क) प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ रामधारी सिंह ‘दिनकर’ रचित निबंध अर्द्धनारीश्वर से ली गयी है। प्रस्तुत पंक्तियों में कवि यह कहना चाहता है कि जिस तरह वृक्ष के अधीन उसकी लताएँ फलती फूलती हैं उसी तरह पत्नी भी पुरुषों के अधीन है। वह पुरुष के पराधीन है। इस कारण नारी का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया। उसके सुख और दुख, प्रतिष्ठा और अप्रतिष्ठा यहाँ तक कि जीवन और मरण भी पुरुष की मर्जी पर हो गये। उसका सारा मूल्य इस बात पर जा ठहरा है कि पुरुषों की इच्छा पर वह है। स्त्री ने अपने को आर्थिक पंगु मानकर पुरुष को अधीनता स्वीकार कर ली और यह कहने को विवश हो गयी कि पुरुष के अस्तित्व के कारण ही मेरा अस्तित्व है। इस परवशता के कारण उसकी सहज दृष्टि भी छिन गयी जिससे यह समझती कि वह नारी है। उसका अस्तित्व है। एक सोचीदृसमझी साजिश के तहत पुरुषों द्वारा वह पंगु बना दी गई। इसीलिए वह सोचती है कि मेरा पति मेरा कर्णधार है मेरी नैया वही पार करा सकता है, मेरा अस्तित्व उसके होने के कारण को लेकर है। वृक्ष लता को अपनी जड़ों से सींचकर उसे सहारा देकर बढ़ने का मौका देता है और कभी दमन भी करता है। इसी तरह एक पत्नी भी इसी दृष्टि से अपने पति को देखती है।

व्याख्या. (ख) प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर के निबंध अर्द्धनारीश्वर से ली गयी है। निबन्धकार दिनकर कहते हैं कि नारी में दया, माया, सहिष्णुता और भीरुता जैसे स्त्रियोचित गुण होते हैं। इन गुणों के कारण नारी विनाश से बची रहती है। यदि इन गुणों को पुरुष अंगीकार कर ले तो पुरुष के पौरुष में कोई दोष नहीं आता और पुरुष नारीत्व से पूर्ण हो जाता है। इसीलिए निबंधकार अर्द्धनारीश्वर की कल्पना करता है जिससे पुरुष स्त्री का गुण और स्त्री पुरुष का गुण लेकर महान बन सके। प्रकृति ने नरदृनारी को सामान बनाया है पर गुणों में अंतर है। अतरू निबन्ध कार नारीत्व के लिए एक महान पुरुष गाँधीजी का हवाला देता है कि गाँधीजी ने अन्तिम दिनों में नारीत्व की ही साधना की थी।

प्रश्न 9.जिसे भी पुरुष अपना कर्मक्षेत्र मानता है, वह नारी का भी कर्म क्षेत्र है। कैसे?

उत्तर. रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के अनुसार नर-नारी अपने में अधूरे है  ,नर के बिना नारी और नारी के बिना पुरुष अपूर्ण है .नर-नारी मिलकर पूर्ण होते है .दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। नारी का नारीत्व एवं पुरुष का  पौरुष  पूर्णता है .दोनों का जीवनोद्देश्य समान  है। परन्तु पुरुषों ने भावनात्मक और धर्म ग्रथों का सहारा लेकर षडयंत्र कर  अपने उद्देश्य की सिद्धि का  विस्तृत क्षेत्र अधिकृत कर लिया है। जीवन की अधिकांश गतिविधियाँ  पुरुष-प्रवृत्ति से संचालित होती है। पुरुष में कर्कशता की मात्रा अधिक और कोमलता कम दिखाई देती है। यदि सामाजिक जीवन की गतिविधियों में नारी को भी सहभागी बना लिया जाता  तो मानवीय संबंधों में कोमलता की वृद्धि हो सकती थी । यदि नारी को मर्यादा की सीमारेखा खींचकर उसके अधिकारों को संकुचित नहीं जाता तो नारी का कर्म क्षेत्र भी पुरुष के समान विस्तृत हो सकता था . और जब समय ने करवट लेकर नारी की पारंपरिक स्थिति को बदल दिया नारी ने स्वयं को पुरुष के समकक्ष  ला खड़ा किया .जिसे कभी  पुरुष का  कार्यक्षेत्र माना जाता था आज की नारी पुरुष के कर्मक्षेत्र में नारीत्व की गरिमा के साथ पुरुष के पौरूष का भी प्रदर्शन कर रही है

प्रश्न 10. ‘अर्द्धनारीश्वर’ निबन्ध में दिनकरजी के व्यक्त विचारों का सार रूप प्रस्तुत करें।

उत्तर. ‘‘अर्द्धनारीश्वर’ निबन्ध में दिनकरजी के व्यक्त विचारों स्पष्ट है कि दिनकरजी स्त्री-पुरुष के अधिकार क्षेत्र को लेकर जो सीमा विभेद उत्पन्न किया गया था ,दिकनार्जी अपने निबंध में व्यक्त विचारों के माध्यम से सीमारेख को तोड़कर स्त्री-पुरुष विभेद  को मिटाना चाहते हैं.प्रचलित मान्यता के अनुसार  नर-नारी दोनों अलग- अलग हैं ,जबकि  नर-नारी पूर्ण रूप से समान हैं तथा  उनमें एक के गुण दूसरे के दोष नहीं  माना जा सकता । ‘दिनकरजी ने निबंध में कतिपय उद्धरणों के माध्यम से पुरुषों के वर्चस्ववादी रवैये  का विरोध करते हुए नारी को समाज में वही  प्रतिष्ठा दिलाना का प्रयास किया है जिसकी वह अधिकारिणी है  हैं । नारी पुरुष से कमतर नहीं है। पुरुष को ,स्त्री को भोग्य वस्तु  समझने की मानसिकता से बाहर आना होगा  है। दिनकरजी ने स्त्रियों को भी सलाह दी है कि उन्हें भी पुरुषों के  गुण अंगीकार करने में संकोच  नहीं करना चाहिए ,नारी अपने मन से इस आशंका को निकल दे कि यदि पुरुष गुण को अंगीकार करने से उनके नारीत्व को इससे बट्टा लगेगा।इसी प्रकार  पुरुषों को भी चाहिए कि  स्त्रियोचित गुण अपनाकर समाज में स्त्रैण कहलाने के भय से भयभीत न हो  क्योंकि शीलता, सहिष्णुता, भीरुता जैसे  स्त्री  गुण पुरुषों द्वारा अंगीकार कर लेने परउसका कद घटेगा नहीं बल्कि बढेगा . स्त्रियोचित गुण अपनाकर पुरुष अनावश्यक विनाश से बच सकता. उसी प्रकार अध्यवसाय, साहस और शूरता का वरण करने से नारी के  नारीत्व की मर्यादा भी नहीं घटेगी के स्वरुप की कल्पना इसी सत्य का बोध करने के लिए की गई है । पुरुष में नारीत्व की ज्योति जगे बल्कि यह प्रत्येक नारी में भी पौरुष का स्पष्ट आभास हो।अन्यथा जब तक नारी और नर पृथक –पृथक रहेगे  , दोनों अपूर्ण रहेगे  .

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