23march-shahid diwas in hindi
२३,मार्च -शहीद दिवस
२३,मार्च -शहीद दिवस |
२३ मार्च,१९३१ भारतीय इतिहास के पन्ने की वह तारीख ,जिस दिन एक साथ तीन -तीन भारत माता के सपूतों को फांसी के फंदे पर लटका दिया गया था। अपराध क्या था उनका ?
गाँधी बाबा की नज़र में उनका अपराध यह था कि उन्होंने अहिंसा के सिद्धान्त को तोडा ,इसलिए वे अपराधी है। और अपराध किया है तो सजा तो मिलेगी ही। इसमे गलत क्या है ?
शांतिदूत नेहरूजी के नज़रिये से उन्होंने कानून विरूद्ध बम फेंकने जैसा जघन्य अपराध किया है ,जब देश को आज़ाद कराने का ठेका मैंने ,गान्धीजी ने और कांग्रेस कमेटी ने लिया तो ,तो उन्हें क्या ज़रुरत थी बीच में टांग अड़ाने की ? किसने कहा था उन्हें, यह सब करने के लिए ?अब किया है तो भुगतो ,हम क्या कर सकते है इस मामले में ?
यदि उस समय स्टिंग ऑपरेशन की सुविधा होती तो शायद आप गांधीजी या नेहरूजी के यही वाक्य पढ़ या सुन रहे होते।
लाल लाजपत राय के नेतृत्व में साइमन कमीशन के विरोध में जुलूस निकाला गया।लाल लाजपत राय पुलिस मुठभेड़ में बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए और उसके कुछ दिन बाद ही लाला लाजपत राय की मौत हो गई । लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए अंग्रेज अफसर साण्डर्स की हत्या करदी गयी ।
अहिंसा के पुजारियोंऔर शांतिदूतों को अंग्रेजी सरकार विषहीन साँप की तरह समझती थी,अतएवं अंग्रेजी सरकार उनकी ओर से निश्चिन्त थी। शांति और विनम्रता की याचना शायद अंग्रेजों को सुनाई नहीं दे रही थी। अंग्रेजों के कान खोलने के लिए भगत सिंह और उसके साथियों द्वारा असेम्बली पर बम धमाका करने की योजना बनाई गई । असेम्बली में बम फेंकने की योजना को अंजाम दिया भगत और बटुकेश्वर दत्त ने। भगतसिंह और उसके साथियों को गिरफ्तार कर उन पर मुक़दमा चलाया गया। भगत सिंह ,राजगुरु और सुख देव को फांसी की सजा सुनाई गई। अंग्रेजों पर गांधीजी का प्रभाव देखते हुए भगत सिंह और साथियों को फाँसी की सजा से बचाने के लिए गांधीजी से गुहार की गयी किन्तु अहिंसा के पुजारी कहलानेवाले गांधीजी को भारत माता के देश भक्त पुत्रों से ज्यादा अपने आदर्श और सिंद्धान्त प्रिय थे। इस मामले में हस्तक्षेप करना उन्हें अपने आदर्श और सिंद्धान्त के खिलाफ लगा और उन्होंने ने किसी भी प्रकार की सहायता करने से इंकार कर दिया। अहिंसा और शांति का राग गुनगुनाने वालों का क्रांतिकारियों के प्रति उपेक्षित व्यवहार न सिर्फ अचंभित कर देनेवाला था बल्कि कई सारे सवाल पैदा करने वाला भी था।
अदालत के फैसले के अनुसार २४मार्च १९३१ को सुबह फांसी दी जानी थी किन्तु फैसले को एक ओर रखकर २३ मार्च को शाम सात बजे ही फांसी दे दी गई और रातोंरात दाह संस्कार भी कर दिया गया।
अंग्रेज समझ रहे थे कि इस घटना के बाद क्रांतिकारियों में दहशत फ़ैल जाएगी ,लेकिन हुआ इसके बिलकुल विपरीत इन तीनों की शहादत ने पूरे देश में स्पंदन शक्ति शून्य स्नायुओं में भी संजीवनी शक्ति भर दी ,
यह तो तय है तय था कि यदि गांधीजी और नेहरूजी ने इस मामले में हस्तक्षेप किया होता तो शायद २३ ,मार्च की यह तारीख इस रूप में याद नहीं की जाती।
तो क्या भगत सिंह ,राजगुरु और सुखदेव ने बहरी अंग्रेजी सरकार को जगाने के लिए बम धमाका किया तो इस प्रतीक की सजा फांसी ही थी ? जबकि यह स्पष्ट था कि बम फेंकने का उद्देश्य किसी की हत्या या किसी को मरना नहीं था।
तो क्या उन्हें झोला फैलाकर ब्रिटिश हुकूमत से यह कहना चाहिए था कि – हे जन -गण के अधिनायक,भारत भाग्य विधाता आज़ादी की भिक्षा में हमारे झोले में डाल दो, आपकी बड़ी मेहरबानी होगी। हम वचन देते है ,भारत की आने वाली पीढ़ियाँ आपका यह उपकार कभी नहीं भूलेगी ,हम और हमारा देश सदैव आपका आभारी रहेगा ,ऋणी रहेगा,
भारत माता के तीनों सपूतों ने भी तो वही किया जो कभी राम ने रावण को और कृष्ण ने कंस को मार कर किया।राम जो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते थे , उग्र-क्रुद्ध स्वाभाववाले भ्राता लक्ष्मण के बिलकुल विपरीत -शांत ,सौम्य और गंभीर। राम भी युद्ध नहीं चाहते थे। युद्ध के बिना ही हल निकल आये ,इसी प्रयोजन से अंगद को दूत बना कर भेजा ,किन्तु शत्रु को जब शांति की भाषा समझ में नहीं आई तो युद्ध ही विकल्प बना। महाभारत का दृष्टान्त ले लीजिये -प्रेम की प्रतीक बाँसुरी की मीठी धुन सुनाकर प्रेम का सन्देश देनेवाले भगवान श्री कृष्ण को भी अंत में कौरवों के विरूद्ध युद्ध का निर्णय लेना पड़ा। इसी तरह जब ब्रिटिश हुकूमत को गांधीजी की अहिंसा की भाषा समझ में नहीं आ रही थी, तो गरमदल के क्रांतिकारियों ने भी राम और कृष्ण की तरह ही शत्रु के विरूद्ध हिंसा को ही विकल्प बनाया। इसमे गलत क्या था ?इतिहास साक्षी है कि स्वतन्त्रता का कमल रक्त सरोवर में ही खिलता है। स्वतन्त्रता की देवी को रक्त चढ़ाकर ही प्रसन्न किया जा सकता है। रक्त चाहे अपना हो या शत्रु का। इसी सिद्धान्त की क्रियान्विति थी -क्रांतिकारियों की हिंसात्मक कार्यवाही।
बुद्धि और भावुकता से ऊपर उठकर ,तत्कालिक परिस्थिति की पृष्ठभूमि में जाकर सत्यता से न्याय करें कि सही अर्थों में शहीद दिवस २३ मार्च है या ३० जनवरी ?शहीद कौन हुए २४-२५ साल के ये तीनों युवा या ७९ साल के वृद्ध गांधीजी ?
मैंने गांधीजी और नेहरूजी के बारे में जितना पढ़ा ,उसमे कही पर भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि गांधीजी और नेहरूजी को अंग्रेजी सरकार ने लाठियों से पीटा हो या जेल में उन पर अमानवीय ज़ुल्म और अत्याचार किया गया हो। फिर क्यों स्वतन्त्रता की आवाज़ उठानेवाले इन तीनों नौज़वानों को बेरहमी से फांसी पर लटका दिया गया ,जिन्होंने पूरी तरह से दुनिया को देखा भी ना था।
अंग्रेज जिनका नामो निशान मिटा देना चाहते थे ,लेकिन वे तो अमर हो गए।
हुतात्मा भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव को उनकी पुण्यतिथि पर शत -शत नमन।
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