शिरीष के फूल(हजारी प्रसाद द्विवेदी )
हजारी प्रसाद द्विवेदी शिरीष के पेड़ के नीचे बैठकर लेख लिख रहे थे । उन्होंने देखा जेठ की गरमी से धरती जल रही है। ऐसे समय में शिरीष ऊपर से नीचे तक फूलों से लदा है। कम ही फूल गरमी में खिलते हैं। भीषण गरमी में शिरीष का खिलना उसे अलग पहचान देता है।
कर्णिकार और आरग्वध गर्मी में खिलते तो है किन्तु उनकी तुलना शिरीष से नहीं की जा सकती । आरग्वध पन्द्रह-बीस दिन फूलता है, वसन्त में खिलने वाले पलाश की तरह । कबीर को पलाश का पन्द्रह दिन के लिए फूलना पसन्द नहीं था,वें कहते है – ऐसे दुम्दारों से लडूरे भले अर्थात क्षणिक सौन्दर्य की तुलना में दीर्घावधि तक सामान्य सुन्दरता कहीं ज्यादा अच्छी है ।
शिरीष वसंत में खिलना प्रारंभ करता है तथा भादों माह तक खिला रहता हैं। भीषण गरमी और लू में यही शिरीष अवधूत की तरह जीवन की अजेयता का मंत्र पढ़ाता रहता है।
शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं। पुराने भारत के रईस जिन मंगलजनक वृक्षों को अपनी वाटिका में लगते थे, उनमे अशोक, रीठा, पुन्नाग आदि वृक्षों के साथ शिरीष का वृक्ष भी होता था ।
पेड़ों पर झूला डालने के लिए जिन वृक्षों के नाम गिनाये हैं,उनमे शिरीष को शामिल नहीं किया गया । पुराने कवि झूला डालने के लिए बकुल के पेड़ को उपयुक्त मानते है ,क्योकि इसकी डालियाँ मज़बूत होती है , जबकि शिरीष की डालियाँ कुछ कमजोर होती हैं,
शिरीष के फूल को संस्कृत साहित्य में कोमल माना गया है। कालिदास ने अपने काव्य में वर्णन किया है कि शिरीष के फूल केवल भौंरों के पैरों का दबाव सहन कर सकते हैं, पक्षियों के पैरों का नहीं।
इसी आधार पर भी शिरीष के फूलों को कोमल माना जाने लगा, पर कोई इसके फलों की मजबूती को नहीं देखता । वे तभी स्थान छोड़ते हैं, जब उन्हें धकिया दिया जाता है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शिरीष वृक्ष-पुष्पों के माध्यम से बूढ़े राजनेताओं पर कटाक्ष किया है। शिरीष के फलों को देखकर हजारी प्रसाद द्विवेदी को उन बूढ़े राज नेताओं की याद आती है जो समय को नहीं पहचानते तथा धक्का देने पर ही पद को छोड़ते हैं।
बूढ़े राज नेता भी शिरीष के फल की तरह होते है ।शिरीष के फल डालियों से चिपके रहना चाहते है । शिरीष के फलों को नए फल –पत्तियाँ धकेलते है तब अलग होते है ।उसी प्रकार बूढ़े राज नेता कुर्सी से चिपके रहना चाहते है ,जब तक नई पौध के लोग उन्हें धकेल कर बाहर नहीं देते ।
जैसे शिरीष के नए फूलों के द्वारा धकियाये जाने पर अपने शिरीष के पुराने फूल डाली से अलग होते हैं, उसी प्रकार अधिकार की लिप्सा रखने वाले नेता तभी पद छोड़ते हैं, जब नयी पीढ़ी के लोग उन्हें धक्का देकर नहीं हटा देते। पद और अधिकार के प्रति इतनी लिप्सा ठीक नहीं है। व्यक्ति को समय का रुख देखकर व्यवहार करना चाहिए, अन्यथा उसे अपमानित होना पड़ता है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी सोचते है कि पुराने की यह अधिकार-लिप्सा क्यों नहीं समय रहते सावधान हो जाती। वृद्धावस्था व मृत्यु-ये जगत के शाश्वत सत्य हैं। तुलसी ने कहा है – धरा को प्रमान यही तुलसी, जो फरा सो झरा ,जो बरा सो बताना । शिरीष के फूलों को भी समझना चाहिए कि झड़ना निश्चित है, वैसे ही मनुष्य को भी समझना चाहिए कि मृत्यु अवश्यम्भावी है परंतु सुनता कोई नहीं। मृत्यु के देवता निरंतर कोड़े चला रहे है। कमजोर झड रहे है । प्राणधारा व काल के बीच संघर्ष चल रहा है। मृत्यु निश्चित है।हजारी प्रसाद द्विवेदी सलाह देते है कि यदि मनुष्य हिलता डुलता रहे ,स्थान बदलता रहे ,आगे की ओर मुँह किए रखें तो महाकाल देवता के कोड़े से बच सकता है ,अन्यथा जामे कि मरे ।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शिरीष की तुलना अवधूत से की है, जैसे अवधूत विषम परिस्थिति में विचलित नहीं होते वैसे ही शिरीष गर्मी में भी अविचल बना रहता है ।शिरीष का वृक्ष भयंकर गर्मी में वायुमण्डल से रस ग्रहण करके जीवित रहता है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शिरीष के पेड़ की विशेषताओं के माध्यम से कवियों को सावचेत किया है । एक वनस्पतिशास्त्री ने बताया कि यह वायुमंडल से अपना रस खींचता है तभी तो भयंकर लू में ऐसे सुकुमार केसर उगा सका। शिरीष वृक्ष अवधूत, अनासक्त , मस्त एवं फक्कड़ रहता है।
आधुनिक कवियों में भी यही गुण होने चाहिए,तभी वे कालजयी रचना का सृजन कर सकते है ।।अवधूतों के मुँह से ही संसार की सबसे सरस रचनाएँ निकली हैं। जो कवि अनासक्त नहीं रह सका, जो फक्कड़ नहीं बन सका ,किये कराये का लेखा जोखा करने से कोई कवि नहीं हो जाता। हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि जिसे कवि बनना है, उसका फक्कड़ होना बहुत जरूरी है।
कर्णात राज की विज्जिका देवी ने ब्रह्मा ,वाल्मीकि और व्यास को ही कवि माना है ।हजारी प्रसाद द्विवेदी ने विज्जिका देवी की मान्यता का विरोध करते हुए कालिदास को उनके समकक्ष माना है । कालिदास भी शिरीष की तरह अनासक्त, मस्त और फक्कड़ाना प्रवृत्ति के थे । कबीर पन्त और रवीन्द्रनाथ में भी अनासक्ति का गुण था । कालिदास अनासक्त योगी की तरह स्थिर-प्रज्ञ, विदग्ध प्रेमी थे। उनका एक-एक श्लोक मुग्ध करने वाला है। शकुंतला के सौन्दर्य का जैसा वर्णन कालिदास ने किया,वैसा वर्णन दूसरा अन्य कोई नहीं कर सका ।शकुंतला कालिदासके ह्रदय से निकली थी .कालिदास ने शकुंतलाके सौन्दर्य का वर्णन आंतरिक दृष्टि से किया था .
शकुंतला का चित्र राजा दुष्यंत ने भी बनाया था किन्तु राजा दुष्यंत ने शकुंतला के सौन्दर्य को बाह्य दृष्टि से बनाया था , जब चित्र पूर्ण हो गया तो उन्हें अपने बनाये चित्र में कमी अनुभव हुई . जब उन्होंने आंतरिक दृष्टि से देखा तो उन्हें अनुभूति हुई कि वें शकुंतला के कानों में शिरीष का फूल लगाना भूल गए थे । कालिदास सौंदर्य के बाहरी आवरण को भेदकर उसके भीतर पहुँचने में समर्थ थे। रवीन्द्र नाथ टैगोर की रचना में राज उद्यान का सिंह द्वार इस सत्य को उदघाटित करता है ।
शिरीष पक्के अवधूत की तरह हजारी प्रसाद द्विवेदी के मन में भावों की तरंगें उठा देता है। वह भीषण गरमी में भी सरस बना रहता है। आज देश में मारकाट, आगजनी, लूटपाट आदि का बवंडर है। ऐसे में क्या स्थिर रहा जा सकता है ?हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते है कि शिरीष रह सका है।
गांधी जी भी रह सके थे। गाँधीजी भी वायुमण्डल से रस खींचकर इतना कोमल और कठोर हो सके थे. ऐसा तभी संभव हुआ है जब वे वायुमंडल से रस खींचकर कोमल व कठोर बने। हजारी प्रसाद द्विवेदी जब शिरीष की ओर देखता है तो हूक उठती है-हाय, वह अवधूत आज कहाँ है!



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