world book day
समय परिवर्तनशील है …. गतिशील है ……समय के साथ साथ बहुत कुछ परिवर्तित हो जाता है . परिवर्तन होना चाहिए …. अच्छा है लेकिन उन बातों का … विचारों का …. मान्यताओं का जो पूर्व तक या अपने समय तक तो उचित थी किन्तु वर्तमान में आप्रसंगिक …. अनुपयोगी …..अर्थहीन हो गयी है …सड़ गयी है …जर्जर हो गयी है ,ऐसी परंपरा मान्यताओं और विचारों का बोझ कंधे पर ढोते रहना समझदारी नहीं है ,मूर्खता है किन्तु कुछ परंपरा ..विचार …मान्यता अथवा चीजें ऐसी है ,जिनका महत्व और मूल्य कल भीं था ,आज भी है और आनेवाले कल में भी रहेगा ,ऐसी चीज़ों में एक है –पुस्तक
पुस्तक के सम्बन्ध में बात करते हुए मुझे NNEDI OKORAFOR की यह पंक्तियाँ बहुत प्रभावित करती है –
मुझे किताबों से प्यार है. मैं उनके बारे में सब कुछ पसंद करती हूँ. मुझे अपनी उंगलियों पर पृष्ठों का अहसास पसंद है. वे उठाने में काफ़ी हल्की, फिर भी शब्दों और विचारों के साथ बहुत भारी होती हैं. अपनी उंगलियों से टकराते पन्नों की सरसराहट की आवाज मुझे बहुत पसंद है. उंगलियों के निशान की छाप. किताबें लोगों को शांत करती हैं, फिर भी वे प्रबल हैं.-नेदी ओकोरफोर
पुस्तक के महत्व को महान लेखकों और विद्वानों ने कितने सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त किया है –
मैंने हमेशा कल्पना की है कि स्वर्ग एक तरह का पुस्तकालय है.जॉर्ज लुईस बोर्गेज
: एक किताब जितना वफादार कोई दोस्त नहीं है.- अर्नेस्ट हेमिंग्वे
मैं सबके सामने घोषणा करता हूँ : पढने जैसा कोई आनंद नहीं है. जेन ऑस्टेन
जब मेरे पास कम पैसे होते हैं तो मैं किताबें खरीदता हूँ, और अगर कुछ बचता है तो मैं खाना और कपड़े लेता हूँ.- डेजीडेरिअस इरेस्मस रोटेरोदमस
मैं किताबों के बगैर जिंदा नहीं रह सकता. -थॉमस जेफ़र्सन
अपना तेज बनाये रखने के लिए जिस तरह तलवार को पत्थर की ज़रुरत होती है उसी प्रकार दिमाग को किताबों की.- जॉर्ज आर.आर. मार्टिन
यदि आपके पास एक बागीचा और पुस्तकालय है तो आपके पास वो सब कुछ है जो आपको चाहिए.- मार्कस टुलीयस सिसरो
मेरे सबसे अच्छा मित्र वो व्यक्ति है जो मुझे ऐसी किताब दे जो मैंने पढ़ी ना हो.- अब्राहम लिंकन
बेशक मैं लोगों से अधिक किताबों से प्यार करता हूँ. -डायने सेटरफील्ड
मुझे तो किताबों कि गंध से भी प्यार है.- ऐड्रीऐना त्रैजियेनी
“अच्छी पुस्तकें जीवंत देव प्रतिमाएं हैं। उनकी आराधना से तत्काल प्रकाश और उल्लास मिलता है।” पंडित श्रीराम शर्मा ‘आचार्य
आप खुशियां नहीं खरीद सकते, लेकिन किताब खरीद सकते हैं जो आपको खुशियां ही देगी।” अज्ञात
किताबें हैं इतनी सारी और वक्त इतना कम” .फ्रैंक जप्पा
मैंने जिंदगी किताबों में अधिक जी है बजाए कहीं और जीने के।” नील गैमन
“मुझे तब तक नींद नहीं आती जबतक मैं किताबों से घिरा नहीं होता।” जॉर्गे लुइस बॉर्गेस ।
.“एक चीज जो आपको बिल्कुल सही-सही जाननी चाहिए वह है लाइब्रेरी का पता।” अल्बर्ट आइंसटाइन
किताबों वे चीजें हैं जिनकी मदद से आप बिना पाँव चलाए ही यात्रा पर निकल जाते हैं।” झुंपा लाहिरी
“पढ़ते हुए बीतने वाले पल जन्नत से चुराए पल होते हैं।” थॉमस वार्टन
“मेरी हमेशा यह कल्पना रही है कि स्वर्ग एक किस्म की लाइब्रेरी होगा” . जॉर्गे लुइस बॉर्गेस
पुस्तकें एक ऐसी धरोहर है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रहती है .अपने समय की सभ्यता ,संस्कृति ,मान्यताओं ,विचारों और ज्ञान को संवहन करते हुए वर्त्तमान पीढ़ी को समर्द्ध बनाती है .यदि पुस्तकों को अदेहधारी गुरु कहा जाये जाये तो अतिश्योक्ति न होगी . देहधारी गुरु तो अपनी इच्छानुसार स्थान और समय विशेष पर ही ज्ञान प्रदान करते है किन्तु पुस्तकें ऐसी गुरु है जिसका हम अपनी अपनी इच्छा,समय और स्थान के अनुसार उपयोग कर सकते है .
तकनीकी विकास ने पुस्तक प्रकाशन को जितना आसन बनाया ,उतना ही इलेक्ट्रोनिक माध्यम ने पुस्तकों को निश्चेतन अवस्था में पहुंचा दिया .आज पुस्तकों की स्थिति उस मरीज़ की तरह है जो ICU में वेंटीलेटर पर है .जो मृत नहीं हुआ है किन्तु उसे जीवित भी नहीं कहा जा सकता .
नई पीढ़ी पुस्तक से ज्यादा समय सोशल मिडिया ,मोबाइल ,लैपटॉप ओर OTT प्लेटफार्म पर बर्बाद कर रही है .पुस्तकों का विकल्प बने इन माध्यमों ने नई पीढ़ी की मानसिकता को दूषित कर दिया है . छोटे-छोटे बच्चों तक में वैचारिक विकृति उत्पन्न कर दी है .अच्छी पुस्तकें anti virus का काम करती थी जबकि आधुनिक माध्यम virus का काम कर रहे है .
नई पीढ़ी की पुस्तकों के प्रति उपेक्षा और बढती अरुचि के कारण कई पत्र –पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो गया है .आज कितने बच्चें नंदन …पराग ….चंदामामा ,,,,,लोटपोट जैसी बाल पत्रिकाओं से और कितने युवा साप्ताहिक हिंदुस्तान … धर्मयुग …दिनमान ….सरिता ..मुक्ता जैसी पत्रिकाओं के नाम से परिचित है ?
आज के माता-पिताओं के सोचने का विषय है कि कौनसा माध्यम उनके बच्चों के हितकारी है –पुस्तकें या इलेक्ट्रोनिक माध्यम ? नई पीढ़ी अबोधता के कारण शायद ऐसा कर रही है .३५-४० वर्ष की आयु वाले माता-पिता तो इस बारे में सोच सकते है कि कौनसा माध्यम उनके बच्चों का बोद्धिक विकास के साथ –साथ चरित्र निर्माण कर सकता है ?इलेक्ट्रोनिक म्क़ध्यम तो निर्जीव यंत्र है ,उसके पास मनुष्य जैसा मस्तिष्क नहीं ,किन्तु मनुष्य के पास तो मस्तिष्क है ,वह अच्छे और बुरे के बीच अंतर को समझ सकता है .
कुछ लोगों का तर्क हो सकता है कि पुस्तकें ई-बुक के रूप में इन्टरनेट पर भी उपलब्ध है ,वहां से भी पढ़ा जा सकता है ,पुस्तकें खरीद कर पढ़ने की क्या आवश्यकता ? ई-बुक से जानकारी तो प्राप्त हो सकती है ,लेकिन मनोवैज्ञानिक रूप से पुस्तक को दीवार के सहारे पीठ सटाकर ,बिस्तर पर औंधे लेटे-लेटे पढ़ने में जो आनंद था ,वह मोनिटर के सामने बैठकर पढ़ने में नहीं .
अब प्रश्न यह उठता है कि पुस्तकों के घटते महत्त्व के लिए क्या सिर्फ पाठक ही दोषी है ?हमें यह भी सोचना होगा कि क्योंकर पाठकों ने पुस्तकों से दूरी बना ली ? दृष्टि उठकर आधुनिक साहित्यकारों की ओर जाती है ,और अंतर खोजती है ५० -६० के दशक के साहित्यकारों और आधुनिक साहित्यकारों के बीच …… क्यों आज का साहित्यकार वह आदर …..वह सम्मान नहीं पा रहा ,जो ५० -६० के दशक के साहित्यकारों का हुआ करता था .क्यों आज के साहित्यकार की कलम का पैनापन कुंद पड गया है ? क्यों अब रेलवे स्टेशन या बस स्टैंड की बुक स्टाल पर पुस्तक खरीदने के लिए पैर नहीं बढ़ते ? क्यों स्थानीय पुस्तकालयों में कुछ ढूढ़ती हुई आँखें नज़र नहीं आती ?
पुस्तकों के महत्व को बचाने के लिए देश और समाज के प्रबुद्ध वर्ग से कुछ अपेक्षा की जा सकती है ,इस दिशा में प्रयास करने की ……..क्योकि यह ऐसा कार्य नहीं जिस पर कोई ऐसा कानून बनाया जा सकें कि प्रत्येक नागरिक का पुस्तक पढ़ना अनिवार्य है ……या फिर संत समाज से उपदेश –प्रवचन द्वारा प्रेरित किया जा सकें …..
हमें बचपन में बताया जाता था कि रामयाण …भगवद्गीता ….वेद-पुराण जैसे धर्म ग्रन्थ पढ़ने से पुण्य की प्राप्ति होती है …..तब अबोधता के कारण कुछ विचित्र और असहज सा अनुभव हुआ था – रामयाण …भगवद्गीता ….वेद-पुराण जैसे धर्म ग्रन्थ पढ़ने से पुण्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है ?
लेकिन बाद में उसका मर्म समझ में आया –सत्साहित्य पढ़ने से आत्मा परिष्कृत होती है … चिंतन और वैचारिक क्षमता का विकास होता है ….. सतत …निरंतर पढ़ते रहने की आदत से वाणी में …व्यवहार में ….सोच में … निर्णय लेने में हम स्वयं को सामान्य लोगों की तुलना में श्रेष्ठ पाते है .निरंतर सत्साहित्य के संपर्क में रहने के कारण हम बुरा सोचने और बुरा करने के पाप से बच जाते है .और जब हमसे कुछ बुरा होगा ही नहीं तो हमसे किसी को शिकायत होगी ही नहीं – न ईश्वर को और न उन लोगों को जिनके बीच हम रहते है –शायद यही पुण्य है .
एक सविनय प्रार्थना –उन लोगों से जिन्होंने पुस्तकों से दूरी बनाई हुई है ,ऐसे लोग दिन भर में जब भी समय मिले थोडा –थोडा … कुछ न- कुछ अच्छा पढ़ने को अपनी आदत बनाये ….अभी भी खोये हुए को पाया जा सकता है .व्यक्तित्व और चरित्र निर्माण का सबसे अच्छा उपाय है –पुस्तकें .
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