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September 14, 2023
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 त्यागपथी खण्डकाव्य का  सारांश

त्यागपथी (रामेश्वर शुक्ल अञ्चल)

श्री रामेश्वर शुक्ल अञ्चल द्वारा रचित त्यागपथी पाँच सर्गों में विभाजित खण्डकाव्य है। इस खण्डकाव्य में सम्राट् हर्षवर्धन के त्याग तप और वीरता का वर्णन करते हुए कवि ने तत्कालिक राजनीतिक एकता और विदेशी आक्रान्ताओं के भारत से पलायन  का भी वर्णन किया है।

प्रथम सर्ग

जब थानेश्वर के हर्षवर्द्धनजंगल मे शिकार के लिए  गए हुए थे ,तभी  राजपुत्र हर्षवर्द्धन को अपने पिता प्रभाकरवर्द्धन के विषम ज्वर-प्रदाह का समाचार मिलता है। समाचार मिलते ही  राजपुत्र हर्षवर्द्धन राजमहल  लौट आते हैं। राजमहल  लौट हर्षवर्द्धनअपने  रुग्ण पिता प्रभाकरवर्द्धन के विषम ज्वर-प्रदाह का उपचार करवाते हैं किन्तु उपचार के उपरांत भी रोग ठीक नही   होता । राजपुत्र हर्षवर्द्धन के बड़े भाई राज्यवर्द्धन उत्तरापथ पर हूणों से युद्ध करने में व्यस्त  थे। राजपुत्र हर्षवर्द्धन  दूत के साथ अपने बड़े भाई राज्यवर्द्धन को पिता की अस्वस्थता का समाचार पहुँचाते है । इधर राजपुत्र हर्षवर्द्धन की माँ अपने पति को मरणासन्न स्थिति में देखकर अत्यधिक भावुक हो जाती  है और आत्मदाह का निर्णय कर लेती है । राजपुत्र हर्षवर्द्धन अपनी माँ को आत्मदाह करने से रोकने का भरपूर प्रयास करते है किन्तु माँ अपने पति  की मृत्यु से पूर्व ही वे आत्मदाह कर लेती हैं। कुछ समय पश्चात् राजपुत्र हर्षवर्द्धन के पिता राजा प्रभाकरवर्द्धन का भी देहांत हो जाता है । राजपुत्र हर्षवर्द्धन पिता का अन्तिम  संस्कार कर राजमहल में लौट आते हैं। राजपुत्र हर्षवर्द्धन पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर छोटी  राज्यश्री तथा बड़े भाई  राज्यवर्द्धन की क्या मनोदशा होगी इस कल्पना से  चिंतित  हो उठते है ।

द्वितीय सर्ग –

राजपुत्र हर्षवर्द्धन के बड़े भाई  राज्यवर्द्धन हुणों को पराजित कर सकुशल लौट आते हैं। राज महल में आने पर बड़े भाई  राज्यवर्द्धन हर्षवर्द्धन की शोकविह्वल स्थितिकर   देखकर स्वयं भी  बिलख-बिलखकर रोते लगते  हैं। माता-पिता की मृत्यु से व्यथित राजपुत्र हर्षवर्द्धन के बड़े भाई राज्यवर्द्धन का  मन राज वैभव  से विरक्त हो जाता है  और  वैराग्य लेने का निर्णय  कर लेते हैं , किन्तु तभी समाचार मिलता है कि गौड़ नरेश मालवराज ने उनकी छोटी बहन राज्यश्री के पति गृहवर्मन का वध कर छोटी बहन राज्यश्री को कारागार में बंदी बना दिया है।क्षुब्ध राज्यवर्द्धन वैराग्य का विचार त्यागकर   मालवराज से प्रतिशोध लेने निकल पड़ते हैं। राज्यवर्द्धन गौड़ नरेश को पराजित कर देते हैं किन्तु गौड़ नरेश छलपूर्वक राज्यवर्द्धन की हत्या करवा देता है। जब हर्षवर्द्धनको गौड़ नरेश द्वारा छलपूर्वक बड़े भाई राज्यवर्द्धन की हत्या प्रकरण ज्ञात होता है तो हर्षवर्द्धनविशाल सेना लेकर गौड़ नरेश मालवराज से युद्ध करने के लिए निकल पड़ते हैं। हर्षवर्द्धनको मार्ग में समाचार मिलता है कि कारागार में  कैद उनकी छोटी बहन राज्यश्री कारागार से निकलकर  विन्ध्याचल वन में चली गयी है। यह जानकर हर्षवर्द्धनछोटी बहन राज्यश्री की तलाश में  विन्ध्याचल वन की ओर चल देते हैं। तभी हर्षवर्द्धनको दिवाकर मित्र के आश्रम में उन्हें एक भिक्षुक से यह खबर मिलती है कि राज्यश्री आत्मदाह करने वाली है। हर्षवर्द्धनतुरंत ही उस स्थान पर पहुँच जाते है और  राज्यश्री को आत्मदाह करने से रोक  लेते हैं। तत्पश्चात हर्षवर्द्धनदिवाकर मित्र और राज्यश्री को अपने साथ लेकर लौट आते हैं।

तृतीय सर्ग

राजपुत्र हर्षवर्द्धन गौड़ नरेश मालवराज द्वारा अपनी बहन के छीने हुए राज्य को पुन: प्राप्त करने के लिए विशाल सेना के लेकर  कन्नौज पर आक्रमण कर देते हैं। राजपुत्र हर्षवर्द्धन के आक्रमण की खबर सुनकर मालव-कुलपुत्र  और राज्यवर्द्धन का हत्यारा गौड़पति-शशांक राज्य छोड़कर वहां से भाग जाते है। । कन्नोज राज्य   की प्रजा  राजपुत्र हर्षवर्द्धन से कन्नौज का राजा बनने का आग्रह  करते हैं , किन्तु राजपुत्र हर्षवर्द्धन अपनी छोटी बहन का राज्य अधिग्रहण करना अस्वीकार कर देते है । वे अपनी छोटी बहन राज्यश्री से सिंहासन पर बैठने को कहते हैं  परन्तु बहन राज्यश्री भी राज-सिंहासन ग्रहण करने से मना कर देती है। तब हर्षवर्द्धन कन्नौज का  संरक्षक बनकर अपनी बहन के नाम से वहाँ का शासन सञ्चालन करने लगते  हैं।

यही से राजपुत्र हर्षवर्द्धन का दिग्विजय-अभियान प्रारंभ होता है और अगले   छः वर्षों में  कश्मीर,पञ्चनद,सारस्वत, मिथिला,उत्कल,गौड़ ,नेपाल,वल्लभी,सोरठ आदि राज्यों को जीतकर तथा यवन हूण और अन्य विदेशी आक्रान्ताओं का नाश कर देश को सुसंगठित,अखण्ड और शक्तिशाली बनाते है । अपनी छोटी बहन राज्यश्री के स्नेहवश कन्नौज को अपनी राजधानी बनाते हैं और अनेक वर्षों तक धर्मऔर न्याय पूर्वक सत्ता सञ्चालन करते हैं। हर्षवर्द्धन के राज्य में प्रजा सुखी थी तथा धर्म, संस्कृति और कला की  उन्नति हुई ।

चतुर्थ सर्ग

राज्यश्री इतने बड़े  राज्य की स्वामिनी  होकर भी दुखी रहती है । वह संसारिकता का त्याग कर  गेरुए वस्त्र धारणकर भिक्षुणी बनना चाहती है। वह हर्षवर्द्धन से संन्यास ग्रहण करने की आज्ञा माँगने जाती है, तो हर्षवर्द्धन बहन राज्य श्री से कहते है  कि तुम तो मन से संन्यासिनी ही हो। फिर भी  तुम गेरुए वस्त्र धारण कर भिक्षुणी होना  चाहती हो तो अपने वचनानुसार मैं भी तुम्हारे साथ ही संन्यास ले लूंगा। तभी दिवाकर मित्र वहां आते है और दोनों को समझाते हुए कहते है कि वास्तव में तुम  दोनों भाई-बहन का मन संन्यासी है ,तुम्हे संन्यास लेने की आवश्यकता नहीं , आज तुम्हारे संन्यास-ग्रहण करने से अधिक महत्त्वपूर्ण देश की रक्षा एवं सेवा करना  है। दिवाकर मित्र के समझाने पर हर्षवर्द्धन और राज्यश्री दोनों संन्यास का विचार त्याग कर देश की  रक्षा  और सेवा में लग जाते हैं।

पंचम सर्ग

हर्षवर्द्धन एक आदर्श सम्राट् के रूप में शासन करते हैं। उनके शासन  में प्रजा सभी भांति सुखी है, प्रजा श्रेष्ठ आचरण से युक्त , धर्मपालक , स्वतन्त्र तथा सुरुचि सम्पन्न हैं ।राज्य में विद्वान पूजे जाते है । राजा हर्षवर्द्धन सदैव जन-हित के कार्यों के साथ साथ शास्त्रों का भी अध्ययन करते है ,बहन  राज्यश्री भी प्रसन्न रहती है। सम्पूर्ण राज्य एक सूत्र में बँधा हुआ है। एक बार हर्षवर्द्धन तीर्थराज प्रयाग में सम्पूर्ण राजकोष को दान कर देने की घोषणा करते हैं।

अपना सर्वस्व दान कर देने के पश्चात्  बहन राज्य श्री से वस्त्र माँगकर पहनते हैं। इसके पश्चात् प्रत्येक पाँच वर्ष बाद वे इसी प्रकार दान करने लगे। अपने जीवन काल में वे छ बार इस प्रकार के दान का आयोजन करते हैं। इस दान को वे प्रजा-ऋण से मुक्ति मानते  हैं। हर्षवर्द्धन वैश्विक स्तर पर भारतीय संस्कृति का प्रसार करते हैं। इस प्रकार हर्षवर्द्धन का शासन काल सभी भांति सुखकर तथा कल्याणकारी सिद्ध हुआ ।

त्यागपथी के नायक हर्षवर्द्धन का चरित्र-चित्रण

 कथा नायक- हर्षवर्द्धन त्यागपथी के नायक हैं। इस खण्डकाव्य के  कथानक  का केन्द्र बिंदु हर्षवर्द्धन ही  हैं। कथानक का  घटनाचक्र उन्हीं के इर्द-गिर्द  घूमता है। आरम्भ से अन्त तक प्रत्येक घटना हर्षवर्द्धन उपस्थित रहते है ।

 आदर्श पुत्र एवं भाई- कथानक में  हर्षवर्द्धन का चरित्र एक आदर्श पुत्र एवं आदर्श भाई  के रूप में प्रकट हुआ  हैं। माता – पिता के साथ के दुःख के समय हर्ष वर्द्धन का व्यथित-व्याकुल होना इस तथ्य का उदहारण है , पिता के   रुग्ण होने का समाचार तुरंत  आखेट से लौटना और माता द्वारा आत्मदाह करने की बात सुनकर वे भाव-विह्वल हो जाना,  बहन राज्यश्री को अग्निदाह करने एवं संन्यास लेने से रोकना,इस बात की पुष्टि करते है कि हर्षवर्द्धन आदर्श पुत्र एवं भाई हैं।

 श्रेष्ठ शासक के गुण से संपन्न – महाराज हर्षवर्द्धन एक श्रेष्ठ शासक हैं। राज सुख भोगने की अपेक्षा प्रजा के हितार्थ अपना सर्वस्व  समर्पित कर देना जीवन का ध्येय है। उनके शासन में सभी जनों को समान न्याय एवं सुख उपलब्ध है- राजा को  प्रजा का धन  पास रखने का अधिकार नहीं है ,राजा का अधिकार केवल राष्ट्र रक्षा देश और राष्ट्र के गौरव ध्वज को  फहराए रखने का है,हर्ष वर्द्धन जब तक जिए इसी  इसी आदर्श को लेकर  जिए । उनका शासन धर्म-शासन की तरह रहा ।

राष्ट्र प्रेम –  हर्षवर्द्धन का ह्रदय राष्ट्र प्रेम की भावना से ओट-प्रोत हैं। छोटे  छोटे राज्यों को संघटितकर विशाल राज्य की स्थापना की। देश की एकता एवं रक्षा हेतु युद्ध से कभी पीछे नहीं हटे । राष्ट्र  सेवा ही उनके जीवन का संकल्प था ।

 अजेय योद्धा- हर्षवर्द्धन अजेय योद्धा रहे । कोई भी शत्रु राजा उन्हें पराजित नहीं कर सका। विद्रोही उनके शौर्य और साहस के आगे कोई ठहर नहीं पाया ।  हर्षवर्द्धन की दिग्विजय ,उनका युद्ध-कौशल और उनकी वीरता का इतिहास साक्षी है  ।

 त्यागी-  हर्षवर्द्धन का त्याग उनके चरित्र मुकुट का मणि है । एक बार कई –कई अवसरों पर उन्होंने अपनी त्यागी प्रवृति का उदहारण प्रस्तुत किया । कन्नौज  राज्य को  राजा बनाकर नहीं , अपनी बहन के संरक्षक बनाकर चलाया । छह बार प्रजा के लिए अपना सर्वस्व दान कर दिया  । उन्होंने  राजकोष को प्रजा की सम्पत्ति माना। । विशाल साम्राज्य के सम्राट होकर भी  संन्यासी वस्त्र भी अपनी बहन राज्यश्री से माँगकर पहिने ।

 आध्यत्मिक और धर्मपरायण  – हर्ष वर्द्धन का का चरित्र आध्यत्मिक और धर्मपरायण शासक के रूप में पहचाना जाता है ।   उन्होंने शैव , शाक्त , वैष्णव और वेद-मत को बिना किसी  भेदभाव  समान आदर-सम्मान दिया, रहे मानव कल्याण को  ही धर्म मानना इस बात का प्रमाण है कि आध्यत्मिक और धर्मपरायणता हर्षवर्द्धन के जीवन में कूट-कूटकर भरी हुई थी ।

 कर्त्तव्यनिष्ठ   – हर्षवर्द्धन अपने कर्तव्य का पालन धर्म की भांति पूरी निष्ठां से किया ।पुत्र के रूप, भाई के रूपमे ,शासक के रूप में जब जब भी कर्तव्यपालन का अवसर आया  अपने कर्तव्य की भूमिका कोपूरी ईमानदारी से  निभाया।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि हर्ष का चरित्र एक आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श भाई  और आदर्श पुरुष  का रहा है।

त्यागपथी खण्डकाव्य के आधार पर राज्यश्री का चरित्र-चित्रण

 आदर्श नारीगुण से संपन्न – राज्यश्री का चरित्र आदर्श नारीगुण से संपन्न है । राज्यश्री का चरित्र आदर्श पुत्री,  आदर्श बहन और आदर्श पत्नी के रूप में प्रकट हुआ  है।

दुःख और संघर्ष पूर्ण जीवन – माता-पिता के निधन के पश्चात्  ममता से वंचित हुई ,भाई राज्यवर्द्धन की हत्या के बाद शत्रु द्वारा बंदी बनाया गया , बंदी से भाग कर वन- वन में भटकी , आत्मदाह के लिए उद्यत होना पड़ा ,यौवनावस्था में विधवा होकर वैधव्य की पीड़ा भोगनी पड़ी ।

साध्वी – राज्यश्री ने राज्याश्रय में रहकर भी अपना जीवन एक साध्वी की भांति व्यतीत किया । राज वैभव का तनिक भी मोह नहीं तभी तो हर्षवर्द्धन  द्वारा राज्य सौंपे जाने पर भी वह राज्य स्वीकार नहीं करती ।

प्रजा हितैषी – राज्यश्री प्रजा हितैषी रही ,इस बात का प्रमाण है उसके द्वारा अपना  तन-मन-धन से प्रजा की सेवा में अर्पित कर देना। सभी का हित ,सभी को सुख  जैसी परमार्थिक लोक-कल्याण की भावना राज्यश्री के चरित्र को और भी आभा प्रदान करती है  ।

राष्ट्र-प्रेम – राज्यश्री का ह्रदय राष्ट्र प्रेम की भावना से परिपूर्ण है  । भाई हर्षवर्द्धन  के समझाने पर वह अपनी  वैयक्तिक वैधव्य की पीड़ा को सहती हुई  राज्य सेवा में लगी रहती है। राष्ट्र प्रेम के कारण ही राज्यश्री संन्यासिनी बनने का विचार भी त्याग देती है तथा शेष जीवन को राष्ट्र सेवा में ही लगाने का संकल्प करती  है ।

विदुषी – सम्पन्न -राज्यश्री शास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न विदुषी  है। जब आचार्य दिवाकर मित्र संन्यास धर्म का तात्त्विक विवेचन करते हुए उसे मानव-कल्याण के कार्य में लगने का उपदेश देते हैं ,राज्यश्री तात्त्विक  विवेचन के मर्म को ग्रहण कर  आचार्य की आज्ञा का पूर्णरूपेण पालन करती है।

निष्कर्ष रूप मे राज्यश्री का चरित्र एक आदर्श भारतीय नारी का चरित्र है। उसके पतिव्रत-धर्म , देश-धर्म,  त्याग,करुणा और कर्तव्यनिष्ठा के आदर्श हैं ,राज्यश्री के चरित्र को गरिमा प्रदान करते है।

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