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September 14, 2023
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रश्मिरथी खण्डकाव्य की कथावस्तु

रश्मिरथी -रामधारी सिंह दिनकर

रामधारीसिंह दिनकर रचित खण्डकाव्य रश्मिरथी की कथा महाभारत के पात्र कर्ण पर आधारित है।

प्रथम सर्ग –

प्रथम सर्ग कर्ण का परिचय  है। महाभारत की कथा के अनुसार कर्ण की माता कुन्ती और पिता सूर्य थे ।कुंती ने सामाजिक परंपरा के विरुद्ध कौमार्यावस्था में

कर्ण अपने  गर्भ से कर्ण को जन्म दिया था, इसलिए लोकनिंदा  के भय से कुन्ती ने नवजात शिशु को नदी में बहा दिया , एक सूत नदी में बहते हुए बहते हुए शिशु को देखकर शिशु की रक्षा करता है और अपने साथ घर ले आता है ,सूत दम्पति शिशु का पालन-पोषण करते है ।

सूत परिवार पलकर भी कर्ण में राजपुत्र के गुण विद्यमान होते है ।

शूरवीर शीलवान  पुरुषार्थी और शस्त्र व शास्त्र मर्मज्ञ बने।

एक बार द्रोणाचार्य ने अपने  कौरव व पाण्डव शिष्य राजकुमारों के शस्त्र-कौशल में श्रेष्ठता का आयोजन करवाया । आयोजन में  उपस्थित जन समुदाय  अर्जुन की धनुर्विद्या की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने लगे किन्तु उसी समय कर्ण आयोजन में उपस्थित होकर  अर्जुन को चुनौती देता है ।

इस आयोजन में क्षत्रिय कुल के युवा  ही भाग ले सकते थे । कृपाचार्य कर्ण से  उसका नाम, जाति और गोत्र पूछते है । कर्ण स्वयं को सूत-पुत्र बतलाताहै । कृपाचार्य राजपुत्र अर्जुन के समकक्ष होने  के लिए किसी राज्य का उत्तराधिकारी होने की शर्त रखते है । इस पर दुर्योधन कर्ण को अंग प्रदेश का राजा घोषित कर देता है । इस कृतज्ञता से वशीभूत होकर  कर्ण दुर्योधन का मित्र बन जाता है । इधर कौरव कर्ण को अपने साथ ले जाते हैं और उधर कुन्ती भाग्य की विडम्बना पर विचार करती हुई अपने रथ के पास पहुँचती है।

द्वितीय सर्ग –

द्रोणाचार्य कर्ण को अपना शिष्य बनाने से इनकार कर देते है , कर्ण को ज्ञात होता है कि  परशुराम क्षत्रियों को शिक्षा नहीं देते थे, तब कर्ण धनुर्विद्या में पारंगत होने के उद्देश्य से परशुराम के आश्रम में जाता है। । परशुराम ,कर्ण के कवच और कुण्डल देख कर्ण को ब्राह्मण कुमार समकर अपना शिष्य बना लेते है ।

एक दिन जब कर्ण की जंघा पर सिर रखकर परशुराम सोये हुए थे कि तभी एक केकड़ा कर्ण की जंघा को काटने लगता । गुरु की निद्रा में दखल न पड़  जाए  यह सोचकर कर्ण कष्ट सहता हुआ शांत भाव से बैठा रहता है  । कर्ण की जंघा से बहते रक्त के गीलेपन का  स्पर्श पाकर  परशुराम की निद्रा टूट जाती है । कर्ण की सहनशक्ति  देखकर परशुराम को संदेह हो जाता  है कि यह कोई ब्राह्मण पुत्र नहीं हो सकता , क्योकि कष्ट सहने का यह गुण ब्राह्मण में  नहीं, क्षत्रिय में  होता है । शंका निवारण हेतु परशुराम कर्ण से वास्तविक परिचय देने के लिए कहते है  ।कर्ण गुरु आज्ञा का पालन करने के लिए  कर्ण सत्य स्वीकार कर लेता है । परशुराम क्रुद्ध होकर कर्ण को  शाप देते हुए कहते कि मैंने तुझे जो ब्रह्मास्त्र विद्या सिखलायी है , उसे तू आवश्यकता के समय भूल जाएगा ।कर्ण अश्रुपूरित नेत्रों से अपने गुरु परशुराम की चरणधूलि का स्पर्शकर आश्रम छोड़करचला जाता है।

तृतीय सर्ग –

पाण्डव, जो  कौरवों से जुए में पराजित होकर  बारह वर्ष के  वनवास तथा एक साल का अज्ञातवास भोगने वन चले गए थे , तेरह वर्ष की यह अवधि समाप्त होने पर कर अपने नगर इन्द्रप्रस्थ लौट आते हैं ।

श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से सन्धि का प्रस्ताव लेकर दुर्योधन से मिलने  हस्तिनापुर जाते हैं। श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने का प्रयास करते है परन्तु दुर्योधन सन्धि- प्रस्ताव ठुकरा देता है ।

तब  श्रीकृष्ण ने कर्ण को समझाते कि तुम कुन्ती-पुत्र हो, तुम दुर्योधन का साथ छोड़ दो अन्यथा अब यह  युद्ध निश्चित है ।  तुम चाहो तो इस युद्ध विनाश को रोक सकते हो।   कर्ण श्री कृष्णसे कहता  है कि आप आज मुझे कुन्ती पुत्र बताने आये हो , यह बात उस दिन क्यों नहीं कही जब मुझे जाति-गोत्रहीन सूत-पुत्र बताकर सबके सामने  अपमानित किया गया था। दुर्योधन ने मुझे मान-सम्मान और प्रतिष्ठा प्रदान की है , मै दुर्योधन का ऋणी हूँ ,मै  दुर्योधन कृतज्ञता उऋण नहीं होना चाहता है।आप मेरे जन्म का रहस्य युधिष्ठिर को न बताइएगा क्योंकि मेरे जन्म का रहस्य जानकर दुर्योधन मुझे ज्येष्ठ  मानकर अपना राज्य मुझे सौप देंगा  और मैं वह राज्य दुर्योधन को दे दूंगा।इतना कहकर कर्ण  श्रीकृष्ण को प्रणाम कर चला जाता है।

चतुर्थ सर्ग

इस सर्ग में कवि ने  कर्ण की उदारता एवं दानवीरता का वर्णन किया है।

श्रीकृष्ण इस सत्य से परिचित थे  कि जब तक कर्ण के पास सूर्य द्वारा प्रदत्त कवच और कुण्डल हैं तब तक कर्ण को कोई भी पराजित नहीं कर सकता।

दानी प्रवृति होने के कारण कर्ण प्रतिदिन एक प्रहर तक याचकों को दान देता था।

कर्ण को कवच और कुण्डल की शक्ति से हीन करने के उद्देश्य से एक दिन इन्द्र ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण के पास उसकी दानशीलता और उदारता  की परीक्षा लेने आते है और कर्ण से उसके कवच और कुण्डल दान में माँग लेते है । यद्यपि कर्ण  छद्मवेशी इन्द्र और उद्देश्य  को पहचान लेता ,इसके उपरांत भी  कर्ण कवच और कुण्डल इन्द्र को दान कर  देता । कर्ण की दानशीलता को देख देवराज इन्द्र का मुख ग्लानि से मलिन हो जाता है ।

कर्ण की दानशीलता और उदारता से प्रभावित इन्द्र कर्ण की प्रशंसा करते हुए  कर्ण को महादानी ,पवित्र , सुधी बतलाता और  स्वयं को प्रवंचक, कुटिल व पापी बतलाता ।इन्द्र कर्ण की दानशीलता और उदारता से प्रसन्नहोकर होकर  कर्ण को अमोघ एकघ्नी अस्त्र प्रदान करता है ।

पंचम सर्ग –

कुन्ती इस आशंका से  चिन्तित है कि युद्ध में  कर्ण और अर्जुन परस्पर युद्ध करेंगे और दोनों ही मेरे पुत्र है । इस चिंता से व्याकुल कुन्ती कर्ण से मिलने जाती है। जब कुन्ती कर्ण से मिलने आती है, उस समय कर्ण सन्ध्या कर रहा होता है ,  आहट पाकर कर्ण का ध्यान टूट जाता है। कर्ण कुन्ती को प्रणाम कर उसका परिचय पूछा। कुन्ती कर्ण को बतलाती है कि  तू सूत-पुत्र नहीं, मेरा कोख जना पुत्र है। कौमार्यावस्था में  अविवाहिता होते हुए मैंने  गर्भ धारण कर लिया था। लोक-लज्जा के भय से मैंने तुझे नदी में बहा दिया था । एक माता के लिए यह असह्य है कि उसकी कोख से जन्मे पुत्र युद्ध में  परस्पर युद्ध करें ,    मैं अपने पुत्र से प्रार्थना करने आयी हूँ कि तुम अपने छोटे भ्राताओं के साथ मिलकर राज्य का भोग करो।

कर्ण कुंती से कहता है कि मै इस सत्य से परिचित हूँ किन्तु  मैं अपने मित्र दुर्योधन का साथ छोड़कर कृतघ्नता नहीं कर  सकता।

कुन्ती कर्ण से कहती है  कि तू सबको दान देता है, क्या अपनी माँ को खाली हाथ लौटाएगा ? कर्ण कहता है कि मैं तुम्हें एक नहीं चार पुत्र दान में देता हूँ। मैं अर्जुन के अतिरिक्त  तुम्हारे किसी पुत्र का वध नहीं करूंगा। यदि अर्जुन के हाथों मेरा वध हो  गया तो तुम पाँच पुत्रों की माँ रहोगी ही ,और यदि मेरे द्वारा  युद्ध में अर्जुन का वध हुआ  तो विजय दुर्योधन की होगी और मैं दुर्योधन का साथ छोड़कर तुम्हारे पास आ जाऊँगा। तब भी तुम पाँच पुत्रों की ही माँ रहोगी। कर्ण का अटल वचन सुनकर कुन्ती निराश होकर  लौट जाती है-

षष्ठम सर्ग –

भीष्म पितामह शर-शय्या पर पड़े हुए हैं। कर्ण भीष्म से आशीर्वाद लेने आता है। भीष्म पितामह कर्ण को  नर-संहार रोकने के लिए समझाते हैं परन्तु कर्ण अपने निर्णय पर अडिग रहता है .

युद्ध आरम्भ हो जाता है। कर्ण अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारता है किन्तु श्रीकृष्ण अर्जुन के  रथ को कर्ण के सामने ही नहीं आने देते क्योंकि श्री कृष्ण को ज्ञात  है कि कर्ण को इद्र द्वारा प्रदत्त एकघ्नी अस्त्र प्राप्त है और कर्ण एकघ्नी का प्रयोग कर अर्जुन का वध कर देगा। अर्जुन की प्राण रक्षा के लिए श्रीकृष्ण भीम-पुत्र घटोत्कच को रणभूमि में उतार देते । घटोत्कच रण भूमि में अपने शौर्य का ऐसा पराक्रम दिखालाता ,जिससे कौरव-सेना त्राहि-त्राहि कर उठती है ।अन्त में  दुर्योधन ने कर्ण से एकघ्नी का सन्धान करने के लिए कहता हैं । दुर्योधन के कहने पर कर्ण घटोत्कच पर एकघ्नी का प्रयोग कर देता है , जिससे घटोत्कच मारा जाता है । एकघ्नी का प्रयोग हो जाने से अर्जुन अभय हो जाता है।एकत्री का प्रयोग हो जाने से कर्ण स्वयं को मन-ही-मन पराजित-सा अनुभव करने लगता है ।

सप्तम सर्ग –

यह अन्तिम सर्ग है। कर्ण  पाण्डवों  सेना पर भीषण प्रहार करता है । पाण्डव सेना में हडकंप मच जाता है। युधिष्ठिर रण भूमि से भागने लगते हैं तो कर्ण उन्हें पकड़ लेता है,किन्तु  तत्क्षण ही कर्ण को कुन्ती को दिये  वचन का स्मरण हो आता है ,वचन का पालन करने के लिए कर्ण  युधिष्ठिर को प्राण दान दे  देता है। इसी प्रकार भीम ,नकुल और सहदेव को भी वचन पालन की बाध्यता के कारण छोड़ देता है। कर्ण का सारथी शल्य कर्ण के रथ को अर्जुन के रथ के निकट ले आता है। कर्ण के भीषण बाण-प्रहार से अर्जुन मूर्चि्छत हो जाता है। चेतना लौटने पर श्रीकृष्ण अर्जुन को पुनः कर्ण से युद्ध करने के लिए उत्प्रेरित करते हैं। कर्ण और अर्जुन के मध्य  भीषण युद्ध होता है। तभी कर्ण के रथ का पहिया रक्त के कीचड़ में फँस जाता है। कर्ण रथ से उतरकर पहिया निकालने लगता है। इसी समय श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्ण पर बाण-प्रहार करने के लिए कहते हैं ।

इस पर कर्ण धर्म-नीति  की बात कहता है ,तब  श्रीकृष्ण कर्णको कौरवों के पूर्व कुकर्मों का स्मरण दिलाते हैं। इसी वार्तालाप में अवसर पाकर अर्जुन कर्ण पर प्रहार कर देता है और कर्ण की मृत्यु हो जाती है।

कर्ण की मृत्यु पर पांडव पक्ष सभी जन प्रसन्न होते  हैं किन्तु श्रीकृष्ण दुखी होते  हैं। श्री कृष्ण  युधिष्ठिर से कहते हैं कि हमें यह विजय मर्यादा खोकर मिली है  । चरित्र की दृष्टि से कर्ण ही विजयी रहा। भीष्म और द्रोणाचार्य की भाँति ही कर्ण को भी सम्मान दिया जाना चाहिए । श्री कृष्ण कर्ण की मृत्यु को जीवन और विजय से कहीं ऊँचा बतलाते  हैं ।

इस सप्तम सर्ग के खण्डकाव्य की कथा समाप्त हो जाती है।

रश्मिरथी खण्डकाव्य के आधार पर कर्ण का चरित्र-चित्रण

कथा नायक कवि ने कर्ण के चरित्र कोको केंद्र में रखकर ही रश्मिरथी खंड काव्यकी रचना की है । खंड काव्य का कथानक कर्ण के इर्द-गिर्द  घूमता है।कर्ण का चरित्र कथा नायक के गुण से परिपूर्ण है ।वह तन से समरशूर है तो   मन से भावुक और  स्वभाव से दानी है ।कर्ण की पहचान उसका कुल नहीं बल्कि उसका शील और उसका पुरुषार्थ है । रश्मिरथी जिसका अर्थ होता है –वह जो पुण्य के रथ पर सवार हो  काव्य का शीर्षक भी कर्ण के चरित्र को ही चरितार्थ करता है ।

साहसी और वीर – काव्य में कर्ण की उपस्थिति  वीर योद्धा और साहसी के रूप में हुई  है। धनुर्विद्या में सर्व श्रेष्ठ घोषित किये  अर्जुन को चुनौती देता है। कृपाचार्य द्वारा कर्ण से जाति-गोत्र पूछने पर  प्रत्युत्तर में  उसके भुज बल,सूर्य के समान दमकते ललाट और कवच-कुंडल से जाति-गोत्र पूछने की बात कहता है  ।

मित्रता का पर्याय-कर्ण की दुर्योधन के साथ मित्रता उदहारण प्रस्तुत कराती है ,जन्म कुल के आधार पर अपमानित किये जाने पर दुर्योधन कर्ण कों अंग प्रदेश का राजा घोषित कर कर्ण  के मान की रक्षा करता है ,इस कृतज्ञता के प्रति वह  वैकुण्ठ को भी त्यागने की बात कहता है ।कुंती उसकी माता है और पांडव उसके सहोदर है , यह सत्य ज्ञात होने पर भी वह दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता .

 गुरु के प्रति श्रद्धा –कर्ण अपने गुरु परशुराम  के कुपित हो जाने के उपरांत भी उनके प्रति विनम्र बना रहता है , परशुराम क्रुद्ध  होकर  आश्रम से निकाल दिए जाने  का आदेश सुनकर भी  कर्ण विनय भाव का त्याग नहीं करता बल्कि  जाते समय गुरु की चरण-धूलि कोअपने मस्तकपर धारण करता है,इस तरह कर्ण अपनिगुरु कौदहरण प्रस्तुत करता है ।

दानवीर- दानवीरता कर्ण के चरित्र के मुकुट का मणि है । प्रतिदिन दान देना उसके इस गुण का प्रमाण है । ब्राह्मण-वेश में आये इन्द्र को न केवल पहचान लेता बल्कि इसके पिछे छुपे उद्देश्य को भी जान लेता ,इसके उपरांत भी  वह प्राण-रक्षक कवच और कुण्डल तक दान कर देता है। माता कुन्ती को उसके पुत्र  न मारने का अभयदान देता ।

सैन्य सञ्चालन का कौशल- कर्ण महाभारत के युद्ध में कौरव सेना का सेनापति बनकर सेना का नेतृत्व करता है। रणभूमि में कर्ण ने अपने रण-कौशल से पाण्डवों सेना में हाहाकार मचा देता है । स्वयं  श्रीकृष्ण उसकी वीरता की प्रशंसा करते हैं।

जाति और गोत्र से ग्लानि नहीं –कर्ण सूत जैसी निम्न जाति और गोत्र से पहचाना जाता था ,इसी जाति और गोत्र दोष के कारण उसे  अपमानित होना पड़ा किन्तु कर्ण स्वयं को सूत पुत्र कहलाने में ग्लानि अनुभव नहीं करता  ।

कृतज्ञता गुण से युक्त  – जब कर्ण को यह सत्य ज्ञात होता है कि वह  राज रानी कुन्ती का पुत्र है ,तब  भी वह उसे पालनेवाली निम्न जाति की राधा के उपकार को नहीं भूलता । अंगप्रदेश का राजा बनाकर उसके सम्मान की रक्षा वाले दुर्योधन के उपकार को भी वह जीवनभर नहीं भूलता है ।

 अन्तर्द्वन्द्व और दुविधा से भरा जीवन – कर्ण आरम्भ से अन्त तक कर्ण अन्तर्द्वन्द्व से जूझता रहा है। पग- पग पर उसे परीक्षा देनी पड़ी ,दुविधा की स्थिति अनेक अवसर कर्ण के समक्ष प्रश्न बनकर खड़े हुए  किन्तु उसने अपना  विवेक और धैर्य नहीं छोड़ा ।

निष्कर्ष रूप में कहा जाता जा सकता है कि चरित्र की दृष्टि से कर्ण का शील,उसका  मैत्रीभाव एवं उसका शौर्य अनुपम ,अतुलनीय और अपूर्व है ।

रश्मिरथी के आधार पर श्रीकृष्ण का चरित्र-चित्रण

युद्ध-विरोधी-  श्री कृष्ण युद्ध विरोधी है  ,उन्होंने युद्ध टालने का भरसक प्रयास किया ,  इसी उद्देश्य से श्री कृष्ण कौरवों को समझाने के लिए स्वयं हस्तिनापुर जाते हैं ।

कठोर निर्णय की क्षमता- यद्यपि श्रीकृष्ण अनुनय-विनय को प्राथमिकता देते है किन्तु  जब अनुनय-विनय का प्रयास विफल होने लगता है तो कठोर निर्णय लेने में भी संकोच नहीं करते ।श्री कृष्ण का यह कथन प्रमाण है –

तो ले मैं भी अब जाता हूँ  अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ ।

याचना नहीं अब रण होगा  जीवन-जय या कि मरण होगा।

शीलता और व्यावहारिकता के समन्वयक  -श्रीकृष्ण का चरित्र शीलगुण का परिचायक हैं किन्तु धर्म और न्याय किरक्षा के लिए आवश्यकता के अनुसार वें व्यावाहारिक भी हो जाते है  ।

गुण  प्रशंसक- श्रीकृष्ण गुण प्रशंसक है और गुणी का आदर करनेवाले है  । गुणी यदि अपने विरोधी भी हो तो उसके गुणों का आदर करने में श्री करी कृष्ण तनिक भी भेद नहीं करते  हैं। कर्ण पांडवों के विरुद्ध था   किन्तु  श्रीकृष्ण कर्ण का गुणगान करते नहीं थकते।

कूटनीतिज्ञ- श्रीकृष्ण कूटनीतिज्ञ हैं। उनकी कूटनीतिज्ञता ने  ही  पाण्डवों का  विजय मार्ग प्रशस्त किया ।

लौकिक- अलौकिक शक्ति के समन्वयक  – काव्य में कवि ने श्रीकृष्ण के चरित्र में जहाँ मानव-स्वभाव के अनुरूप अनेक साधारण विशेषताओं का समावेश हुआ है  ,वहीं अलौकिक शक्ति से संपन्न श्री कृष्ण के विराट रूप  को भी प्रकट किया है ।

खण्डकाव्य में कवि ने  श्रीकृष्ण के चरित्र को  कूटनीतिज्ञ लोकोपकारक, युगानुरूप बनाकर प्रस्तुत किया है।

रश्मिरथी काव्य खंड के आधार पर कुन्ती का चरित्र-चित्रण

वात्सल्यता की प्रतिमूर्ति- माता- कुन्ती ने पांडवों को न सिर्फ अपनी कोख से जन्म दिया बल्कि अपने हाथों से पाला-पोसा भी ,पांडवों के प्रति ममत्व होना स्वाभाविक है किन्तु कर्ण को कुंती ने जन्म भले ही दिया था ,किन्तु उसे पाला नहीं था ,फिर कर्ण के प्रति वहीँ ममत्व भाव है जो पांडवों  के प्रति है । कर्ण के तेजोमय रूप को देख कुन्ती फूली नहीं समाती तो  कर्ण द्वारा स्वयं को राधा का पुत्र बतानेपर  व्याकुल हो जाती है ।

दुविधाग्रस्त- कुंती का चरित्र नारी और माँ दोनों रूपं में दुविधाग्रस्त है  वह जितनी  पाँचों पाण्डवपुत्रों को लेकर चिंतित रहती है उतनी ही   कर्ण को लेकर भी  चिंतित रहती है ।

लोक मर्यादा से भयभीत –कौमार्यावस्था में सूर्य से उत्पन्न नवजात शिशु को वह लोक-निन्दा के भय से गंगा की लहरों में बहा देती है।कुन्ती का ऐसा किया जाना लोक-लाज से भयभीत रहनेवाली  नारी की प्रतीक है। इस बात को वह कर्ण के समक्ष भी स्वीकार करती हैदृ

तीक्ष्ण बुद्धि -कुन्ती तीक्ष्ण बुद्धि है। भाइयों के बीच परस्पर युद्ध की स्द्थिति देखकर वह दूरगामी परिणाम का अनुमान लगा लेने में समर्थ है। कर्ण-अर्जुन युद्ध  की आशंका और उसके भीषण परिणाम को रोकने के लिए ही वह समय रहते सावधान हो जाती है और उसके निस्तारण के लिए कर्ण के पास जाती है

कवि ने ‘रश्मिरथी में कुन्ती के चरित्र को मातृत्व के अन्तर्द्वन्द्व में फंसी विवश माँ के रूप मे प्रस्तुत किया है ।

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