माँ के नौ रूपों में माँ का प्रथम रूप है -शैल पुत्री। हिमालय की पुत्री होने के कारण शैल पुत्री कहलाई। नवरात्र के पहले दिन माता के इसी स्वरुप का पूजन किया जाता है। स्वरुप – माता के रूप को वृषभ आरूढ़ दर्शाया गया है। दाहिने हस्त में त्रिशूल और बांये हस्त में कमल पुष्प चित्रित है। माँ शैलपुत्री से जुड़ा प्रसंग – पूर्व जन्म में माता प्रजापति दक्ष के यहाँ कन्या के रूप में उत्पन्न हुई। इस जन्म में माता का नाम सती था। भगवान शंकर के साथ इनका विवाह हुआ। विवाहोपरांत प्रजापति दक्ष द्वारा आयोजित यज्ञ में भगवान शिव को छोड़कर समस्त देवी -देवताओं को आमन्त्रित किया गया। इसके उपरांत भी माता सती ने भगवान शंकर से पिता द्वारा आयोजित यज्ञ में सम्मिलित होने का आग्रह किया किन्तु भगवान शंकर बिना आमंत्रित किये जाने के लिए सहमत नहीं हुए। माता सती रुष्ठ हो गई ,इस पर भगवान शंकर ने सती का मन रखने के लिए बिना आमन्त्रण के भी जाना स्वीकार कर लिया। वहां पहुंचने पर सती के पिता पिता दक्ष द्वारा भगवान शंकर और स्वयं सती का अपमान किया ,इस अपमान से क्रुध्द होकर माता सती ने यज्ञ अग्नि में कूदकर स्वयं को होम कर दिया। माता सती ने अगले जन्म में हिमालय पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में पुन:भगवान शंकर के साथ इनका विवाह हुआ। नव रात्र के प्रथम दिवस शैल पुत्री के रूप में पूजा-उपासना की जाती है।
२- नवरात्र का दूसरा दिन और माता का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी –
यह माता का दूसरा रूप है। महादेव शिव को प्राप्त करने के
लिए इस रूप में ही माता नेकठोर तप किया था। नवरात्र के दूसरे दिन माता के इसी रूप की पूजा की जाती है
स्वरुप –दाहिने हाथ में जपमाला और बाये हाथ में कमंडल
अन्य प्रचलित नाम –तपश्चारिणी ,अपर्णा ,उमा
ब्रह्मचारिणी स्वरुप से जुड़ा प्रसंग –
भगवान शंकर को वर रूप में प्राप्त करने हेतु देवी ने अत्यधिक कठोर तप किया था .अन्नाहार का त्याग कर शाक का आहार करती रही ,इसलिए इन्हें शाकम्बरी भी कहा जाता है .,फिर तीन हज़ार वर्ष तक बिल्ब पत्र खाकर तप करती रही ,कड़ी धूप वर्षा सहन करती रही ,कुछ समय पश्चात बिल्ब पत्र का भी त्याग कर दिया और निर्जल –निराहार तप करती रही ,निर्जल-निराहार तप के कारण शरीर कृश – काय हो गया ,इस तरह अपने कठोर तप से देवी ने पुन:शिव को पति रूप में प्राप्त किया। इस रूप में देवी की साधना करनेवाले साधक को अभीष्ट की प्राप्ति होती है .देवी के इस रूप की साधना करनेवाले साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में अवस्थित रहता है .
ब्रह्मचारिणी माता का स्तुत्य मन्त्र
दधांना करपद्माभ्यामक्षमाला कमण्डलू
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा
ॐ ब्रह्मचारिण्यै नमः
या देवी सर्वभूतेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संसंस्थिता
नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नम:
३- चन्द्रघंटा – नवरात्र के तीसरे दिन माता का तीसरा रूप
यह माता कातीसरा रूप है। इनके मस्तक पर घंटे की आकृति वाला अर्द्धचंद्र सुशोभित रहताहै। माता के दस हाथों में दस प्रकार के अस्त्र-शस्त्र सुशोभित है। नवरात्र के तीसरे माता के इस रूप की पूजा की जाती है।
देवी माँ का स्वरुप –
मौली पर घंटाकर अर्द्ध चन्द्र ,देह वर्ण स्वर्णिम आभायुक्त ,अस्त्र-शस्त्र युक्त दस हाथ ,मुख मुद्रा शांत व सौम्य ,सिहारुढ
साधक को अलौकिक दर्शन एवं सुगंध की अनुभूति होती है .
साधक का मन मणिपुर चक्र में अवस्थित होता है
माता की स्तुति व् भक्ति साधक का अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करने वाला मन गया है
माँ चन्द्रघंटा के स्तुत्य मन्त्र –
या देवी सर्व भूतेषु माँ चन्द्र घंटा रूपेण संस्थिता
यह माता का आद्य स्वरुप है।नवरुपों में यह माता का चौथा रूप है।इन्हें चराचर जगत की अधिष्ठात्री भी कहा जाता है क्योकि इसी रूप मे देवी ने ब्रह्माण्ड की रचना की थी . नवरात्र की चौथेदिन माता के इस स्वरुप की पूजा होती है।
माता की इस रूप में उपासना करनेवाले साधक रोग –शोक से मुक्त होकर आयु और यश में वृद्धि पाते है .
साधक का मन अनाहत चक्र में अवस्थित रहता है..
स्वरुप –सिंहारुढ, अर्थात अपने वहां सिंह पर आसीन इस रूप में माता अष्ट हस्त रूप में दर्शित है। अष्ट हस्त कमंडल ,धनुष- बाण,कमल पुष्प ,अमृत कलश ,चक्र और गदा से सुशोभित है.
धर्म ग्रंथानुसार माना जाता है कि सृष्टि की रचना से पूर्व सर्वत्र तिमिरांध व्याप्त था .माता कूष्मांडा ने अपनी स्मित हँसी से ब्रह्माण्ड की रचना की थी , इसीलिए इन्हें आद्यशक्ति भी कहा जाता है। कूष्मांडा जिसका अर्थ होता है कुम्हड़ा ( काशीफल या कद्दू )और माता को कूष्मांडा की बलि प्रिय होने के कारण ,ये कूष्मांडा देवी कहलाई .माता कूष्मांडा का वास सूर्यलोक माना गया है .ब्रह्माण्ड में व्याप्त प्रभा कूष्मांडा देवी के प्रभाव से ही है .चाहे वह वस्तु हो या प्राणी या दसों दिशायें ,सर्वत्र कूष्मांडा देवी का ही आलोक विकीर्ण हो रहा है .
५-स्कन्द माता – देवी का पाँचवाँ रूप और नवरात्र का पाँचवाँ दिन
५-स्कन्दमाता –
यह माता का पांचवां रूप है। स्कंद अर्थात कार्तिकेय की माता होने कारण उन्हें स्कन्द माता का नाम मिला। नवरात्र के पांचवें दिन माता के इस स्वरुप को पूजा जाता है।इन्हें सूर्य मण्डल की की अधिष्ठात्री भी माना जाता है .स्वरुप – इस स्वरुप में माता चतुर्भुज रूप में दर्शित है। दाई ओर की ऊपरी भुजा में पुत्र स्कन्द को गोद में लिए हुए है तथा दूसरे हाथ में कमल पुष्प है,बाई ओर एक हाथ वर मुद्रा में उठा हुआ है तथा दूसरे हाथ में भी कमल पुष्प है .पद्मासीन है और सिंह पर आरुढ है .
सिंहासनगता नित्यं पद्मांचित करद्वया
शुभ दास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी
ॐ स्कन्दमात्रै नमः
स्कन्द माता का स्तुत्य मन्त्र
या देवी सर्व भूतेषु माँ स्कन्द माता रूपेण संस्थिता
माता के नौ रूपों में छठा रूप है -कात्यायनी। इस रूप में ही माता ने महिषासुर राक्षस का वध किया था। नवरात्र के छठे दिन माता कात्यायनी के रूप में पूजा जाता है।साधक का मन आज्ञा चक्र में अवस्थित रहता है .
स्वरुप – स्वर्णिम आभायुक्त वर्ण ,एक हाथ में कमल पुष्प ,एक हाथ में तलवार धारण किये हुए ,एक हाथ अभय और दूसरा हाथ वर देते हुए –चतुर्भुज ,सिंह पर आसीन ,ऐसा दिव्य रूप है स्कन्द माता माता का .
माना जाता है कि महर्षि कात्यायन ने देवी को पुत्री रूप में प्राप्त करने के अभीष्ट से कठोर तप किया था .महर्षि कात्यायन का अभीष्ट पूर्ण करने के लिए ही देवी ने महर्षि कात्यायन के आश्रम में पुत्री रूप में जन्म लिया था . महर्षि कात्यायन के यहां पुत्री रूप में जन्म लेने के कारण कात्यायनी कहलाई जाती है।
भगवान कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने हेतु ब्रज गोपिकाओं ने माता कात्यायनी की ही आराधना की थी .इसलिए देवी कात्यायनी की ब्रज मंडल की अधिष्ठात्री भी मानी जाती है .महिषासुर का संहार करने के कारण महिषासुरघाती कहलाती है .
कल्याणी ह्रदयं पातु जया भगमालिनी ॐ कात्यायन्यै नमःॐ कात्यायन्यै नमःॐ कात्यायन्यै नमः काल रात्रि – माता का साँतवा रूप और नवरात्र का साँतवा दिन काल रात्रि
७-कालरात्रि –काल रात्रि अर्थात माँ दुर्गा की सातवीं शक्ति .नवरात्र के सातवें दिन माता को काल रात्रि के रूप में पूजा जाता है। श्यामल वर्ण में गर्दभ वाहिनी माता का कालरात्रि रूप अत्यंत विलक्षण है। माता का यह रूप राक्षसो को भयभीत कर देनेवाला तथा भक्तों को भयहीन कर देने वाला है। सातवें दिन माता के इसी स्वरुप की पूजा होती है।
साधकों के लिए आज का रात्रि सिध्द्यों की रात्रि मानी जाती है .साधक का मन सहस्त्र सार में अवस्थित होता है .
स्वरुप –वर्ण अमावस्या की रात्रि जैसा स्याह घना ,विकीर्ण चिकुर ,कंठ में व्योम तड़ित,त्रिनेत्री ,श्वासों से नि:सृत होती हुई ज्वाला , गर्दभ वाहन पर आसीन ,चतुर्भुजा –एक हस्त वरदान दे रहा है तो दूसरा अभय के लिए आश्वस्त कर रहा है ,दो हस्तों में शत्रु का नाश और शक्तों की रक्षा करनेवाले शस्त्र- खडग और लौह कंटक . बाह्यरूप इतना भयावह कि भूत प्रेत और राक्षस भी भय से काम्पने लगते है किन्तु अपने भक्तो के लिए आंतरिक रूप से नवनीत सा स्निग्ध ह्रदय .अपने भक्तों के लिए शुभम्कारी और समस्त भय दूर करने वाली है -माता काल रात्रि .
दुर्गा सप्त शती में वर्णित है .सृष्टि के निर्माण से पूर्व जब सर्वत्र अन्धकार व्याप्त था ,उस समय देवी शक्ति ने सर्वप्रथम जिस देवी को प्रकट किया ,वह देवी काल रात्रि ही थी .महाकाली ,महामाया ,क्षुधा .तृषा ,निद्रा ,एकवीरा ,दुरत्यया देवी काल रात्रि के ही विभिन्न रूप है .
महागौरी –माता का यह आठवांरूप है। देवी गौरी को आठ वर्ष की कन्या स्वरूप माना गया है। देवी गौरी गौर वर्णी ,अत्यंत सौम्य और शांत रूप में वृषारूढ़ दर्शित है। पौराणिक कथानुसार माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तप किया तप किया था। कठोर तप के कारण माता पार्वती कालुष्य वर्ण की हो गई थी ,देवी पार्वती के तप से प्रसन्न होकर महादेव ने गंगाजल से देवी पार्वती को फिर से गौर वर्णी रूप प्रदान किया । तब से माता को महागौरी नाम मिला। नवरात्र के आठवें दिन माता के इस स्वरुप की पूजा की जाती है।मन वांछित वर प्राप्ति हेतु अविवाहित युवतियां देवी की आराधना –उपासना करती है . स्वरुप – गौर वर्ण के कारण महागौरी कहलाती है , श्वेत वस्त्र धारण करती है ,इसलिए श्वेताम्बर कहलाती है .इनका वाहन वृष है ,इसलिए वृषारुढा कहलाई. चतुर्भुजा –एक हाथ में त्रिशूल ,एक हाथ में डमरू ,एक हाथ अभय का संकेत दे रहा है और एक हाथ भक्तों को आशीर्वाद दे रहा है .
सिद्धिदात्रीमाता का यह नवां रूप है। नवरात्र के नवें दिन माता के इसी स्वरुप की पूजा की जाती है। इस दिन देवी के साधक निर्वाण चक्र तक पहुँच जाते है .
सिद्धिदात्री माता की कृपा से देवादिदेव महादेव को समस्त सिद्धियां प्राप्त हुई थी ,ऐसा माना जाता है। अपनी सिद्धियों से अपनेभक्तो की समस्त मनोकामना पूर्ण करने के कारण सिद्धिदात्री कहलाती है। माता सिध्दिदात्री ने ही भगवान शिव को अपनी अर्द्धदेह अर्थात शाक्तियां प्रदान की थी ,इसीलिए शिव को अर्द्ध नारीश्वर कहा जाता है ,ऐसा माना जाता है . इसके अतिरिक्त मार्कण्डेयपुराण में वर्णित आठ सिध्दियाँ (अणिमा,महिमा ,गरिमा ,लघिमा ,प्राप्ति ,प्राकाम्य,ईशित्व ,वशित्व )और ब्रह्ववैवर्त पुराण में वर्णित दस सिध्दियां (सर्वकामावसायिता ,सर्वज्ञत्व, दूरश्रवण ,परकायप्रवेशन ,वाकसिध्दि, कल्पवृक्षत्व ,सृष्टि ,संहारकरणसामर्थ्य ,अमरत्व और सर्वन्यायकत्व )इन कुल १८ सिध्दियों की स्वामिनी भी देवी सिध्दिदात्री ही है .
स्वरुप – चार भुजावाली माता सिध्दिदात्री के एक हाथ में गदा ,एक हाथ में चक्र .एक हाथ में शंख और एक हाथ में कमल पुष्प है .सिंह माता का वाहन है और आसन कमल है .
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