mahaveer swami
महावीर जयंती पर विशेष
(अ ) जीवन परिचय
जैन तीर्थकरों की जीवनी भद्रबाहु रचित कल्पसूत्र मे है ,जैन ग्रन्थों के अनुसार जीवों के आत्मिक उत्थान एवं धर्म तीर्थ के प्रवर्तन हेतु तीर्थकरों का आविर्भाव होता है ।जैन धर्म के संस्थापक और प्रथम तीर्थकर थे –ऋषभ देव तथा 23 वे तीर्थकर थे- काशी के इक्ष्वकु वंशीय राजा अश्वसेन के पुत्र पार्श्वनाथ। 23 वे तीर्थकर पार्श्वनाथ के निर्वाण प्राप्ति के 188 वर्ष पश्चात 24 वे एवं अंतिम तीर्थकर हुए –महावीर स्वामी ।जैन धर्म की स्थापना का श्रेय ऋषभ देव को दिया जाता है किन्तु जैन धर्म को व्यापकता प्रदान की महावीर स्वामी ने । महावीर स्वामी का जन्म 2500 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को 540 (599 ) ईसा पूर्व वैशाली के कुंडग्राम (वर्तमान मे बिहार के नालंदा जिला ) मे हुआ था ।बचपन का नाम था-वर्धमान । वर्धमान कहलाने के पीछे यह मान्यता है कि महावीर स्वामी का जन्म एक विशेष नक्षत्र और शुभ योग मे हुआ ,इनके जन्म के साथ ही राज्य मे खुशहाली और उन्नति हुई थी । पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम था त्रिशला ।
वैवाहिक जीवन को लेकर सर्व सम्मति नहीं है । दिगंबर मत के अनुसार महावीर स्वामी आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया था जबकि श्वेतांबर मत के अनुसार यशोदा नामकी युवती से उनका विवाह हुआ था तथा प्रियदर्शनी नाम की पुत्री थी, जिसका विवाह राजकुमार जामिल (जमाली )के साथ हुआ था ,यही जामिल महावीर स्वामी के प्रथम अनुयायी बने थे ।पिता सिद्धार्थ के देहावसान के पश्चात् वर्धमान के शीश पर राज मुकुट धारण करने का सुयोग आया,किन्तु वर्धमान ने राज सुख त्याग कर निष्क्रमण की उद्घोषणा कर सभी को आश्चर्य में डाल दिया। अनुज भ्राता के अनुनय-विनय के कारण दो वर्ष तक राजमहल में रहना स्वीकार कर लिया। वचनानुसार दो वर्ष पश्चात् मार्ग शीर्ष कृष्णा दशमी को राजपद त्याग दिया। दीक्षा संस्कार हुआ .. वस्त्र -केश त्याग दिए …. बारह वर्ष तक कष्ट साध्य कठोर तप किया। वर्धमान का यह तप अनित्य ,अशरण ,संसारानुप्रेक्षा ,एकत्व ,अन्यत्व ,अशुचि ,आस्त्रव ,निर्जरा ,सम्बर ,लोक बोधि दुर्लभ और रत्नमय जैसी द्वादश भावनाओ का सम्मिश्रित रूप ही था।
12 वर्ष के कठोर तप के पश्चात जृंभिक के समीप (ऋजुपालिका/ऋजुबालुका ) त्रिजुपालिका नदी तट पर साल वृक्ष के नीचे केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुईं ।12 वर्ष तप कि अवधि मे केवल 349 बार ही भोजन ग्रहण किया था । इंद्रियों पर विजय पा लेने के कारण जिन कहलाए इसके अतिरिक्त आहृत अर्थात पूज्य और निग्रंथ अर्थात बंधन रहित कहलाते है । जामिल महावीर स्वामी के प्रथम अनुयायी और राजा दधिवाहन की पुत्री चम्पा महावीर स्वामी की प्रथम भिक्षुणी बनी । महावीर स्वामी की शिक्षा से प्रभावित होकर तत्कालिक शासक बिंबसार ,कुनिक और चेटक उनके अनुयायी बन गए थे । अनेकांतवाद और स्याद्वाद जैसे सिद्धान्त महावीर स्वामी की ही देंन है ।महावीर स्वामी का धर्म और सिद्धान्त सर्वोदयी कहा जा सकता है क्योकि उनका धर्म और सिद्धान्त जातिगत भेदभाव से मुक्त था ।जिस तत्वज्ञान को 23 वे तीर्थकर पार्श्वनाथ ने आरंभ किया था ,उसी दर्शन को परिमार्जित कर पुन:प्रतिष्ठित और व्यापकता प्रदान करने का श्रेय महावीर स्वामी को जाता है ।जैन धर्म के त्रिरत्न है- सम्यक दर्शन ,सम्यक ज्ञान ,सम्यक आचरणजैन धर्म मे आत्मा की मान्यता है,ईश्वर की नहीं।महावीर पुन:जन्म और कर्मवाद मे विश्वास करते थे निर्वाण 72 वर्ष की आयु मे मल्लराजा श्रस्तिपाल के राजप्रासाद मे (527 ) 468 ईसा पूर्व बिहार के पावापुरी मे हुआ ।
(ब ) महावीर स्वामी के उपदेश
महावीर स्वामी की विचारधारा के अनुसार यह जगत अनादि और अनंत है ,दुःखमय है ,कर्मों का फल भोगने के लिए है,इससे मुक्ति पाना ही जीव का उद्देश्य है। देह विविध रोग का आश्रय स्थल है ,एन्द्रिक सुख क्षणिक है। रोग और मृत्यु से रक्षा का हेतु अन्य कोई नहीं प्रत्येक जीव को स्वयं ही कर्मों का फल भोगना होता है। इसमें किसी अन्य की भागीदारी नहीं। समस्त सांसारिक पदार्थ जीव से पृथक है. अशुचि पदार्थों से उत्पन्न देह गर्व करने योग्य नहीं हो सकती। जीव को चाहिए कि मन ,वचन और कर्म से ऐसा कोई कर्म न करे जो कर्म बंधन में बांधता हो , पूर्व कर्मों को भीषण तपाग्नि में जलाकर ही भस्म किया जा सकता है। तप और योग ही कर्म बंधनों से मुक्त होने की युक्ति है। महावीर स्वामी ने इन्ही द्वादश भावनाओं से स्वयं को तपा कर द्वंद्व करने योग्य और सक्षम बनाया ,ताकि स्वयं को वीर से महावीर बना सकें।
आध्यात्मिक अथवा दार्शनिक उपायों से जगत के वास्तविक रूप को ज्ञात कर लेना ही महानता नहीं है,जब तक कि उस ज्ञान में पारमार्थिक भावना का समावेश न हो । इसीलिए महावीर स्वामी अपने कष्टों की चिंता किये बिना घूम-घूमकर पारमार्थिक कर्म में लगे रहे। सत्कर्म करते हुए मान-सम्मान प्रतिष्ठा प्राप्त होने लगाती है ,यह मान-सम्मान प्रतिष्ठा अपने साथ अहंकार भी साथ लेकर आता है और यही अहंकार समस्त उचाईयों से मनुष्य को नीचे धकेल देता है. यही अहंकार मनुष्य के पतन का कारण बनता है। महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में अहंकार का त्याग कर सदैव नम्रता और विनयपूर्ण व्यवहार पर बल दिया।
महावीर स्वामी भी भगवान श्री कृष्ण की भांति कर्म पर जोर देते है। बाह्य दृष्टि से कर्म मनुष्य को बंधन में बांधने वाला प्रतीत होता है किन्तु महावीर स्वामी के अनुसार कर्म प्राणी को बंधन में नहीं बांधता ,वरन प्राणी स्वयं मोह और लोभ के वशीभूत होकर अकृत्य कृत्य से बंधन में बंधता है। यदि कर्म का उद्देश्य निष्काम हो, निस्वार्थ हो, प्रतिफल की कामनासे रहित हो और पारमार्थिक हो ,यही कर्म किसी सामान्य मनुष्य को महापुरुष बना देता है।
महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों में अहिंसा पर विशेष बल दिया। अहिंसा मात्र किसी जीव का वध करने में ही नहीं अपितु अपने कर्म और वाणी से किसी को क्षति पहुँचाना भी हिंसा है। महावीर स्वामी ने अपने पांच सिद्धांत अहिंसा ,सत्य ,अचौर्य ,ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह में अहिंसा को प्रत्येक प्राणी चाहे मुनि ,श्रावक हो ,अथवा सामान्य जन हो ,प्रत्येक के लिए आवश्यक है। इस आण्विक युग में महावीर स्वामी का अहिंसा का सिद्धांत केवल प्राणी मात्र के लिए नहीं ,अपितु अखिल विश्व समुदाय के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। इस आण्विक युग में हर परमाणु संम्पन राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को आँख दिखा रहा है। परिणाम क्या होगा …. विनाश ….
विनाश …. और सिर्फ विनाश। इस आण्विक विनाश से बचने का उपाय क्या …. अहिंसा …. अहिंसा और सिर्फ अहिंसा ,दूसरा कोई विकल्प नहीं
व्यक्ति और समाज में गहरा सम्बन्ध है-समाज से व्यक्ति और व्यक्ति से समाज प्रभावित होता है यदि समाज के अधिकांश लोग दया,करुणा ,प्रेम सहानुभूति और परस्पर सहयोग की भावना से आपूरित होतो निश्चित ही वह राष्ट्र ,वह समाज शांति ,आध्यात्मिक और आत्मिक प्रेम शुचित सद्भाव से व्यवहृत होगा।
महावीर स्वामी स्वामी का दूसरा सिंद्धांत अपरिग्रह पर यदि प्रत्येक समाज और समाज का प्रत्येक प्राणी
व्यावहारिक रूप से अपना ले तो उस प्राणी की मानसिक अशांति का निस्तारण स्वत:ही हो जाएगा। अपरिग्रह का तात्पर्य है अनावश्यक भौतिक पदार्थों का संग्रह न करना। वर्तमान में महावीर स्वामी का यह सिद्धांत और भी प्रासंगिक हो जाता है ,वर्तमान में अधिकांश लोगों का संघर्ष रोटी ,कपड़ा और मकान के नहीं अपितु विलासता की वस्तुओं के संग्रह के लिए ही हो रहा है। भ्र्ष्टाचार ,झूठ ,बे -ईमानी ,छल-कपट ,ईर्ष्या ,द्वेष ,असंतोष ,जैसी वृतियो का कारण भौतिक पदार्थों के संग्रह की स्पृहा ही है।
महावीर स्वामी के अहिंसा के सिद्धांत से जहाँ प्राणी के ह्रदय में प[रेम विक्सित होगा ,वहीँ अपरिग्रह का सिंद्धांत अन्य पाप कर्म करने से बचाएगा। इन दोनों सिद्धांतों से सत्य का पालन करना और भी सहज हो जाता है।
अहिंसा ,अपरिग्रह ,सत्य पालन से अचौर्य व्रत का पालन करने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता ही न होगी। जहाँ तक ब्रह्मचर्य पालन का प्रश्न है ,इस पर वैचारिक मतभेद हो सकता है किन्तु मनुष्य धर्म सम्मत नियमों का पालन करते हुए काम का उपभोग करनेकारने को अपने जीवन का न्यायम बना ले तो नारी सम्मान की रक्षा भी हो सकेगी और नारी के प्रति जो कुत्षित भाव अपराध को जन्म देने का कारण बनते है ,उसमे एक सीमा तक कमी हो सकेगी।
महाभारत काल के पश्चात् हिन्दू धर्म का वह स्वरुप ,वह पवित्रता ,वह शुचिता और आध्यात्मिक मूल्य मानव कल्याण की भावना सेअनुपूरित हुआ करता था ,ब्राह्मणों के गिरते आचरण के कारण विशृंखलित होने लगा था। आडम्बर ,निरर्थक कर्म कांड औररूढ़िवादिता का बाहुल्य होने लगा था। जन -सामान्य त्रस्त होने लगा था ,ऐसे समय में महावीर स्वामी का आविर्भाव हुआ। महावीर स्वामी हिन्दू धर्म के विरोधी नहीं अपितु उस काल में प्रचलित आडम्बर और रूढ़िवादिता के विरोधी थे। यदि सूक्ष्मता से विश्लेषण किया जाये तो कुछ तत्थ्यों को छोड़कर वैदिक सिद्धांतों के मूल में साम्य की ही अधिकता मिलेगी ।
पूर्व प्रचलित जैन धर्म को संकुचित क्षेत्र से निकलकर व्पापकता महावीर स्वामी ने ही प्रदान की थी। महावीर स्वामी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर ही इंद्रभूति ,अग्निभूति वायुभूति आदि ग्यारह वेद-वेदांग के प्रकांड पंडित ब्राह्मण महावीर स्वामी केशिष्य और जैन धर्म के अनुयायी हुए थे । संकीर्ण मानसिकता वाली सोच के अनुयायी और विधर्मी जो जैन धर्म का नाम देकर उसे पृथक संप्रदाय मानते है, वे या तो अल्पज्ञानी होंगे अथवा कट्टर मानसिकता से ग्रसित। ऐसी अलगाववादी संकुचित मनोवृति के लोग न तो स्वयं का आत्मोत्थान कर सकते है और अपने धर्म का। महावीर स्वामी को धर्म संशोधक का अवतार कहा जाना समीचीन होगा,क्योकि महावीर स्वामी का सन्देश भी आत्म सर्वभूतेषु की भावना से ही अनुप्रेरित है ,जिसमे मानव और विश्व कल्याण दोनों का समावेश है ।
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