international women day
८मार्च , अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
international women day
८मार्च , अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
८मार्च , अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष
१९१० में जिस उद्देश्य को लेकर सोशलिस्ट इंटरनेशनल द्वारा कोपनहेगन में महिला दिवस मनाये जाने की शुरुआत हुई थी ,उसके साकारात्मक ,उद्देश्यात्मक और गुणात्मक परिणाम दुनिया के सामने है। नारी सशक्त हुई है । आज वह पुरुष के रहमो-करम पर नहीं ,अपने बलबूते पर समानाधिकार पा सकी है । पूर्व की तुलना में नारी आज कहीं ज्यादा बेहतर स्थिति में है,इसमे संदेह नहीं। विरूद्ध पूर्वाग्रह के बावजूद अभी भी उसमे अपार संभावनाएं शेष है ,उन उच्चाकांक्षाओं को यथार्थ रूप में परिणत करने की,जो कभी स्वप्न सा प्रतीत होता था।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद १४ में स्त्री और पुरुष के सामाजिक ,आर्थिक और राजनितिक न्याय के साथ कानून की साम्यता का प्रावधान रखा गया है। इसके साथ संविधान के अनुच्छेद १५ (३ )में राज्यों को महिलाओं के कल्याण के लिए विशेष अधिकार प्रदान किये गए है , किन्तु उसके स्वतंत्र अस्तित्व के सामने प्रश्न चिह्न आज भी लगा हुआ है।
एक बड़ा नारी वर्ग अपने को कमज़ोर समझने की नकारात्मक सोच से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है।
भारतीय नारी आज भी कहीं ना कहीं मानसिक रूप से कमजोर नज़र आती है। अपने ऊपर होनेवाले ज़ुल्म ,अत्याचार शोषण होने पर भी कानून का दरवाज़ा खटखटाने का साहस नहीं जुटा पा रही है। कानून की भुल -भुलैया जैसी घुमावदार गलियों में घूमने से वह आज भी डरती है ,जबकि नारी के पक्ष में सशक्त कानून का प्रावधान है।
सशक्त कानून के बावज़ूद दहेज़ के कारण युवतियों की हत्या हो रही है या स्वयं युवती को आत्महत्या के लिए मज़बूर होना पड रहा है।
यौन उत्पीडन और शोषण के अपराधिक मामलों का ग्राफ बढ़ाता ही जा रहा है।
शारीरिक और मानसिक जैसी घरेलू हिंसा की त्रासदी से नारी आज भी त्रस्त है।
श्रमिक महिलाओं का आर्थिक और दैहिक शोषण बदस्तूर जारी है।
सख्त कानून के बावज़ूद कन्या भ्रूण हत्या के आंकड़ों में कमी नहीं आई है।
कुछ सम्प्रदायों में अन्याय और अत्याचार सहन करने को आज भी नियति माना जा रहा है।
महिलाओं के पक्ष में कानून भले ही बना दिए गए हो ,किन्तु न्यायिक प्रक्रिया वैसी ही जटिल है।
कानूनी प्रावधान है, किन्तु पिता की सम्पति से वह आज भी बेदखल ही है।
घर से बाहर वह आज भी सुरक्षित नहीं है। दुस्साहसी असामाजिक तत्वों की भेड़ियों जैसी ख़ौफ़नाक नज़रें नारी देह का पीछा करती देखी जा सकती है।
बलात्कार ,बलात्कार के प्रयास , गैंग रेप ,छेड़-छाड़ एसिड अटैक और अपहरण के आंकडों की गर्दने ऊँची होती जा रही है। आर्थिक कारणों से विवश युवतियां आज भी देह व्यापार जैसे अनैतिक धंधों में धकेली जा रही है।
वे संगठन जो नारी उत्थान की दिशा में कार्य कर रहे है ,उनकी दृष्टि शहरी स्त्रियों की समस्या तक ही सिमटी हुई है ,जबकि उन क्षेत्रो में जो मुख्य धारा से अब तक भी पृथक है ,जिन्हें पिछड़ा या आदिवासी क्षेत्र भी कहा जाता है, वे दूर-दराज के गाँव जहाँ निर्धनता ,दरिद्रता ,अशिक्षा ,रूढ़िवादिता अंगद के समान पैर जमाये खड़ी है ,यहाँ की युवतियां विवाह की आड़ में खरीदी-बेचीं जा रही है। देह व्यापार के दलाल कानूनी शिकंजे से बचने के लिए रीति -रिवाज के अनुसार किसी छद्म युवक से विवाह करा ले आते है। उसके बाद उन युवतियों का क्या होता है ,इस बात की खबर या तो स्वयं युवती को होती है या फिर ईश्वर को। नारी उत्थान के लिए कार्य कर रहे महिला संगठनों को चाहिए कि इस अदृश्य अपराधिक प्रवृति की ओर भी दृष्टिपात करें।
नारी यदि अपने अधिकारों की मांग करती है ,तो उसे अपनी मर्यादा की सीमा रेखा भी तय करनी होगी।
नारी स्वतंत्रता के नाम पर नारी ने बहुत कुछ पाया है तो बहुत कुछ खो भी रही है। शहरों की आधुनिक जीवन शैली और आपा -धापी ने बच्चों को माता-पिता के उस वात्सल्य से वंचित कर दिया है ,जिस पर बच्चों का जन्मजात अधिकार है। साल के ३६५ दिन मिलनेवाला वात्सल्य घटकर सप्ताह के ५२ दिनों तक रह गया है। माँ जो बच्चे की प्रथम पाठशाला मानी जाती है ,जो बच्चों में संस्कारों के बीज रोपित करती है ,अब सिर्फ संरक्षक बनकर रह गयी है। कामकाजी महिलाओं के बच्चों के इस अभाव की पूर्ति घर में रखी आया ,होम ट्यूटर या शिशु पालना गृह कर रहे है। कामकाजी महिलायें संयुक्त परिवार की तुलना में एकाकी रहकर अपने को स्वतन्त्र समझ रही है किन्तु इस सोच का आज न दिखाई देनेवाला दुष्परिणाम का दंड बच्चे भुगत रहे है। इस मूल्य पर यदि नारी को स्वतन्त्र माना जा रहा है तो नारी स्वतन्त्रता के मायने के बारे में फिर से विचार किये जाने की आवश्यकता है।आधुनिक नारी ने भले ही सामाजिक, आर्थिक ,राजनीतिक क्षेत्रों में अपनी उपस्तिथि और हिस्सेदारी बढ़ाई हो ,पुरुषों के वर्चस्व को तोडा हो ,अपना लोहा मनवाया हो ,किंतु एक लाभ के लिए ,दूसरे का नुकसान भी समझदारी नहीं कही जा सकती। बुजुर्ग माता-पिता को साथ रखने से क्या निज स्वतन्त्रता छीन जाएगी ?
नारी ही नारी की शत्रु है ,यह कथन पढ़ने -सुनने में भले ही विचित्र जान पड़ता हो, किन्तु पूर्णतः गलत भी नहीं है।
कन्या भ्रूण हत्या और दहेज़ जैसे मामलों की तह तक जाने पर वास्तविक अपराधी सासू नाम की नारी ही मिलेगी।
एक-दो पोती के बाद अब उसे और पोती नहीं चाहिए या एक बेटा तो होना ही चाहिए ,यह कहनेवाली भी नारी ही है।
बेटा -बेटी के बीच भेदभाव करनेवाली भी नारी होती है।
यह रिश्ता मैंने यहाँ की जगह वहाँ किया होता तो इतना मिलता ,यह वाक्य किसी पुरुष का नहीं नारी का ही होता है।
संस्कारों के नाम पर बेटी को भावनात्मक रूप से कमज़ोर बनानेवाली भी नारी ही है।
बेटी ,इस घर की इज्जत अब तेरे हाथों में है
तेरा पति ही तेरा परमेश्वर है
तेरे सास ससुर ही अब तेरे माता -पिता है ,हम नहीं
तेरा घर अब ये नहीं ,वो है
इस घर से तेरी डोली उठ रही है ,अर्थी ससुराल से उठनी चाहिए
तू तो इस घर में पराये घर की अमानत थी
विदा होती बेटी को ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के सिनेमाई संवाद सुनानेवाली भी नारी ही होती है –
कैमरा … एक्शन …. लाइट … जैसे शब्दों को सुनने के लिए अपनी अस्मिता खोकर अपने ही शोषण के लिए प्रस्तुत होनेवाली भी नारी है।
धन के लिए विज्ञापन , सिनेमा और टीवी के परदे पर लज्जा का आवरण उतारकर अनावृत होनेवाली नारी ही है।
देह को अधिक से अधिक हवा का स्पर्श देने के लिए कम से कम वस्त्र पहनकर पुरुष द्वारा फब्तियाँ कसने और घूरने की शिकायत करनेवाली भी नारी ही है।
अन्याय ,ज़ुल्म ,अत्याचार और शोषण के विरूद्ध आवाज़ उठाने वाले महिला संगठन तो एक ही शहर में बहुत सारे होंगे किन्तु बहुत सारे शहरो को मिलाकर किसी एक शहर में क्या कोई ऐसा महिला संगठन भी है ,जो नारी ही नारी की शत्रु है ,वाक्य को झुठलाने की दिशा में कार्य कर रहा है ?
नारी स्वतन्त्रता के नाम पर कुछ तथाकथित आधुनिकवादी युवतियां भले ही उनकी संख्या अंगुली पर गिनने लायक हो, एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है वाली कहावत चरितार्थ कर रही है।
ऐसी युवतियां अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए देश की मर्यादित और गरिमामय सभ्यता-संस्कृति को तो कलंकित कर ही रही है ,साथ ही पूरी नारी जाति , जो निर्दोष है ,के प्रति भी वैसी ही छवि बनाने का अपराध कर रही है। तथाकथित आधुनिकवादी युवतियां से आशय टीवी ,सिनेमा और विज्ञापन से जुडी युवतियों से है जो न्यूनतम वस्त्रों में देह प्रदर्शन नारी सुलभ लज्जा को बहुत सस्ते में बेच रही है।ऐश्वर्य और विलासता पूर्ण जीवन के लिए के लिए न्यूनतम वस्त्रों में अश्लील भाव-भंगिमाओं भरे नृत्य करअपनी तरह की ही माँ ,बहिन ,बेटी को लज्जित रही है ,पुरुषों की भांति ही शराब के प्याले छलकाने और सिगरेट का धुआँ उड़ाने का अभिनय कर नारी जाति की छवि धूमिल कर रही है। ऐसी फ़िल्में और टीवी धारावाहिक सफल हो रहे जिनके कथानक में नारी को माँग में सिन्दूर किसी और के नाम का भरती हुई और आलिंगन किसी अन्य पुरुष का लेते हुए बताया जाता है। पुरुष नाम का प्रोड्यूसर/ डायरेक्टर अपनी जेब भरने के लिए नारी का इस्तेमाल कर रहा है और युवतियां अपनी भौतिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए स्वेच्छा से अपने शोषण की स्वीकृति दे रही है। हम उसी संस्कृति के लोग है जो अपनी माँ ,बहिन और बेटी को इस रूप में नहीं देखना चाहते। तो फिर क्यों नहीं अपसंस्कृति ,अश्लीलता और नग्नता का विरोध किया जा रहा ?
महिलाओं का उद्धार करने का दंभ भरने वाले संगठन क्यों आँख मूंदे और मुँह सिये बैठे है ? क्या यह विषय उनके नैतिक दायित्वों के कार्य क्षेत्र में नहीं आता ?
क्या इन संगठनों की ज़िम्मेदारी अपराध सामने आने के बाद सरकार और पुलिस के खिलाफ सड़क पर एकजुट होकर नारे लगाने तक ही है ,अपराध को बढ़ने से रोकने की नहीं ?
महिला दिवस की सार्थकता तब है ,जब हर नारी के मुँह से यह निकले कि मुझे अपने नारी होने पर अफसोस नहीं।
बेटी के जन्म पर किसी के मुँह से दुखी होकर यह ना निकले कि काश ,बेटा पैदा हुआ होता।
महिला दिवस की सार्थकता तब है ,जब हर नारी निर्भीक होकर घर से निकल सकें।
किसी को नारी इसलिए उत्पीड़ित ना होना पड़े कि वह नारी है।
No Comments