मनुष्य दो प्रेरणा शक्ति से संचालित होता है। एक-बुध्दि और दूसरा आत्मा। बुध्दि मुश्किल से मुश्किल समस्या का भी हल खोज देगी किन्तु बुध्दि यह नहीं बतलाती की अमुक कार्य सही है या गलत ,उचित है या अनुचित ,पाप है या पुण्य। यदि बुध्दि के द्वारा सुझाया गया उपाय सही हुआ तो आत्मा green signal दे देगी और यदि अनुचित हुआ तो red signal दे देगी। किन्तु स्वार्थ या लोभ के वशीभूत मनुष्य आत्मा के संकेत की उपेक्षा कर जाता है। मनुष्य को बुध्दि के द्वारा सुझाएँ गए उपाय में लाभ तुरंत और समीप ,नज़र आता है जबकि आत्मा द्वारा सुझाएँ गए लाभ दूर और देरी से प्राप्त होने वाले लगते है ,इसलिए मनुष्य बुध्दि के अनुचित और धर्म विरुद्ध उपाय को स्वीकार कर लेता है और सत्कर्म की ओर बढ़ाने वाला कदम कर्म बंधन की ओर बढ़ जाता है।
चित्तवृत्तियों का निरोध करना ही योग है ।
चराचर जगत में जो कुछ भी द्वैत भासता है ,वह मन का ही दृश्य है –
अंतर ह्रदय में परमात्मा स्थित है और उसके साथ मन जुड़ा हुआ
भौतिक जगत में मनुष्य दूसरों जैसा बड़ा दिखने या दिखाने की चाह में अपनी पहचान ,अपने अस्तित्व को वैसे ही खो देता है ,जैसे नदी समुन्द्र जीतनी बड़ी दिखने के लिए समुन्द्र में मिलकर अपना अस्तित्व अपनी ,पहचान खो देती है। किन्तु आध्यात्मिक जगत में यही बात बिलकुल विपरीत हो जाती है। मनुष्य स्वयं को विराट बनने की चाह को प्रबल बनाकर ईश्वरीय पथ पर निकल पड़े तो सूक्ष्म आत्मा ,परमात्मा में समाहित होकर वैसी अनन्त ,असीम और विराट हो जाती है ,जितनी अनन्त ,असीम और विराट परमात्मा की सत्ता है। भाग -दौड़ की ज़िन्दगी और अपने व्यस्तम समय में से थोड़ा समय निकालकर एकांत में अपने विवेक से चितन करे ,उत्तर स्वयं मिल जायेगा कि अविनाशी शरीर को बड़ा बनाना है या अविनाशी आत्मा को ?छोटे लाभ के लिए बड़ा नुकसान करना कदापि बुध्दिमतापूर्ण निर्णय नहीं कहा जा सकता।
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