जहाँ महत्वकांशा ख़त्म होती है ,प्रसन्ता वहाँ से शुरू होती है। अति महत्वकांशाउस क्रूर राक्षस के सामान है जो कहता है कि मुझे काम बताओ वरना मैं तुम्हे खा जाऊँगा।
अति महत्वकांशा मनुष्य को क्रूर और कभी-कभी निकृष्ट बना देती है महत्वकांशा भूखे पेट की तरह है जो अपनी भूख के आलावा किसी नियम को नहीं मानती मनुष्य चाहे साँप की तरह रेंग कर चले या सीढ़ियों से ऊपर जाये अंत तो दोनों का ही है
महत्वाकांक्षा यह एक विवादित शब्द है..एक वर्ग वह जो महत्वाकांक्षा का समर्थक है ,दूसरा वह जो महत्वाकांक्षा का विरोधी है। एक कहता है कि महत्वाकांशा के बिना बुद्धिमता पंख कटे पक्षी की भाँति है। दूसरा कहता है कि आकाश के सहारे सीढ़ी रखना ही महत्वाकांशा है दोनों पक्षकारों के पास अपने -अपने तर्क है। महत्वाकांक्षा के सम्बन्ध में हम जिस भी पक्ष का तर्क सुनते है ,वही हमें उचित जान पड़ता है। दोनों पक्षों के तर्क सुनकर दुविधा यह होती है कि किसे उचित माने और किसे अनुचित।
Ambition /महत्वाकांक्षा आखिर है क्या? महत्वाकांक्षा और कुछ नहीं सामान्य इच्छा का प्रबल हो जाना ही महत्वाकांक्षा है। यह सही है कि महत्वाकांक्षा मनुष्य को कर्म के प्रति प्रेरित करती है और कर्म से मनुष्य वह सब पाने में भी सफल हो जाता ,जो वह अपने लिए चाहता है। यूँ कहा जाए कि महत्वाकांक्षा मनुष्य की सामान्य इच्छा को इतना प्रबल बना देती है कि महत्वाकांशी का स्वपन यथार्थ बन जाता है। लोग उसे एक सफल आदमी के रूप में देखने लगते है। अपने आस-पास के साधारण लोगों से लेकर इतिहास के पन्नों तक ऐसे कई उदहारण मिल जाएंगे।इन बातों से तो ऐसा जान पड़ता है कि महत्वाकांक्षा एक मानवीय गुण है लेकिन ऐसा मानने से पूर्व इसके दूसरे पहलू का भी आकलन कर लेना चाहिए। एक सिक्के के दो पहलू होते है,वैसे ही महत्वाकांक्षा के भी दो पहलू है ,एक अच्छा और दूसरा बुरा । किन्तु यह निर्विवादित सत्य है कि कर्म के बिना महत्वकांशा महज एक कल्पना है …एक स्वप्न है।
महत्वाकांक्षा कामना या इच्छा की वह उग्र या चरम स्तिथि है ,जिस पर पहुंचकर मनुष्य विवेकशून्य हो जाता है। सही -गलत का अंतर भूल जाता है। उसके लिए अपनी इच्छा पूरी करना ही लक्ष्य रह जाता है और उसे पाने के लिए अपनी सारी ताक़त झोंक देता है। महत्वाकांक्षा आदमी को जुनूनी बना देती है।यह जूनून उसे इतना अँधा बना देता है कि वह इंसानियत की हदों को पार कर जाता है। इतिहास के पन्नों में ऐसे कई सम्राट हुए है ,जो ऐसे ही महत्वाकांक्षी थे। महत्वाकांक्षा ने उन्हें इतना निष्ठुर ,निर्दय ,औरअत्याचारी बना दिया कि वे इंसान से हैवान बन गए । उन्होंने इतिहास के पन्नों में अपना नाम तो लिखवा लिया ,किन्तु उन्हें जब भी याद किया जाता है -एक बुरे शासक के रूप में। महत्वाकांक्षा पौराणिक कथाओं में वर्णित उस वरदान की तरह जो वरदान प्राप्त करने वाले के लिए वह वरदान ही उसके विनाश का कारण बन गया। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि महत्वाकांक्षा का जन्म निष्ठुरता की सीपी में होता है। महत्वाकांक्षा का जन्म क्रोध और ईर्ष्या से और अंत विनाश से होता है । महत्वाकांक्षा की अतिशयता घातक ही सिद्ध हुई है। मैक डोनाल्ड ने ठीक ही कहा है कि महत्वाकांक्षा,लालसा का निकृष्ट प्रतिबिम्ब है। चाणक्य ने कहा है कि महत्वाकांक्षी अथवा यशस्वी होने की इच्छा तो स्वाभाविक है ,किन्तु अतिशय लोभ मनुष्य के पतन का कारण भी बन जाता है। शक्पियर ने महत्वाकांक्षा को देवदूत को भी पतित बना देने वाली कहा है। मैकियावली ने कहा कि महत्वाकांक्षा मनुष्य के ह्रदय की शक्तिशाली अभिलाषा है। मनुष्य चाहे कितने भी उच्च पद पर पहुँच जाये ,कभी संतुष्ट नहीं होता। महत्वकांशा का कोई अंत नहीं। महत्वकांशा के लिए खुद की काबिलियत का होना भी ज़रूरी है। काबिलियत के बिना महत्वाकांशी होना उस लंगड़े मनुष्य की तरह है जो बिना बैसाखी के चल नहीं सकता।
आज भी आम आदमी से लेकर खास आदमी इसी महत्वाकांक्षा के चक्रव्यूह में पड़कर अपना सुख-चैन खो रहा है। भाग -दौड़ की ज़िन्दगी में खुद को ही भूल बैठा है।सुबह से लेकर देर रात तक दौड़ रहा है दौड़ रहा है और सिर्फ दौड़ रहा है ,पांव कहाँ पड़ रहे है,पता नहीं। मशीन बन गया है आज का आदमी। दिल मशीन का इंजन और पैर पहिए बन गए है।कार के बिना ज़िन्दगी बेकार लगने लगी है। दया,करूणा ,प्रेम ,सहानुभूति ,सहयोग जैसी मानवीय भावनाएं बेजान -सी हो गयी है। आज के आदमी ने सुख की परिभाषा ही बदल दी है,मायने बदल दिए है। महत्वाकांक्षा की इस कड़ी धूप ने इंसान की इंसानियत को ही सुखा दिया है।
महत्वाकांक्षी होना अच्छा है लेकिन अति महत्वाकांक्षी होना उससे कही ज्यादा बुरा है,.याद रहे अकूत दौलत -शौहरत पाने के लालच में जेब में छोटी -छोटी खुशियों जो सिक्के पड़े है ,उन्हें भी ना खो दे।
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