holi,indian festival
holi,indian festival
होली,हम और चार्ली
होली,हम और चार्ली
होली के इस मूर्ख दिवस पर सभी मूर्खो और जड़ बुद्धियों को सिर नीचे और पैर ऊपर कर प्रणाम।
सर्वप्रथम शब्दों की गुलाल और शुभ कामना की अबीर लगा लीजियेगा ,इस पर आने वाला खर्च मेरे नाम लिख दीजिये ,
चुका पाया तो ठीक ,नहीं तो ज़िन्दगी भर आपका कर्ज़दार बना रहूँगा। परम पूज्य माल्याजी , आदरणीय नीमो जी और प्रात:स्मरणीय कपूर महाराज जब करोड़ों का चूना लगा सकते है ,तो मेरे दस-बीस रूपये के गुलाल का क़र्ज़ तो बर्दाश्त कर ही सकते है।
गुस्ताखियाँ थूक दीजियेगा
रसगुल्ले का रस निकाल दीजिये और गुल्ला मुँह में रख लीजिये
कानों में तेल डाल लीजिये
हाँ तो मूर्ख स्वजनों ;
मूर्ख कहने पर मुझसे गुस्से में लाल-पीले मत होइये,
क्योकि होली खेलनेवालों को मूर्ख संबोधन मैं नहीं दे रहा हूँ ,ये संबोधन हमारी सोसाइटी के बुद्धिजीवी वर्ग कहलाने वाले ज्यादा समझदार लोगों द्वारा इतेमाल किया जाता है ,उन लोगों के लिए जो होली के अवसर पर रंगों से होली खेलते है।
हमारी सोसाइटी के बुद्धिजीवी वर्ग कहलाने वाले लोग यह विचार मन में क्यों नहीं लाते कि ज़िन्दगी में दुःख ,दर्द ,तकलीफें ,परेशानियों से रोज ही रु-ब -रु होते रहते है ,हँसने -हँसाने के मौके कितने कम मिलते है ?
और फिर ,हास्य फूहड़ता या असभ्यता तो नहीं ,मनुष्य की स्वाभाविक वृति है। इसलिए हे ,बुद्धिजीवियों के वंशजों सभ्य बिरादरी के लोगों ,ईश्वर प्रदत्त इस हास्य वृति का बल पूर्वक दमन ना करो। खुलकर हँसों … हँसाओं सब भूलकर होली के रंग में रंग जाओ … लाल .. पीले … हरे .. नीले .. हो जाओ …. एक दिन के लिए मूर्ख बन जाओ …. इस मूर्खता में भी एक मज़ा है.. मौज है .. . मस्ती है … जमकर होली खेलों .. black &white ज़िन्दगी की फिल्म से निकलकर ज़िन्दगी को eastman color बनाओं। खुद भी रंगीन हो जाओ और दूसरों की ज़िन्दगी को भी रंगीन बना दो।
भारत के इस अबीर गुलाल के रंग भरे त्योहार को देखकर अपनी संस्कृति से भिन्न संस्कृति के हास्य
कलाकार चार्ली चैप्लिन की याद ताज़ा हो जाती है ,जिसकी फिल्मे हँसा -हँसा कर पेट दुखा दिया करती थी। उसकी फिल्मों का उद्देश्य ही हँसाना हुआ करता था ,जिसने अपने आप को नायक से ज्यादा विदूषक के रूप में प्रस्तुत किया। सामान्य फिल्मों के नायक की तरह handsome -smart -bravo नहीं बल्कि बुद्धू रूप में प्रस्तुत किया ,सिर्फ इसलिए कि वह दूसरों को हँसा सकें। चार्ली ने जीवन दर्शन को बहुत नज़दीकी से जाना और समझा था।
हर आदमी अपनेआप में नायक भी है तो विदूषक भी है। दुनिया का हर आदमी two -in -one है .सच तो यह कि हम सब भी अपनी -अपनी real life में चार्ली ही है।। सब में भी चार्ली की तरह नायक और विदूषक के गुण सम्मिश्रित है। चार्ली का अतीत दुःख ,अभाव ,संघर्ष और अपमान से भरा हुआ था ,फिर भी चार्ली ने हास्य को ही चुना ,क्योकि चार्ली यही मानते थे कि सबके जीवन में कोई न कोई त्रासदी है ,हर आदमी भीतर से दुखी है ,यदि हम किसी को हँसा सके ,किसी के चहरे पर हँसी ला सकें ,तो यह किसी पुण्य से कम नहीं।
भारत में होली का त्योहार मनाये जाने के पीछे भी हमारे ऋषि ,मुनि और पूर्वजों की भी यही अवधारणा रही होगी। इसी मनोविज्ञान से जुड़ा है भारत का होली का त्यौहार।
किन्तु विडम्बना देखिये कि उसी भारत में हँसने-हँसाने को अपने आप को बुद्धिजीवी समझनेवालों द्वारा हली के त्यौहार को फूहड़ता समझा जाने लगा है। कोई किसी बात पर हँस दे तो कहा जाता है -क्या पागलों की तरह हँस रहा है। तो क्या हँसना फूहड़ता या असभ्यता का लक्षण है ?
आज त्योहार भी धर्म ,संप्रदाय और राजनीतिक दलों की तरह दो खेमों में बंट गया है। समाज का एक खेमा वह है, जो होली के इस पारम्परिक त्यौहार को हर्षोल्लास से मनाता है ,नाचता है, गाता है ,वही समाज का दूसरा खेमा ऐसा है ,जो होली के इस त्योहार को ज़ाहिल ,गंवार असभ्य लोगों का त्योहार मानता है।
समाज का वह खेमा, जो होली के इस त्योहार को ज़ाहिल ,गंवार असभ्य ,और उद्दण्डियों का त्यौहार मानता है और अपने आप को सभ्य और बुद्धिजीवी मानता है। बिध्दिजीवी कहलानेवाले लोग होली को पानी की बर्बादी करनेवाला त्यौहार कहते है। इसी बुध्दिजीवियों से पूछो ये स्वयं अपनी कर धोने पर कितना पानी खर्च करते है ?
बुद्धिजीवियों का यह खेमा भी दो भागों में बंट गया है -एक उदारवादी और दूसरा कट्टरवादी।
उदारवादी खेमा वह जो ,होली के त्यौहार का खुला विरोध तो नहीं करते बल्कि औपचारिक रूप से होली का विवशतावश समर्थन कर देते है। घर के बाहर टेबल पर एक प्लेट में गुलाल और एक प्लेट में थोड़ी मिठाई सजाकर रख देते है। जैसे ही गली -मोहल्ले के लोग आते है माथे पर गुलाल का तिलक लगाकर होली की शुभ कामना दे देते है-कुछ हाथ मिलाकर तो कुछ गले मिलकर , इस रस्म अदायगी के बाद मिठाई की प्लेट आगे बढ़ा देते है।हँसते भी है तो इतनी कंजूसी के साथ कि यदि ज्यादा हँस दिए तो मोदीजी टैक्स लगा देंगे।और कुछ लोग क्षण भर के लिए किसी टूथ पेस्ट के विज्ञापन की तरह श्वेत दंतावली के दर्शन करा कर मुँह बंद कर लेते है।हो गयी होली की रस्म पूरी। साँप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।
दूसरे ,वे जो कट्टर होली विरोधी होते है ,सुबह से ही किसी से बाहर दरवाजे पर ताला लगवाकर घर में बैठे रहते है। ऐसे जैसे होली का रंग पड़ते ही उनका धर्म भ्रष्ट हो जायेगा। इनमे से कुछ होली के हमलावरों से बचने के लिए
सुबह ही शहर के आस-पास किसी पिकनिक स्पॉट पर निकल जाते है और शाम होते-होते लौट आते है।
ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों और सभ्य लोगों को एक बार तो विचार करना चाहिए कि ऐसा करके हम अपनी ही सभ्यता – संस्कृति को बहिष्कृत तो नहीं कर रहे ?हमारे ऋषि -मुनियो और पूर्वजों ने यदि होली का त्यौहार मनाने की परंपरा प्रारम्भ की है, तो कहीं न कहीं कुछ तो अच्छी सोच रही होगी ,इस त्यौहार को मानाने की।
आप हम साल के ३६५ दिन काम की आपा -धापी में लगे रहते है ,एक पल की भी फुर्सत नहीं किसी को भी हंसने की भी। वैसे ही क्या कम परेशानियां है ज़िन्दगी में …
एक दिन तो ऐसा हो जब हम अपने आप पर हँस सकें। इतने सारे त्योहारों में यही तो ऐसा त्योहार है जो अनौपचारिक है ,जिसमे ना कोई धार्मिक अनुष्ठान है और न पूजा -विधान ,न व्रत -उपवास है और न पंडित पुजारी की आवश्यकता। होली के इस त्योहार में सिर्फ और सिर्फ मौज-मस्ती है …. हुड़दंग है …. उमंग है …. उत्साह है … हँसने – हँसाने का मौका है।अवसर है गिले -शिकवे भूलकर फिर से मिल जाने का।
फिर न मालूम क्यों अपने आप को सभ्य -बुद्धिजीवी कहलानेवाले लोगों को होली का यह रंगों भरा त्योहार मनाने से परहेज है ?
मनुष्य -मनुष्य होता है ,अनुभूति और भावना का स्तर एक जैसा होता है। जब वह दूसरों को हुड़दंग करते हुए होली खेलते हुए देखता है तो मन में वैसे ही हुड़दंग करने की हिल्लोरें उठती है किन्तु यह सोचकर कि यदि वह भी हुडदंगाइयों के साथ शामिल हो गया तो वह भी सामान्य समझा जाने लगेगा ,अपने को विशिष्ठ दिखाने की स्पृहा में वह अपने मन की इच्छाओं का दमन कर लेता है और इच्छाओं का दमन करना बुद्धिमता नहीं जड़ता है।
No Comments