hindi diwas
hindi diwas-हिंदी की कहानी हिंदी की जुबानी
hindi diwas,हिंदी दुर्दशा :
हिंदी दुर्दशा :
भाषा किसी भी राष्ट्र की पहचान ही नहीं होती बल्कि उस राष्ट्र का गौरव भी होती है। अपनी भाषा को बोलते हुए देशवासी गर्व का अनुभव करता है। अपनी भाषा को सुनकर प्रसन्नता की अनुभूति होती है। अपनी भाषा को पढ़ते हुए अन्तर्निहित भाव ह्रदय को उद्दवेलित करने लगते है। ईमानदारी से उत्तर दे क्या किसी अन्य भाषा को बोलकर ,सुनकर या पढ़कर ऐसी अनुभूति होती है ? हम अन्य भाषा को सुनकर या पढ़कर निहित अर्थ तो समझ लेंगे ,लेकिन क्या उस भाव का स्पर्श ह्रदय में कर पाएंगे ? हम किसी अन्य भाषा में कितनी ही दक्षता प्राप्त कर ले किन्तु जब हम उस भाषा का प्रयोग जिस देश की वह भाषा है , उस देश के नागरिक के सामने करते है तो उस देश का वह नागरिक आसानी से पहचान लेता है कि आप उस देश की भाषा तो जानते है लेकिन आप उस देश के मूल नागरिक नहीं है। आप कितना ही प्रयास कर ले आपका उच्चारण और आपकी मुख मुद्रा आपकी कलई खोल देंगे। ( इस कथन को प्रवासी भारतियों के सन्दर्भ में नहीं देखा जाये अन्यथा विषयांतर हो जायेगा )
उक्त कथन उन भारतियों के लिए है जो अपने ही देश में रहकर अपनी ही भाषा का तिरस्कार कर रहे है। क्या अपनी भाषा का प्रयोग करने से उनके मान -सम्मान में कमी हो जाएगी ?
१९४९ में जब हिंदी को राज भाषा का दर्जा देते हुए यह भी निश्चित हुआ था कि २६ जनवरी १९६५ से समस्त भारत की एक ही भाषा होगी और वह होगी -हिंदी .तब तक हिंदी -अंग्रेजी दोनों भाषाएँ राजकाज की भाषा रहेगी। इतने वर्ष व्यतीत होने के उपरांत भी वह दिन नहीं आया जिसका आश्वासन देश और देशवासियों को दिया गया था। दक्षिण भारत में हुए हिंदी विरोध के सामने सरकार झुक गयी और ऐसी झुकी कि आज तक भी सीधी नहीं हो पाई।
आज हिंदी भाषी क्षेत्र के लोग भी हिंदी बोलने पर जितना गर्व अनुभव नहीं करते , उससे कहीं ज्यादा अंग्रेजी नहीं बोल पाने के कारण आत्म -हीनता अनुभव करते है। स्वतन्त्र राष्ट्र का संविधान उस भाषा में लिखा गया जिसके हम वर्षों तक गुलाम रहे। हिंदी में संविधान तो अनुवाद मात्र है।
भाषा के मामले में किसी भी देश में ,किसी भी सरकार ने और उस देश के नागरिकों ने अपनी ही भाषा हिंदी की इतनी दुर्गति नहीं की होगी ,जितनी भारत में अपनी भाषा हिंदी की दुर्गति की है और की जा रही है। इस देश का पानी पीकर ,इस मिटटी का अन्न खाकर विदेशी भाषा की ढपली बजा रहे है। देश के वर्तमान राज – नेताओं ने अपनी राजनितिक रोटी सेकने के लिए हिंदी को लकड़ी बनाकर कर चूल्हे में झोंक दिया ।
कोई अपने हाथ सेक रहा है तो कोई अपनी रोटी। देश के सम्मान की चिंता किसी को नहीं। दक्षिण भारत की राजनीति तो हिंदी का विरोध करके ही चल रही है। बे-शर्मी की हद तो तब हो जाती है जब दक्षिण भारत के लोग दूसरी भाषा के रूप में विदेशी भाषा की गुलामी तो स्वीकार कर लेंगे किन्तु अपने देश की भाषा का सेवन करते ही इनका पेट ख़राब होने लगता है। हिंदी के विरोध में तोड़ -फोड़ कर देंगे ,आग लगा देंगे ,जान ले लेंगे ,जान दे देंगे, लेकिन हिंदी स्वीकार नहीं करेंगे। हिंदी गाने सुन लेंगे ,हिंदी फिल्मे देख लेंगे ,लेकिन हिंदी स्वीकार नहीं करेंगे। यह हठ धर्मिता नहीं तो और क्या है ?
हिंदी को अपने ही देश में अपने ही देशवासियों का विरोध सहना पड़ रहा है। हिंदी को अपने आत्म-सम्मान और अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
हिंदी फिल्म कलाकारों को देखिये ,मिडिया में साक्षात्कार अंग्रेजी में देंगे ,अंग्रेजी फर्राटे से बोलेगे और बीच -बीच में हिंदी ऐसे बोलेगे जैसे हिंदी अभी-अभी सीखी हो या सीख रहे हो । जिस हिंदी ने उन्हें दौलत -शौहरत दिलवाई ,उसी हिंदी का अपमान करते हुए इन्हें थोड़ी भी आत्म -ग्लानि नहीं होती। दूसरो को नमक हलाली का सन्देश देते है और खुद नमक हरामी करते है। जिस हिंदी के आटे से इनके घर में रोटी बनती है ,जिस हिंदी के आटे की रोटी खाकर बोलने की ताक़त पाते है ,उसी ताक़त का इस्तमाल हिंदी का विरोध करने में करते है ,यह है इनकी राष्ट्र वादिता का प्रमाण।
टीवी पर लोक सभा की कार्यवाही देखकर नहीं लगता की यह भारत की संसद है। हाँ ,चेहरे इनके जरूर भारतीयों जैसे है।
हास्यप्रद स्तिथि देखिये ,हिंदी समर्थन का ढोल पीटने वाले ,खुद अंग्रेजी ना जानने वाले और आर्थिक परेशानियों से जूझ रहे लोग भी अपने बच्चों को महंगे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में पढ़ा रहे है। तो उसका अर्थ हुआ कि हिंदी माध्यम से पढ़नेवाला बच्चा पिछड़ा रहेगा क्योकि हिंदी भाषा बच्चे को डॉक्टर ,इंजीनियर या पदाधिकारी बनाने में सक्षम नहीं है। अंग्रेजी पढ़कर ही बच्चा योग्य बन सकता है ,अंग्रेजी भाषा ही बच्चे को योग्य बना सकती है। जिस देश के लोगों की अपनी भाषा के प्रति यह मानसिकता हो ,उस देश की भाषा का भविष्य कैसा होगा ,इसकी सहज कल्पना की जा सकती है।
अहिन्दी भाषी राज्यों और केंद्र सरकार की शिक्षा नीति की निर्लज्जता देखिये -अंग्रेजी पढना अनिवार्य है किन्तु हिंदी पढना अनिवार्य नहीं है , आप चाहे तो पढ़ा देंगे। कहीं -कहीं सरकारी और गैर -सरकारी कार्यालयों में एक तख्ती पर लिखा देखा गया -हमारे यहां हिंदी में भी कार्य किया जाता है। ऐसा लगता है ,जैसे हिंदी में कार्य करके वे अहसान कर रहे हो।
किसी भी कंपनी का उत्पाद उठाकर देख लीजिये( कुछ अपवादों को छोड़कर )उत्पाद संबंधी विवरण अंग्रेजी में छापा जाता है।
भारत को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहाँ अपनी ही भाषा की ऐसी दुर्गति की जाती हो ,वह भी किसी गैर के द्वारा नहीं अपने ही देशवासियों के द्वारा ,विश्व का यदि कोई ऐसा देश है तो वह है भारत।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विडम्बना देखिये -अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे प्रतिनिधि
अंग्रेजी में संबोधित करते है (अटल जी और मोदी जी अपवाद है )जबकि आप देखिये विश्व के अन्य देशों के प्रतिनिधि अपने देश की भाषा में संबोधित करते है और वह भी गर्व के साथ। हमारे देश के प्रतिनिधियों को हिंदी बोलने में शर्म महसूस होती है। यदि उनकी अपनी सोच इतनी विकसित नहीं है या खुद में इतनी बुद्धि नहीं है तो कम से कम दूसरे देशो से अपने देश की भाषा पर गर्व करने की शिक्षा तो ली ही जा सकती है। जितने भी विकसित देश है ,उनकी अपनी भाषा है ,अपने ही देश की भाषा में राजकाज होता है ,वे अपनी भाषा पर गर्व करते है ,रूस ,फ्रांस ,जर्मनी ,चीन ,जापान इसके उदहारण है। यहाँ तक कि तकनीकी और चिकित्सा का अध्ययन -अध्यापन भी अंग्रेजी में नहीं बल्कि अपनी ही भाषा में कराई जाती है ,जबकि भारत में स्वतन्त्रता के इतने साल गुजर जाने के बाद भी तकनीकी और चिकित्सा का अध्ययन -अध्यापन आज भी अंग्रेजी में ही कराया जा रहा है। अब तो हम आज़ाद है , ,अब तो हम अपने फैसले खुद कर सकते है ,कोई मज़बूरी हमारे सामने नहीं है।
मजाक देखिये , हम हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची मे सम्मिलित कराने की बात करते है। दावेदारी की बातें करते है।
पूरे विश्व में भाषा के मामले में ऐसी विसंगति, ऐसी विडम्बना ,ऐसी विषमता वाला देश शायद भारत के अतिरिक्त अन्य नहीं होगा। कभी -कभी तो ऐसा लगता है जैसे भारत की राष्ट्र भाषा हिंदी नहीं अंग्रेजी है।
एक ऒर हम हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में सम्मिलित कराने की बात करते है। हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में सम्मिलित न करने पर संयुक्त राष्ट्र संघ की लोकतान्त्रिक प्रतिबद्धता और विश्व व्यापी चरित्र पर अंगुली उठाते है ,भेद-भाव पूर्ण नीति का आरोप लगते है। लेकिन अपनी गिरेबान में झांककर नहीं देखते कि हम स्वयं कितने दोषी है। खैर वे तो विदेशी है ,लेकिन केंद्र और राज्य सरकारे तो अपनी है। जब अपने ही अपनों के नहीं होंगे तो दूसरों से कैसे अपेक्षा की जा सकती है ?
हिंदी का दुर्भाग्य देखिये , वह बाहर और भीतर दोनों तरफ से भेदभाव और दुर्भावना की शिकार हो रही है।
पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने न मालूम क्यों हिंदी को राजभाषा बनने नही दिया। आज़ादी के बाद अंग्रेजी को ही राजभाषा बनाये रखने का फरमान ज़ारी किया था।
सारी विषमताओं के बावजूद हिंदी प्रेमियों को हताश -निराश होने की आवश्यकता नहीं है ,हिंदी किसी सहारे की मोहताज़ भी नहीं है। उसमे अपने को विकसित करने ,फलने -फूलने की क्षमता है। हिंदी में वह दम
है , हुनर है। विश्व बाजार में हिंदी का बढ़ता प्रयोग इस बात का प्रमाण है।
हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं भाषा के रूप में दावेदारी असंगत भी नहीं है। दूर देशों मे करीब १०० करोड़ लोगो द्धारा हिंदी का प्रयोग इस दावे को पुख्ता करता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की सूची में जिन भाषाओ को मान्यता प्राप्त है , उन भाषाओ के मुक़ाबले में हिंदी यदि उनसे इसकीस नहीं है तो उन्नीस भी नहीं है। उदाहरण के लिए स्पेनिश और अरबी भाषा क्या हिंदी से ज्यादा सम्रद्ध है? तुलना कर लीजियेगा , हिंदी का पलड़ा भारी होगा। इस प्रामाणिक सत्य को जानते हुए भी हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में संम्मिलित नहीं किया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र शायद भाषा की शक्ति को नहीं बल्कि देश की शक्ति को देखकर उस देश की भाषा को अपनी भाषा सूची में सम्मिलित करता है अन्यथा बहुत कम लोगों द्वारा बोली , समझी और पढी जानेवाली अरबी और स्पेनिश भाषा को संयुक्त राष्ट्र की भाषा सूची में सम्मिलित न करता । हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में शामिल कराने के लिए भारत को महा शक्ति बनने तक इंतज़ार करना पडेगा।
हिंदी का समर्थन करने का तात्पर्य यह नहीं है कि हम अंग्रेजी के विरोधी है। आज जिस तरह से वैश्विक स्तर पर बाज़ारवाद फ़ैल रहा है ,उसे देखते हुए अंग्रेजी ज्ञान की अनिवार्यता को उपेक्षित भी नहीं किया जा सकता ,यह ठीक है। यदि अन्य भाषा से हमारे ज्ञान में अभिवृद्धि होती है ,रोजी -रोटी मिलती है ,उस भाषा का ज्ञान होना गलत नहीं है ,गलत है उस भाषा की गुलामी ,उस भाषा की निर्भरता ,आवश्यकता ना होने पर भी उस भाषा को ओढ़े रहना। दूसरी भाषा का ज्ञान पार्टी वियर कपडे की तरह होना चाहिए। जैसे पार्टी वियर कपडे अवसर विशेष पर पहने जाते है और घर लौट कर उतार दिए जाते है ,वैसा ही दूसरी भाषा के साथ किया जाना चाहिए।
भावनात्मक रूप से भी देखा जाये तो एक पुत्र का जितना लगाव अपनी माँ से उतना तुलनात्मक रूप से ताई चाची बुआ ,मामी या भाभी से नहीं होता। कैसा लगेगा यदि आपकी पढ़ी -लिखी ताई ,चाची ,बुआ ,मामी या भाभी आपकी कम पढ़ी -लिखी माँ का अपमान करें ?यदि हमारी माँ कम पढ़ी-लिखी हो तो क्या माँ के प्रति सम्मान कम हो जायेगा ?इसी तरह हम दूसरी भाषाओँ के प्रति रिश्तेदारी तो निभाए किन्तु अपनी माँ का अपमान करके नहीं। माँ का अपमान कराके सम्मान पाने से कही अच्छा है ,जाहिल -गँवार कहलाकर माँ का सम्मान बचाना। हिंदी भारत माता के माथे की बिंदी है और ये बिंदी चमकती रहेगी।
No Comments