geeta adhyay saar -6
geeta adhyay saar -6
geeta adhyay saar -6 छठा अध्याय
छठा अध्याय
इस अध्याय में कुल ३० श्लोक है
इस अध्याय को ध्यान-योग कहा गया है
पाँचवें अध्याय में भगवान् ने कर्म संन्यास और कर्म-योग दोनों की महत्ता प्रतिपादित की थी ,फिर अंतिम श्लोकों में संक्षिप्त में ध्यान योग व निष्ठां भक्ति का वर्णन किया था।
इस छठे अध्याय में भगवान् ने पुनः कर्म-योग की श्रेष्ठता का वर्णन किया है।
भगवान् ने कहा कि केवल अग्नि और क्रियाओं का त्याग करनेवाला योगी और संन्यासी नहीं होता। सच्चा संन्यासी वह होता है जो कर्म फल के लिए कर्म नहीं करता। संन्यास ही कर्म-योग है। स्वार्थ का त्याग किये बिना कोई भी कर्म-योगी नहीं हो सकता। निष्काम कर्मयोग समत्व योग की प्राप्ति का साधन है और योगारूढ़ साधक के लिए समत्व अर्थात मानसिक संतुलन एवं आत्म-संयम ही ईश्वर प्राप्ति का साधन है।
योगी वह है जो इन्द्रियों के भोगों में तथा कर्म -फल में आसक्त नहीं रहता बल्कि सम्पूर्ण कामनाओ का त्यागकर देता है।
भगवान् कहते है कि मन श्रेठ मित्र भी है और सबसे बड़ा शत्रु भी। जिसने मन और इंद्रियों को बुद्धि द्वारा जीत लिया ,उसके लिए मन उसका मित्र होताहै ,किन्तु जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं है उसके लिए मन शत्रु सामान है। जिसने मन को वश में कर लिया है तथा जो सुख-दुःख ,मान-अपमान मे भी शांत रहता है ,ऐसे जितेन्द्रिय मनुष्य का मन सदैव परमात्मा में लींन रहता है।
सच्चे अर्थों में योगी वही है जो ब्रह्म ज्ञान और विवेक
से परिपूर्ण हो ,जितेन्द्रिय और समत्व बुद्धिवाला हो मिट्टी ,पत्थर और सोना जिसके लिए सामान हो। जो मनुष्य सुहृद ,मित्र ,वैरी ,उदासीन मध्यस्थ द्वेषी ,सम्बन्धियों,धर्मात्माओं और पापियों ने भी सामान भाव रखता है,वही श्रेष्ठ है।
ध्यान की विधि क्या हो ? इस प्रकरण में भगवान् कहते है कि साधक को चाहिए कि मन और इन्द्रियों को वश में करके एकांत स्थलपर एकाकी बैठकर मन को निरन्तर परमात्मा के ध्यान में लगावें। ध्यान की स्तिथि में साधक देह ,गरदन और सिर को सीधा रखे ,नेत्र मूँद कर दृष्टि को भौहों के मध्य स्थिर रखे।ध्यान का स्थान स्वच्छ हो और आसान पर कुश मृग छाल या वस्त्र बिछा हो ,आसान न बहुत ज्यादा ऊँचा और न बहुत ज्यादा नीचा। ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित भय से मुक्त शांत भाव से परमात्मा को ही अपना परम लक्ष्य मानकर परमात्मा में ही ध्यान लगावें। इस तरह सदा -सदैव परमात्मा का ध्यान करनेवाला निर्वाण प्राप्तकर मेरे ही पास आता है।
भगवान् यह भी कहते है कि आवश्यकता से अधिक अथवा निराहार रहकर ,आवश्यकता से ज्यादा निद्रा या बहुत अधिक जगानेवाले के लिए यह योग सम्भव नहीं है। यह योग समुचित आहार ,विहार,कर्म में यथायोग्य चेष्ठा ,यथायोग्य सोने और जगानवालों को सिद्ध होता है।
समस्त कामनाओं से रहित ,पूर्ण रूप से वश में किये हुए मन से ही परमात्मा में स्तिथ हो जानेवाला ही योगी कहलाता है।जब ध्यान योग के निरन्तर अभ्यास से मन शांत हो जाता है,तब साधक परमात्मा को बुद्धि द्वारा
देखकर परमात्मा में ही सन्तुष्ट रहता है। योगी इंद्रियों से परे ,बुद्धि द्वारा ग्राह्य असीम सुख का अनुभव करता है ,इस स्तिथि को पाकर योगी कभी परमात्मा से दूर नहीं होता।
परमात्मा की प्राप्ति के पश्चात अन्य कुछ लाभ शेष नहीं रहता। इस अवस्था को पाकर साधक भरी से भरी दुःख से भी विचलित नहीं होता दुःख के संयोग से वियोग ही योग है,ऐसा जानना चाहिए। इस तरह अभ्यस्त बुद्धि द्वारा मन को परमात्मा में लगाकर साधक शांति पाता है। चंचल और अस्थिर मन को अन्य सभी से हटाकर केवल और केवल परमात्मा के चिंतन और मनन में लगाना चाहिए।
भगवान श्रेष्ठ योगी के सम्बन्ध में कहते है कि वह योगी जिसका मन शांत है और जिसने काम ,क्रोध व लोभ पर काबू पा लिया है। ऐसे योगी परमात्मा में मन लगाकर नित्य परमान्द का अनुभव करते है। सच्चा योगी सभी में परमात्मा को तथा परमात्मा में सभी को देखता है.ऐसे योगी ना सिर्फ दूसरों को अपने जैसा समझते है ,बल्कि उनके दुःख-दर्द को भी अपना ही समझते है। ऐसे गुण वाले योगिओं से ना मैं दूर रहता हूँ और ना वे मुझसे दूर होते है।
अर्जुन ने संशय व्यक्त किया कि चञ्चल मन को कैसे काबू में किया जाये ?
इस पर भगवान् कहते है कि मन को ध्यान के अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है। जिसका मन पर नियंत्रण नहीं उसके लिए लिए परमात्मा की प्राप्ति भी कठिन है।
अर्जुन ने प्रश्न किया किया कि ऐसे असफल योगिओं का क्या हश्र होगा ?
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते है कि सत्कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। असफल योगी पुण्यकर्म करनेवालों के लोक को प्राप्त करता है, वह कुछ समय पुण्यकर्म करनेवालों के लोक में रहकर ज्ञानी या धनी योगी के यहाँ जन्म लेता है किन्तु इस प्रकार का जन्म दुर्लभ है। वह पूर्व जन्मके संस्कारों से संचित ज्ञान से पुनः योग सिद्धि की प्राप्ति का प्रयत्न करता है। इस तरह निरन्तर प्रयत्न से धीरे -धीरे पाप रहित होकर शुद्ध हो जाता है और मुक्ति को पा लेता है। ऐसा योगी ,सकाम तपस्वियों ,शास्त्र -ज्ञानियों औरसकाम कर्म करनेवालों से भी श्रेष्ठ होता है,इसलिए हे अर्जुन, तुम भी योगी बनो। समस्त योगियों में जो योगी मुझ में लींन होकर श्रद्धा पूर्वक उपासना करता है ,वही योगी सर्व श्रेष्ठ है।
श्री हरि
छठे अध्याय का शेष पिछले अध्याय में भगवान् ने ध्यान योग की विधि का वर्णन करते हुए ध्यान की महत्ता का प्रतिपादन किया था। भगवान् इससे आगे श्रेष्ठ योगी के लक्षण का वर्णन करते है –गतांग से आगे
भगवान श्रेष्ठ योगी के सम्बन्ध में कहते है कि वह योगी जिसका मन शांत है और जिसने काम ,क्रोध व लोभ पर काबू पा लिया है। ऐसे योगी परमात्मा में मन लगाकर नित्य परमान्द का अनुभव करते है। सच्चा योगी सभी में परमात्मा को तथा परमात्मा में सभी को देखता है.ऐसे योगी ना सिर्फ दूसरों को अपने जैसा समझते है ,बल्कि उनके दुःख-दर्द को भी अपना ही समझते है। ऐसे गुण वाले योगिओं से ना मैं दूर रहता हूँ और ना वे मुझसे दूर होते है।
अर्जुन ने संशय व्यक्त किया कि चञ्चल मन को कैसे काबू में किया जाये ?
इस पर भगवान् कहते है कि मन को ध्यान के अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है। जिसका मन पर नियंत्रण नहीं उसके लिए लिए परमात्मा की प्राप्ति भी कठिन है।
अर्जुन ने प्रश्न किया किया कि ऐसे असफल योगिओं का क्या हश्र होगा ?
इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते है कि सत्कर्म करने वाला कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। असफल योगी पुण्यकर्म करनेवालों के लोक को प्राप्त करता है, वह कुछ समय पुण्यकर्म करनेवालों के लोक में रहकर ज्ञानी या धनी योगी के यहाँ जन्म लेता है किन्तु इस प्रकार का जन्म दुर्लभ है। वह पूर्व जन्मके संस्कारों से संचित ज्ञान से पुनः योग सिद्धि की प्राप्ति का प्रयत्न करता है। इस तरह निरन्तर प्रयत्न से धीरे -धीरे पाप रहित होकर शुद्ध हो जाता है और मुक्ति को पा लेता है। ऐसा योगी ,सकाम तपस्वियों ,शास्त्र -ज्ञानियों औरसकाम कर्म करनेवालों से भी श्रेष्ठ होता है,इसलिए हे अर्जुन, तुम भी योगी बनो।समस्त योगियों में जो योगी मुझ में लींन होकर श्रद्धा पूर्वक उपासना करता है ,वही योगी सर्व श्रेष्ठ है।
छठा अध्याय समाप्त
सातवाँ अध्याय अगली पोस्ट में
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जय श्री कृष्णा राधे-राधे
छठा अध्याय समाप्त
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जय श्री कृष्णा। ……. राधे-राधे
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