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geeta adhyay saar-2

June 23, 2016
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geeta adhyay saar-2 दूसरा अध्याय

Hindi Hindustaniश्री हरी।।
दूसरा अध्याय
इस अध्याय को सांख्ययोग कहा गया है।
इस अध्याय में कुल ७२ श्लोक है।
इस अध्याय में –
सञ्जय द्वारा भगवान् श्री  कृष्ण और अर्जुन संवाद
सांख्य योग
क्षात्र धर्मानुसार युद्ध की अनिवार्यता
कर्म योग
स्थित प्रज्ञ के लक्षणों का वर्णन किया गया है।
पिछले अध्याय में हमने पढ़ा कि  युद्ध-भूमि में अर्जुन अपने रक्त -सम्बन्धियों को देख कर मोह ग्रस्त हो गए थे और भगवान् श्री कृष्ण के समक्ष युद्ध से विरक्त होकर रथ केपीछे जाकर बैठ गए थे।


 

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Hindi Hindustaniदूसरे अध्याय के प्रारम्भ में संजय ,धृतराष्ट्र को आगे का वर्णन सुनाते  हुए कह रहे है कि -अश्रुपूरित नेत्र ,करुणा और शोक युक्त अर्जुन से भगवान् श्री कृष्ण ने कहा कि  युद्ध से विरक्त होने का तुम्हारा यह कायरतापूर्ण निर्णय श्रेष्ठ मनुष्य को शोभा नहीं देता। तुम्हारे इस निर्णय से तुम्हे ना तो स्वर्ग मिलेगा ,ना यश की प्राप्ति होगी। मन की दुर्बलता और कायरता का त्याग कर युद्ध के लिए तत्पर हो ओ। 
अर्जुन ने पुनः अवशता प्रकट करते हुए कहा कि  मैं अपने पूज्य और श्र्धेय पितामहभीष्म तथा गुरु श्रेष्ठ द्रोणाचार्य के विरूद्ध बाण कैसे चला सकूँगा ?इनका वध कर राज-सुख प्राप्त करने से भीक्षा वृति कर जीवनयापन करना कही श्रेयस्कर होगा। अपनो के रक्त से सना ऐसा ऐश्वर्य  व्यर्थ है. मेरे समक्ष वे ही धृतराष्ट्र पुत्र  खड़े है जिनका वध कर मैं जीवित रहना नहीं चाहता। मैं  समझ नहीं पा रहा हूँ कि  क्या उचित है और क्या अनुचित ?
 मैं आपका कर्त्तव्य -विमुख शरणागत शिष्य हूँ ,आप ही मुझे कर्त्तव्य -पथ दिखलाइए। आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं जो मेरा शोक दूर कर सके।इतना कहकर अर्जुन चुप हो गए।  
 तब ,भगवान् श्री कृष्ण बोले -हे अर्जुन ,ज्ञानी शोक नहीं करते। आत्मा और परमात्मा पूर्व में भी थे ,वर्तमान में है,और भविष्य में भी रहेंगे।मनुष्य को मृत्यु से भयभीत नहीं होना चाहिए  क्योकि जीवात्मा को  मृत्योपरान्त नया शरीर प्राप्त होता है। सारा जगत जिस अविनाशी तत्व  से व्याप्त है ,उस अविनाशी तत्व को जनो। आत्मा न किसी को मारती है और ना कोई उसे मार सकता है। इस सत्य को न जानने वाला अज्ञानी है। आत्मा जन्मरहित  ,नित्य ,शाश्वत ,पुरातन है। जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र उतर कर नए वस्त्र धारण करता है ,वैसे ही आत्मा नवीन  शरीर धारण करती  है।इसे शस्त्र काट नहीं सकते ,अग्नि जला नहीं सकती ,जल गला नहीं सकता ,हवा इसे सूखा नहीं सकती। इसलिए तुम्हे इसका शोक नहीं करना चाहिए। सभी प्राणी जन्मसे पहले और मृत्यु के बाद अप्रकट ही रहते है। 
क्षत्रिय  को अपने कल्याणकारी कर्तव्य  से कभी विमुख नहीं होना चाहिए। युद्ध ना करके तुम स्वधर्म और कीर्ति को खो दोगे। युद्ध करो ,अर्जुन युद्ध करो। आत्मा नित्य है और देह अनित्य है। जन्म -मृत्यु शाश्वत सत्य है। मृत्यु का शोक नहीं किया जाना चाहिए। समस्त चिन्ताओं को त्यागकर मनुष्य को यथाशक्ति कर्तव्य -कर्म करना चाहिए। किसी अन्य भाव की चिंता न कर कर्तव्य करने वाले को  पाप नहीं लगता।  यही सांख्य योग है। 

इससे आगे भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म से मुक्त करनेवाले कर्मयोग  का उपदेश देते हुए कहा कि कर्मयोगी केवल ईश्वर प्राप्ति का निश्चय करता है जबकि सकाम  की इच्छाएं अनन्त होती है ।सकाम कर्म अत्यन्त निकृष्ट है।  मनुष्य का अधिकार कर्म पर है ,कर्म फल पर नहीं। आसक्तियों का त्यागकर, केवल और केवल परमात्मा का  ध्यान और चिंतन व समस्त स्तिथियों में सम रहकर कर्त्तव्य -पालन करना ही योग है। कर्मफल की आसक्ति त्याग कर निष्काम कर्म योगी बनो। कर्मफल की आसक्ति त्यागकर कर्मयोगी जन्म-मृयु के बंधन से मुक्त हो जाता है। तुम निष्काम कर्म-योगी बनो।
  जिसका चित्त भोग और ऐश्वर्य हर लेते है वे परमात्मा का ध्यान नहीं करते।  वेदों के ज्ञान से अधिक आवश्यकता है -त्रिगुणातीत होकर निर्द्वन्द ,परमात्मा में स्थित होने ,योग क्षेम न चाहने ,और आत्म -परायण बनने की।  जिस धीर मनुष्य को इंद्रियों के विषय व्याकुल नहीं कर पाते और जो सुख -दुःख में सम रहते है ,मोक्ष के अधिकारी हैं। निष्काम कर्म -योगी केवल और केवल ईश्वरप्राप्ति का दृढ निश्चय कर तदनुकूल कर्म करता है।
अर्जुन द्वारा स्तिथ -प्रज्ञ के बारे मेंपूछने पर भगवान् श्री  कृष्ण  कहते है कि  स्तिथ प्रज्ञ  वह है जो समस्त कामनाओं का त्याग कर आत्मानन्द से ही संतुष्ट रहता है।स्तिथ प्रज्ञ सब ओर से अपनी इंद्रियों को विषय से हटा लेता है। 
जिसकी इन्द्रिया वश में होती है ,उसी की बुद्धि स्थिर होती है। इच्छा का पूर्ण ना होना अथवा मनोनुकूल ना होना ही क्रोध का कारण  बनता है। बुद्धि को शांत -चित्त बनाकर ही परमात्मा में लीन हुआ जा सकता है। वही मनुष्य शांति प्राप्त करता है ,जो कामना ,इच्छा,ममता ,तथा अहंकार रहित होकर विचरण करता है।  यही ब्राह्मी स्तिथि है। ब्राह्मी स्तिथि को प्राप्त मनुष्य कभी मोहित नहीं होता और अंत समय में ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होता है। 
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जय श्री कृष्णा 

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