अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस पर विशेष
family day
जब भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई दिन विशेष रूप से मनाया जाता है ,उस दिन मानव सेवा,समाजसेवी संस्थाओं से जुड़े लोगों और प्रबुद्ध वर्ग का नैतिक दायित्व हो जाता है कि वे गम्भीरतापूर्वक उस विषय के बारे में चिंता और चिंतन करें। सामान्य जन को उसके नफे-नुकसान से अवगत कराये ,चेतना जाग्रत करें। हो सकता है आपके विचार जन सामान्य के दिल -दिमाग में हलचल पैदा कर दे ,आपका प्रयास एक आंदोलन या क्रांति बन जाये।
15 मई का दिन वैश्विक स्तर पर परिवार दिवस के रूप में मनाया जायेगा। टूटते-बिखरते पारिवारिक संबंधों को देखते हुए लोगों में रिश्तों में फिर से मिठास घोलने के उद्देश्य से 19 94 से अमेरिका में विश्व परिवार दिवस मनाये की शुरुआत हुई। इस लेख के माध्यम से हम आज परिवार और उसके कल आज और कल के बारे में विचार करेंगे।
भारत में प्राचीन काल से ही संयुक्त परिवार व्यवस्था चली आ रही थी ,जिसमे चूल्हा भी सांझा होता था और खुशियां तथा गम भी साँझा होते थे।
दाने-पानी की तलाश में परिवार से दूर होने वाली पीढ़ी को अलग रखकर उन लोगों की बात करें जो एक ही शहर में रहकर माता -पिता से दूर हो गए है। घर और चूल्हे ही अलग नहीं हुए बल्कि खुशियां और गम भी अलग-अलग हो गए।
वर्तमान की बात करने से पहले एक बार अतीत के ब्लैक एंड व्हाइट एल्बम से उन धुँधली पड़ गई सुखद यादों को पीछे जाकर देखते है –
परिवार के लोग एक साथ खाना खा रहे है … भीतर गिले है -शिकवे है ,फिर भी साथ है ….
दादाजी अपने पोते-पोतियों के साथ खेल रहे है ..
दादी कहानी सुना रही है …..
आर्थिक परेशानी पर पिता अपनी जमा पूँजी बेटे को दे रहा है ….
पत्नी के विरोध के बावजूद बड़ा भाई ,छोटे भाई के लिए … छोटा भाई बड़े भाई के लिए कुछ करना चाहता है ….
परिवार के मुखिया के न रहने पर बड़ा भाई पिता की भूमिका निभा रहा है ….
हर सदस्य के मन में एक दूसरे के लिए त्याग की भावना है
समय बदला …. बच्चे शिक्षित होने लगे … नौकरी के लिए घर छोड़ना पड़ा …. कोई देश में ही दूसरे शहर चला गया … कोई देश छोड़कर विदेश चला गया …. घर रह गया …. बूढ़े माता-पिता रह गये …. घर है ,लेकिन जिन लोगों के साथ रहने से छत ढकी दीवारें घर कहलाता था ,वे बेटे-बहू ,पोता-पोती नहीं।
कुछ को दाने-पानी ने घर से दूर कर दिया ,कुछ ने खुद अपने को घर से अलग कर लिया।
संयुक्त परिवार घटते जा रहे है ,एकल परिवार बढ़ते जा रहे है।
समय गतिशील है ,समय परिवर्तनशील है ,समय के साथ -साथ बहुत कुछ बदल जाता है ,यह सही है। बदलाव होते रहना भी चाहिए ,लेकिन बदलाव करते समय क्या हम कुछ देर ठहर कर यह विचार नहीं कर सकते कि हम अपना कुछ कीमती देकर सस्ता पाकर कुछ नुकसान तो नहीं कर रहे ? सोना देकर पीतल तो नहीं ले रहे ?नई पीढ़ी निजी स्वतन्त्रता की चाह और घर के बड़े -बुजुर्गों के दखल के कारण परिवार से अलग हो रहे है। चाचा-ताऊ के साथ रहने की बात तो दूर रही ,नई पीढ़ी बूढ़े हो चुके माता-पिता और सगे भाई -बहिन के साथ रहना पसंद नहीं कर रहे। कुछ ने बूढ़े माता-पिता को सम्पति की तरह बांट लिया ,तो कुछ ने बूढ़े माता-पिता को निराश्रित की तरह वृद्धाश्रम पहुंचा दिया। नई पीढ़ी के कुछ युवा तो इतने बे-ईमान हो गए है कि माता-पिता का क़र्ज़ चुकाना तो क्या ब्याज भी देने के लिए तैयार नहीं है।
उपभोक्तावादी संस्कृति के चलते मनुष्य की महत्वकांक्षा रोटी ,कपड़ा और मकान से बहुत आगे निकल चुकी है। मनुष्य भौतिक सुख में आत्मिक खुशियाँ वैसे ही ढूंढ रहा है ,जैसे कोई रेगिस्तान में पेड़ की छाया ढूढता है । व्यक्तिगत हित सर्वोपरि हो गए है ,जिसने मनुष्य को स्व-केन्द्रित बना दिया है। इतना स्व केंद्रित कि उसने (पत्नी और बच्चों को छोड़कर )परिजनों की चिंता करना ही छोड़ दिया है। असहनशीलता इतनी बढ़ गयी है कि किसी का भी थोड़ा -सा कहना – सुनना बर्दाश्त नहीं,चाहे वह दादा-दादी हो या माता -पिता या फिर छोटे-बड़े भाई । आत्मनिर्भर होने का इतना अहंकार कि घर के बड़े-बुजुर्ग का थोड़ा भी अंकुश स्वीकार नहीं।
मै समर्थ और सक्षम होकर भी क़ैद में क्यों रहूँ ?
क्यों दूसरों का हस्तक्षेप हो मेरे व्यक्तिगत जीवन में ?
मै अपनी पत्नी और बच्चों के साथ ज्यादा खुश रह सकता हूँ तो क्यों अपनी इच्छाओं का दमन करूँ ?
सोच इतनी संकुचित हो गयी है।
इस बदलाव ने रिश्तों की मिठास में खट्टापन ला दिया है।
इस भौतिकवादी जीवन शैली ने पारिवारिक व्यवस्था का ढांचा ही बदल दिया है।रिश्तों के समीकरण बदल गए। यही कारण है कि संयुक्त परिवार तेजी से एकल परिवार में तब्दील हो रहे है। एक ही शहर में एक परिवार कई घरो में बंट गया। एक ही शहर में अलग-अलग रहने से भौतिक दूरियां ही नहीं बल्कि भावनात्मक दूरियां भी बढ़ गयी है। परिवार से अलग रहकर ढेर सारी परेशानियाँ उठाना मंजूर है, लेकिन संयुक्त परिवार के साथ सुरक्षित और सुविधापूर्ण जीवन स्वीकार नहीं।
परिवार टूटने के साथ -साथ बुजुर्ग माता-पिता का बहू -बेटे, पोता-पोती के साथ शेष जीवन व्यतीत करने का सपना भी टूटता जा रहा है। बूढ़े हो चुके माता-पिता का बुढ़ापा सुरक्षित नहीं रह गया है। उन्हें न सम्मान मिल रहा है और न सुरक्षा ,जिसके वे अधिकारी है। दादा-दादी के साये से दूर हो गए बच्चे संस्कार विहीन होते जा रहे है।सहनशीलता की कमी , स्वछन्द जीवन जीने की चाह और बढ़ती आत्मकेंद्रित प्रवृति ने रिश्ते के ताने -बाने को उधेड़ कर रख दिया है।
संयुक्त और एकल परिवार के अपने -अपने फायदे और नुकसान है। लेकिन यह भी सच है कि संयुक्त परिवार की तुलना में एकल परिवार के फायदे कम और नुकसान ज्यादा है।
जिन लोगों ने संयुक्त परिवार से अलग होकर एकल परिवार का विकल्प चुन लिया है ,उन्हें एक बार थोड़ी फुर्सत निकालकर अपने फैसले के नफे -नुकसान का लेखा-जोखा कर लेना चाहिए- सौदा घाटे का है या फायदे का ?
कामकाजी दम्पति के लिए तो संयुक्त परिवार बहुत सारी परेशानियां दूर करने का विकल्प है। कामकाजी दम्पति अपने बच्चों को माता-पिता के भरोसे छोड़कर निश्चिन्त होकर कार्य पर जा सकते है, क्योकि उनके बच्चों की परवरिश सुरक्षित हाथों में होती है। उनके बच्चों को पारिवारिक -सामाजिक संस्कार मिलते है ,जिसके कारण उनके बच्चे असांस्कृतिक कीटाणुओ के सक्रमण से बचे रहते है। संयुक्त परिवार का सबसे बड़ा फायदा यह है कि कोई भी बड़ी समस्या परिजनों में बंटकर बहुत छोटी हो जाती है ,क्योकि संयुक्त परिवार में एक दूसरे को भावनात्मक सहारा प्राप्त होता है। परिवार के बड़े-बुजर्गों का अनुभव और सलाह समस्या का हल कर देती है। जबकि एकल परिवार में पति-पत्नी के बीच कहा-सुनी होने पर मध्स्थता करनेवाला कोई नहीं होता, इस कारण तनाव सम्बन्ध विच्छेद की स्थिति तक पहुँच जाता है। संयुक्त परिवार में पलनेवाले बच्चों को अकेलेपन का अवसाद नहीं भोगना पड़ता , क्योकि मनोवैज्ञानिक रूप से बच्चा अपने आपको दादा-दादी और भाई-बहिन को अपने आस-पास खड़ा पाता है।
संयुक्त परिवार में यदि कोई एक कम पढ़ा-लिखा ,असक्षम और आर्थिक रूप से कमज़ोर भी हो तो यह कमी छुप जाती है।
संयुक्त परिवार में यदि कोई सदस्य आकस्मिक रूपसे बीमार हो जाये ,तो तुरंत हॉस्पिटल ले जाने से लेकर रोगी के पास रहने की व्यवस्था हो जाती है ,दैनिक चर्या वाले सारे काम अबाधित रूप से यथावत चलते रहते है ,जबकि एकल परिवार में यह बहुत बड़ी समस्या बन जाती है। दफ्तर से छुट्टी लेनी पड़ती है और कितनी बार तो निर्वेतन रहना पड़ता है।
संयुक्त परिवार में किसी बाहरी व्यक्ति की आवश्यकता ही नहीं पड़ती जबकि एकल परिवार अपने आस-पास जान-पहचानवालों की भीड़ होते हुए भी अपने आपको अकेला ही पाते है।
संयुक्त परिवार में काम बंट जाने से काम का पता ही नहीं चलता ,जबकि एकल परिवार में हमेशा काम का बोझ कंधे पर पड़ा रहता है।
एकल परिवार मानसिक तनाव के चलते अवसाद और अज्ञात भय से घिरे रहते है।कोई बड़ी समस्या आ जाने पर एकल परिवार के लोग अपने आपको विकलांग अनुभव करने लगते है। निरंतर चलते रहने वाली समस्या या अवसाद कभी-कभी जीवन को ही ख़त्म कर लेने के फैसले तक पहुंचा देते है।
एकल परिवार में एक रोटी और या एक कटोरी खीर और जिद कर परोसनेवाली माँ नहीं होती।
एकल परिवार में थोड़ी सी उदासी आ जाने पर तेरी तबियत तो ठीक है न बेटे …सिर दर्द हो रहा है क्या , सिर मालिश कर देती हूँ ,परेशान होकर ऐसा कहनेवाली माँ नहीं होती।
एकल परिवार में परिवार की खुशहाली के लिए रोज प्रार्थना करनेवाले माता-पिता नहीं होते।
एकल परिवार में सुबह -शाम पूजा -आरती नहीं होती
एकल परिवार में त्यौहारो पर उत्साह नहीं , औपचारिकता होती है।
एकल परिवार में घरेलू नुस्खे बताकर छोटी-मोटी बीमारी छू-मंतर कर देनेवाले दादा-दादी नहीं होते।
एकल परिवार में बच्चों को परियों की कहानी सुननेवाली दादी और बच्चों के साथ खेलनेवाले दादा नहीं होते।
एकल परिवार में बच्चों की ज़िद पूरी करनेवाले दादा-दादी नहीं होते।
बुजुर्ग माता -पिता के साथ न रहने का खामियाज़ा सबसे ज्यादा छोटे बच्चों को भुगतना पड़ता है। एकल परिवार में रह रहे पति -पत्नी को मनचाहे ढंग से जीने की आज़ादी तो मिल जाती है , किन्तु कई सारी अदृश्य गुलामी में जकड जाते है। पति-पत्नी दोनों नौकरी पेशा हो तो दफ्तर के काम का तनाव और डेली अप -डाउन से सफर की थकान के बाद क्या ऐसे दम्पति बच्चों को समय दे पाते है ?
आर्थिक रूप से सम्पन्न दम्पति बच्चों को हर प्रकार की सुविधा मुहैया कर यह इत्मीनान कर लेते है कि वह अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से निभा रहे है। बाहर से सब ठीक -ठाक नज़र आता है ,लेकिन ऊपर से शांत नज़र आ रहे बच्चे के दिल- दिमाग में क्या हल चल हो रही है ,उसे नहीं देख पाते। न माँ के पास वक़्त है और न पिता के पास। जो दादा-दादी बच्चों को वक़्त दे सकते थे ,वे साथ नहीं। बच्चा अपने मन की बात कहे तो किससे ?स्वाभाविक है बच्चा घर से बाहर ऐसे साथी को तलाशता है, जिसके साथ अपने मन की बात साँझा कर सके। उसे कोई अच्छा -बुरा मिल भी जाता है ,बच्चा उसे ही अपना सबसे नज़दीकी हमदर्द मान लेता है। बच्चे माता -पिता की कमी को घर में यांत्रिक उपकरणों से और बाहर अच्छे-बुरे मित्रो से पूरी करने लगता है। सब कुछ सामान्य लगनेवाली स्थिति जब अपराध के रूप में सामने आती है ,तब माता-पिता को अपनी भूल का एहसास होता है ,लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
संयुक्त परिवार जिस परम्परा ,व्यवहार और आचरण को संस्कार कहता है ,वही परम्परा आचरण और व्यवहार एकल परिवार के लिए अपने आप को पीछे धकेलने वाला लगता है।
संयुक्त परिवार अपने आप में एक पाठ शाला है। ऐसी पाठ – शाला जहाँ कोई किसी को सिखाता नहीं ,बल्कि खुद देख -सुनकर सीख लिया जाता है।
संयुक्त परिवार तब तक संगठित रह सकता है जब तक प्रत्येक सदस्य का हित ,सुख , स्वतन्त्रता और सम्मान सुरक्षित है। संयुक्त परिवार में रहना अच्छा है ,अच्छा नहीं बल्कि बहुत अच्छा है ,यह सच है किन्तु ठीक वैसे ही जैसे सोने की बनी कान की बाली और नाक की नथ स्त्री की शोभा बढ़ाते है,किन्तु जब यही आभूषण कान और नाक काटने लगे तो इन आभूषणों को उतार दिया जाता है। नथ और बाली सोने के बने है ,इसका मतलब यह तो नहीं कि कष्ट या पीड़ा देने पर भी इन्हे पहना जाये। इसी प्रकार परिवार को जोड़े रखने के सारे प्रयासों के उपरांत परिवार में निरंतर होने वाला पारिवारिक कलह जब मानसिक तनाव देने लगे ,तो अलग हो जाना ही बेहतर विकल्प है।
सास नाम की स्त्री का यदि बहू के साथ व्यवहार अच्छा न होगा तो बहू अलग होगी ही ,स्वयं पत्नियां भी परिवार से अलग होकर रहना इसलिए चाहती है क्योकि संयुक्त परिवार में जहाँ चाहे वहां आने – जाने की स्वतंत्रता नहीं होती। अपनी पसंद की वस्तु खरीदने या इच्छानुसार कार्य करने की छूट उन्हें नहीं होती। परिवार का मुखिया अपना प्रभाव दिखाकर अनुचित बात को हठधर्मिता से मनवाने के लिए विवश करे, तो पुत्र भी विद्रोही होकर अलग होने का ही फैसला करेंगे। आर्थिक रूप से कमजोर और कम पढ़े -लिखे सदस्य के साथ भेदभाव किया जाता हो या उसे हीन दृष्टि से देखा जाता हो ,ऐसा सदस्य भी आत्म सम्मान के साथ जीने के लिए अलग होना चाहेगा।
कई परिवारों में देखा गया है कि आर्थिक रूप से सक्षम पुत्र पूरे परिवार को साथ लेकर चलना चाहता है,सहारा बनाना चाहता है , किन्तु ऐसी स्त्रियां अपनी और अपने पति की कमाई पर अपना अधिकार समझती है। पत्नी नाम की स्त्री अपने पति के अधिकारों को किसी के साथ बांटने देना नहीं चाहती।इस बात को लेकर पति -पत्नी के बीच कलह शुरू हो जाता है और इस कलह का समाधान परिवार सेअलग होने की शर्त पर समाप्त होता है। संयुक्त परिवार के मुखिया को चाहिए कि वह खानदान की परम्परा के नाम पर सड़ी -गली मान्यताओं,दकियानूसी विचारों को जबरन नई पीढ़ी पर थोपने का प्रयास न करें। वे बुजुर्ग है ,उनके पास अनुभव है ,इसलिए वे ही सही है ,यह भी सौ फीसदी सही नहीं है। उन्हें भी बदली हुई परिस्तिथियों के साथ समझौता करना पड़ेगा ,तभी संयुक्त परिवार व्यवस्था को बचाया जा सकेगा।
यदि परिवार के सदस्य एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें ,उनकी सुविधा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ध्यान रखे ,छोटे-छोटे अहम का त्याग करने की प्रवृति विकसित करें और कुछ फैसले परिवार के बुजुर्गों के अतिरिक्त अन्य परिजनों को भी करने की स्वतंत्रता मिले तो बहुत हद तक एकल परिवार की संख्या बढ़ने से रोकी जा सकती है।
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