chandra shekhar aazad
chandra shekhar aazad
मै आज़ाद हूँ -chandra shekhar aazad
पुण्यतिथि
२७ फरवरी ,१९३१
चन्द्र शेखर आज़ाद की पुण्य तिथि पर भाव पूरित श्रद्धान्जलि
१५ अगस्त ,१९४७ को देश आजाद हुआ। आजादी का श्रेय किसे दिया जाए ? उन्हें , जिन्हें राष्ट्रवादी कहा जाता था या उन्हें जिन्हें क्रांतिकारी कहा जाता था ? दिमाग वालो को या दिल वालो को ? किसी हिंदी फिल्म के सुपर हिट होने पर सफलता का सारा श्रेय फिल्म के नायक नायिका को मिलता है और थोड़ा बहुत फिल्म के निर्देशक को भी किन्तु फिल्म की कथा ,पटकथा ,संवाद लिखने वाला लेखक ,गीतकर – संगीतकर और तकनीशियन परदे के पीछे गुमनाम ही रह जाते है। आजादी की सफलता की कहानी भी बहुत कुछ सफल हिंदी फिल्म की तरह ही है। गाँधी और नेहरू आजादी की सफलता के नायक बन गए किन्तु वे सब क्रन्तिकारी कही गुमनामी के अँधेरे में खो गए , जबकि देश को आजाद करने में उन क्रांतिकारियों की भी अहम भूमिका थी। अंग्रेजी हुकूमत को डर अहिंसा के पुजारी और शांतिदूत कहलानेवाले गाँधी या नेहरू से नही बल्कि मातृभूमि के लिए सिर पर कफ़न बांधकर और जान हथेली पर लेकर घूमने वाले क्रांतिकारियों से था। ऐसे ही क्रांतिकारियों में एक क्रन्तिकारी की कहानी आपको सुनाता हूँ, जिसने स्वतन्त्रता संग्राम की काकोरी डकैती कांड , साण्डर्स हत्याकांड , असेम्बली बम कांड जैसी प्रमुख घटनाओ में शानदार सह नायक की भूमिका निभाई थी ,लेकिन जिसकी भूमिका किसी नायक से कम नहीं थी । स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास में जिस युवक को सहनायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है ,उसे हम अपनी कहानी का नायक बनायेगे।
यह वह दौर था जब गाँधीजी भारतीय जनता के नायक बने हुए थे। उनकी एक आवाज़ पर जनता मर-मिटने के लिए तैयार हो जाती थी। बात उन दिनों की है जब गाँधी जी का असहयोग आंदोलन चरम पर था – शायद ही कोई भारतीय हो , जो इस आंदोलन से प्रभावित न रहा हो। गांधीजी से प्रभावित १५-१६ का एक युवक आंदोलन में कूद जाता है , जिसे गिरफ्तार कर लिया जाता है और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है। मजिस्ट्रेट द्वारा नाम पूछने पर युवक अपना नाम आजाद बतलाता है । उसे १५ बैत की सजा सुनाई जाती है। हर बेत पर वह किशोर वंदे मातरम , ‘महात्मा गाँधी और भारत माता की जय का उद्घोष करता है। यही युवक हमारी कहानी का नायक है।
बाद में नायक का गांधीजी के प्रति मोह भंग हो जाता है। कारण था -गांधीजी द्वारा चोर-चौरी कांड के बाद असहयोग आंदोलन बंद कर देने की घोषणा। नायक की मुलाकात क्रन्तिकारी प्रणवेश चटर्जी से होती है। प्रणवेश चटर्जी नायक का परिचय हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल से कराता है। दल में शामिल होने के लिए नायक अग्नि को साक्षी मानकर अपना सबकुछ समर्पण कर देने की प्रतिज्ञा करता है। दल में शामिल होने के बाद नायक गांधीजी के असहयोग वापस लेने से नाराज़ विद्रोही क्रन्तिकारी राम कृष्ण को दल में शामिल करने का कार्य कर अपने बुद्धि चातुर्य का परिचय देता है।
नायक और उसके साथियों को अपनी योजनओं को देने के धन की ज़रुरत थी। इस पर नायक कहता है –
टूटी हुई बोतल है ,टूटा हुआ पैमाना
सरकार तुझे दिखा देंगे ठाठ फकीराना
क्रांतिकारी दल अपनी योजनाओ को अंजाम तक पहुँचाने के लिए धन की कमी महसूस करता है ,जिसके लिए दल के लोग डकैती डालकर धन एकत्र करने की योजना बनाते है। इस योजना में नायक के साथ थे -राम प्रसाद बिस्मिल ,राजेन्द्र लाहिड़ी ,रोशन सिंह ,शचीन्द्र नाथ बक्शी,राम कृष्ण खत्री ,मन्मथनाथ गुप्ता और अशफाकउल्ला खाँ। पहले तो अमीरों को लूटने की योजना बनाई जाती है किन्तु इससे दल की प्रतिष्ठा पर विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका से सरकारी धन को लूटने की योजना पर सहमति बनती है। इसी योजना से जन्मा था काकोरी डकैती कांड। इस घटना के बाद नायक ब्रिटिश हुकूमत डकैती में शामिल क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने में जुट जाती है। नायक गिरफ़्तारी से बचने के लिए झाँसी पहुँच जाता है जहाँ वह कुछ दिन एक मंदिर में साधु वेश में रहता है ,उसके बाद कानपुर आ जाता है और एक अन्य क्रांतिकारी गणेश विद्यार्थी से मिलता है। यही उसकी मुलाकात होती है -भगत सिंह से। नायक भगत सिंह के साथ मिलकर काकोरी डकैती कांड में गिरफ्तार साथियों को छुड़ाने की योजना बनाता है ,किन्तु योजना असफल हो जाती है। काकोरी डकैती कांड के साथी राम प्रसाद बिस्मिल ,राजेन्द्र लाहिड़ी ,रोशन सिंह और अशफाकउल्ला खां को फाँसी दे दी जाती है। इसी बीच हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट आर्मी हो जाता है।
उधर लाल लाजपत राय साइमन कमीशन के विरोध में निकाले गए जुलूस में पुलिस मुठभेड़ में बुरी तरह ज़ख़्मी हो जाते है और उसके कुछ दिन बाद ही लाला लाजपत राय की मौत हो जाती है। लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए नायक अपने साथी भगत सिंह ,राजगुरु और जय गोपाल के साथ मिलकर अंग्रेज अफसर साण्डर्स की हत्या कर देता है।
अहिंसा के पुजारियोंऔर शांतिदूतों को अंग्रेजी सरकार विषहीन साँप की तरह समझती थी,अतएवं अंग्रेजी सरकार उनकी ओर से निश्चिन्त थी। शांति और विनम्रता की याचना शायद अंग्रेजों को सुनाई नहीं दे रही थी। अंग्रेजों के कान खोलने के लिए नायक और उसके साथियों द्वारा असेम्बली पर बम धमाका करने की योजना बनाई जाती है किंतु किन्ही कारणों से नायक को इस जोखिम से अलग रखा जाता है। असेम्बली में बम फेंकने की योजना को अंजाम दिया भगत और बटुकेश्वर दत्त ने। भगतसिंह और और उसके साथियों को गिरफ्तार कर उन पर मुक़दमा चलाया गया। भगत सिंह ,राजगुरु और सुख देव को फांसी की सजा सुनाई गई। अंग्रेजों पर गांधीजी का प्रभाव देखते हुए भगत सिंह और साथियों को फाँसी की सजा से बचाने के लिए गांधीजी से गुहार की गयी किन्तु अहिंसा के पुजारी कहलानेवाले गांधीजी को भारत माता के देश भक्त पुत्रों से ज्यादा अपने आदर्श और सिंद्धान्त प्रिय थे। इस मामले में हस्तक्षेप करना उन्हें अपने आदर्श और सिंद्धान्त के खिलाफ लगा और उन्होंने ने किसी भी प्रकार की सहायता करने से इंकार कर दिया। अहिंसा और शांति का राग गुनगुनाने वालों का क्रांतिकारियों के प्रति उपेक्षित व्यवहार को देखकर कहा कहा होगा –
शहीदों की चिताओं पर पड़ेंगे खाक के ढेले
वतन पर मिटानेवालों कायही निशा होगा
उधर साण्डर्स हत्या कांड के लिए नायक को ज़िम्मेदार मान रही अंग्रेजी सरकार नायक को जासूसी कुत्तों की तरह खोज रही थी,लेकिन नायक ने भी अंग्रेजों के हाथ न लगने की कसम खाई थी । असेंबली बम कांड के बाद नायक दल लगभग टूट सा गया था। नायक इलाहबाद आता है और नेहरू जी से मिलता है किन्तु अहिंसा और शांति के पुजारी के इस अनुयायी ने भी कोई उदारता नहीं दिखलाई। क्रोध से आग बगूला हुआ नायक अल्फ्रेड पार्क आता है। तभी किसी मुखबिर के द्वारा पुलिस को नायक के अल्फ्रेड पार्क में होने की खबर दे दी जाती है। नायक के अल्फ्रेड पार्क में होने की खबर पाकर पुलिस अल्फ्रेड पार्क को चारों ओर से घेरकर फायरिंग करती है ,नायक अकेला मुकाबला करता है। इस मुठभेड़ में नायक पुलिस की गोलियों से ज़ख़्मी हो जाता है ,लेकिन खुद को अंग्रेजों के हाथ न लगने देने की सौगंध पूरी करने के लिए आखरी गोली खुद को मारकर इच्छा मृत्यु को प्राप्त कर लेता है। उसने जैसा कहा था -कर दिखाया।वह कहा करता था –
दुश्मन की गोलियों का सामना हम करेंगे
आज़ाद ही रहे है ,आज़ाद ही मरेंगे
इतिहास गवाह है इस बात का कि देश को जितना नुकसान दुश्मनों ने नहीं पहुचाया ,उससे ज्यादा घर के गद्दारों ने पहुँचाया। कहा है न कि –कुल्हाड़ी में अगर हत्था ना होता तो लकड़ी के कटाने का रस्ता न होता।
जो कहानी आप पढ़ रहे थे ,वह किसी रील लाइफ की कहानी नहीं बल्कि रियल लाइफ की कहानी के नायक की थी और उस रियल लाइफ के नायक का नाम था -चन्द्र शेखर आज़ाद ,जो आज़ाद जिया और आज़ाद मरा ।
चन्द्र शेखर आज़ाद में वे सारी खूबियाँ थी ,जो उसे नायक की पहचान देती है। खान-पान और विचारों की सात्विकता के कारण उनके साथी उन्हें पंडित जी कहकर संबोधित करते थे। वे रूस की बोल्वेशिक क्रंति से अत्यधिक प्रभावित थे।
आज़ाद ने अपना सब कुछ मातृ भूमि को समर्पित कर दिया था,यहाँ तक कि माता-पिता के प्रति अपने पुत्र दायित्व को भी । एक बार जब भगत सिंह और साथियों ने उनके परिवार को आर्थिक सहायता देने की बात कही तो आज़ाद ने कहा कि मुझे निष्काम भाव से कर्म करना है। न मुझे दौलत की छह है और न शौहरत की।
कहा जाता है कि इरादों के प्रति सख्त आज़ाद का ह्रदय भीतर से उतना ही कोमल था। फरारी के दिनों में आज़ाद ने जिस घर में शरण ली थी ,उस घर में एक वृद्धा अपनी युवा बेटी के साथ रहती थी । जब वतधह ने आज़ाद को बतलाया कि धनाभाव के कारण वह अपनी बेटी का विवाह नहीं कर पा रही है। उन्होंने उस युवती को बहिन मानते हुए आर्थिक सहायता की।
आज़ाद की भावना शब्द बनकर इस रूप में व्यक्त हुई –
माँ हम विदा हो जाते है ,विजय केतु फहराने आज
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर माँ ,निज शीश कटाने आज
मलिन वेश में ये आंसू कैसे ,कम्पित होता है क्यों गात
वीर प्रसूता क्यों रोती है ,जब तक है खंजर हमारे हाथ
धरा शीघ्र ही धसक जाएगी ,टूट जायेंगे ,पर न झुकेंगे तार
विश्व कम्पित हो जायेगा ,होगी जब माँ रण हुँकार
नृत्य करेंगी प्रांगण में फिर-फिर जंग हमारी आज
अरि शीश गिराकर कहेंगे ,भारत भूमि तुम्हारी आज
जब शमशीर कातिल लेगा अपने हाथों में
हज़ारों सिर पुकार उठेंगे ,कहो कितने की है दरकार
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