पशु -पक्षियों की तुलना में मनुष्य ही श्रेष्ठ है किन्तु पशु -पक्षियों में भी कुछ विशेषताए होती है ,जिनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है ,जैसे – करणीय कार्य छोटा हो बड़ा ,उस कार्य में अपनी पूरी क्षमता लगा दो ,यह सीख शेर से ली जा सकती है। कार्य सिद्धि के लिए एकाग्रता का होना आवश्यक है। सब ओर से ध्यान हटा कर पूरा ध्यान लक्ष्य पर केन्द्रित कर दो ,यह गुण बगुले से ग्रहण किया जा सकता है। समय पर जागना ,संघर्ष के लिए तत्पर रहना ,बंधु को उसका उचित हिस्सा देना ,स्वयं के प्रयत्न से भोग करना ये सारे गुण मुर्गे से सीखे जा सकते है। धैर्य रखना ,आवश्यकता की वस्तु का संग्रह करना ,सदैव चौकस रहना ,किसी पर अति विश्वास न करना ये गुण कौए से सीख सकते है।
अधिक की आवश्यकता होने पर भी थोड़े से संतुष्ट होना ,गहरी नींद ,तुरंत जागना ,स्वामिभक्ति और साहस ये गुण कुत्ते से सीखे जा सकते है। थक जाने पर भी बोझ वहन करना ,सर्दी-गर्मी की उपेक्षा करना ,सदैव संतुष्ट रहना ये गुण गधे से सीख सकते है।
शास्त्रों को पढ़कर न सही सुनकर भी धर्म के मर्म को जाना जा सकता है। धर्म के मर्म को जान लेने से दुर्बुद्धि का नाश होता है और ज्ञान की प्राप्ति होती है तथा ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है। पक्षियों में कौआ ,पशुओं में कुत्ता और मनुष्यों में क्रुद्ध स्वाभाव वाला चाण्डाल के समतुल्य होता है किन्तु इनमे भी सबसे बड़ा चांडाल दूसरों की निंदा करनेवाला होता होता है । कांसे का बर्तन राख से ,ताँबे का बर्तन खटाई से स्त्री रजस्वला से और नदी तीव्र प्रवाह से पवित्र होती है। राजा ,ब्राह्मण और योगी भ्रमण से पूजित होते है किन्तु भ्रमण से स्त्री भ्रष्ट होती है। पैसा पास हो तो गैर भी बंधु -बांधव ,मित्र बन जायेगे ,पैसा पास हो तो लोग श्रेष्ट पुरुष और विद्वान् के समान आदर देंगे। ऐसा दुनिया का स्वभाव है।
मनुष्य की जैसी बुद्धि होगी वह वैसा ही कार्य चुनेगा ,जैसा वह कार्य करेगा उसे वैसे ही लोग मिल जायेगे। काल सभी का नाश करता है। सबका नाश हो जाने पर भी काल जाग्रत रहता है। काल को कोई टाल नहीं सकता। जैसे जन्मांध को कुछ दिखाई नहीं देता ,वैसे ही कामासक्त , व्यसनी और स्वार्थ में अंधे को कुछ दिखाई नहीं देता। जीव स्वयं कर्म करता है और कर्मानुसार फल पाता है। मनुष्य कर्म के अनुसार ही जन्म-मरण के चक्र में घूमता है और कर्म से ही मोक्ष पाता है। प्रजा के पाप को शासक को और शासक के पाप को सज्जनों को भोगना पड़ता है ,इसी तरह स्त्री के पाप कर्म को उसके पति को और शिष्य के पाप को गुरु को भोगना पड़ता है। ऋणी पिता और व्यभिचारिणी माता अपनी संतान के लिए शत्रु होते है ,पत्नी की अत्यधिक सुन्दरता पति के लिए और मूर्ख पुत्र पिता के लिए शत्रु तुल्य होते है। लोभी वृति के मनुष्य को धन से ,अहंकारी को विनम्रता से ,मूर्ख को उसकी इच्छानुसार कार्य करके वश में किया जा सकता है किन्तु विद्वजन को सत्य से ही वश में किया जा सकता है।
बुरे शासक से राज्य का ना होना ज्यादा अच्छा है ,बुरे मित्र से मित्र का ना होना है ,निंदित कृत्य करनेवाले शिष्य से अच्छा है कि कोई शिष्य ही ना हो और कुभार्या से भार्या का ना होना ही अच्छा है।
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