उस मनुष्य को न ज्ञान की आवश्यकता है और न ,मोक्ष प्राप्ति कामना। न भस्म लेप करने की आवश्यकता है और न जटा धारण करने की ,जिसका ह्रदय प्राणिमात्र के लिए दया भाव से भरा हुआ है ,दूसरों को कष्ट में देखकर जिसका ह्रदय द्रवित हो जाता है ,ऐसे मनुष्यों के समस्त कर्मों का फल दया मात्र से ही प्राप्त हो जाता है।
संसार में अनेक बंधन है। हर कोई इन बंधनों से छुटकारा पाना चाहता है ,किन्तु कुछ बंधन ऐसे भी है ,जिनसे मनुष्य बंधे रहना चाहता है। यह बंधन है -प्रेम का। प्रेम के इस बंधन में बंधे रहने में ही आनंद है। इसीलिए तो कठोर लकड़ी का छेदन कर सकने का सामर्थ्य रखते हुए भी भौरा कमल की कोमल पंखुड़ियों का क़ैदी बना रहना चाहता है।
चन्दन वृक्ष को काट दिए जाने पर भी वह अपनी सुगंध का परित्याग नहीं करता ,हाथी बूढा हो जाने पर भी अपनी विलासता का परित्याग नहीं करता ,गन्ना चरखी में पेले जाने पर भी अपनी मिठास का गुण नहीं त्यागता ,इसी प्रकार सज्जन अपनी निर्धनता में भी अपने गुणों का परित्याग नहीं करते।
जिस शिष्य ने अपने गुरु से एकाक्षर का रहस्य जान लिया ,ऐसा शिष्य कभी भी अपने गुरु ऋण से उऋण नहीँ हो सकता। क्योकि गुरु के इस दुर्लभ मंत्र का मूल्य चुकाने के लिए पृथ्वी पर इस कोई पदार्थ है ही नहीं।
भौरा जब कमलिनी के पत्तों के बीच होता है ,तब तक कमलिनी के फूल का रसपान का आनंद प्राप्त करता है किन्तु भाग्यवश अन्यत्र जाने पर तोरैया /करील के फूल को ही बहुत समझने लगता है अर्ताथ अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र जानेपर परिस्थियों के साथ समझौता करना ही पड़ता है।
दुष्ट काँटे के समान है , इससे बचने का एक ही विकल्प है , मुँह उठाने से पहले ही उसका मुँह कुचल दिया जाए।
लक्ष्मी उसका कभी वरण कभी नहीँ करेगी , जो मलिन वस्त्र धारण करता हो , जिसका मुख दुर्गन्धित हो , जो आवश्यकता से अधिक आहार लेता है ,कटु वाणी का प्रयोग करता हो , जो सूर्योदय और सूर्यास्त के समय सोता हो , चाहे वह विष्णु हो क्यों न हो।
धन ही सब कुछ नहीँ है , यह सत्य है किन्तु अपेक्षित धन तो होना ही चाहिए क्योकि स्त्री ,बंधु – बांधव , मित्र ,सेवक ये सब तब तक ही साथ रहते है , जब तक धन पास में हो , धन चला जाए , तो ये भी चले जाते है।
अनीति से उपार्जित धन का सुख अधिक दिनों तक नहीं रहता , कालांतर में भोगे गए सुख से कही ज्यादा कष्ट भोगने।
परिस्थिति वश ऐसा हो सकता है कि मोती पैरो की ठोकरे खाने लगे और काँच सिर पर सुशोभित हो जाए , लेकिन जब इनका विक्रय करने जाए , तो पारखी मोती को मोती , और काँच को काँच के मूल्य से ही आँकता है। यही बात मनुष्य पर भी प्रभावी होती है।
शास्त्रो में अथाह ज्ञान है किन्तु मनुष्य के पास समय बहुत कम है और विघ्न ज्यादा है अतः मनुष्य को चाहिए कि समग्र न सही सार तत्व तो ग्रहण कर ले , जैसे हंस जल से दूध ग्रहण कर लेता है।
उसे चाण्डाल ही समझना चाहिए जो निराहार और थके हुए पथिक अथवा अथिति को भोजन कराए बिना स्वयं भोजन कर लेता है।
जो शास्त्रो का ज्ञान प्राप्त करके भी आत्म – तत्व को नही पहचानता , वह उस कलछी के समान है जो भोजन के बर्तन के बीच रहकर भी स्वादिष्ट भोजन का स्वाद नही ले पाती।
चंद्रमा जो अमृतमय है , औषधियों का अधिपति है , शोभा – युक्त है ,किन्तु सूर्य के घर मैं जाकर निस्तेज हो जाता है इस प्रकार मनुष्य दूसरे के घर में जाकर मनुष्य
अपना सम्मान खो देता है।
भोजन वह सार्थक है जो ब्राह्म्ण को भोजन करने के बाद किया जाये , प्रेम वह सार्थक है जो अपनों से ज्यादा परायो से किया जाये , बुद्धि की सार्थकता दुष्कर्म से बचे रहने में है , और धर्म की सार्थकता तब है जब अहंकार न हो।
ब्राह्मण संसार सागर में नाव तुल्य है , इसकी गति विपरीत है। इसके नीचे रहने वाले सब तर जाते है और ऊपर रहने वाले डूब जाते है , अर्थात जो ब्राह्मण के प्रति श्रद्धा का भाव रखते है उनका कल्याण हो जाता है , और जो ब्राह्मण का अपमान करते है , अहंकार रखते उनका उनका पतन हो जाता है।
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