चाणक्य नीति -१३ लोक -परलोक में दुष्ट कर्म करते हुए हज़ारो वर्ष जीने से सद्कर्म करते हुए एक मुहर्त का जीना कहीँ ज्यादा अच्छा है।
भूत का शोक और भविष्य की चिंता करने से कही ज्यादा अच्छा है वर्तमान को भरपूर जीना। देवता , सत्पुरुष और पिता प्रकृति अर्थात स्वाभाव से संतुष्ठ होते है ,बंधु -बांधव खान-पान से संतुष्ठ होते है किन्तु विद्वजन मीठे वचनों से ही संतुष्ठ हो जाते है।
महात्माओं का चरित्र विचित्र होता है ,धन को तृण तुल्य समझते है और यदि धन उनके पास आ जाये तो तिनके तुल्य धन के भार से झुक जाते है अर्थात और अधिक विन्रम हो जाते है। जिसको जिससे मोह होता है , उसी को भय होता है। मोह ही दुःख का कारण है और सब दुःख का कारण मोह ही है। मोह का त्याग कर दिया जाए ,तो सुख ही सुख है।
वह मनुष्य जो आने वाले दुःख का सामना करने को पहले से ही तत्पर हो जाता है और जो दुःख आने पर दुःख के निस्तारण का उपाय सोच लेता है , दोनों प्रकार के लोग सुखी रहते है लेकिन जो यह सोचकर प्रयत्न नही करता कि जो भाग्य मे लिखा है वह तो भोगना ही है , ऐसे मनुष्य कष्ट पाते है।
धर्म रहित मनुष्य जीवित रहकर भी मृत तुल्य है और धर्मपरायण मरकर भी चिरंजीवी ही है , अर्थात देह से भले ही जीवित न रहे किन्तु सत्कर्म के लिए उसका नाम अवश्य अमर रहता है।
नीच स्वाभाव के लोग अच्छे मनुष्यो की कीर्ति से ईर्ष्या करते है ,ईर्ष्या की अग्नि में जलकर भी जब उन्हें अच्छे लोगो की तरह कीर्ति नहीं मिलती तो नीच स्वाभाव के लोग बाद में अच्छे लोगों की निंदा करने लगते है। विषय में आसक्त मन ही बंधन का कारण है ,इस बंधन से मुक्ति का उपाय है, विषय से मुक्त होना। मन से ही मनुष्य बंधन में बंधता है और मन से ही बंधन से मुक्त होता है। मन ही बंधन और मुक्ति का कारण है।
परमात्म का ज्ञान हो जाने पर देह का अभिमान नष्ट हो जाता है। अभिमान का नाश हो जाने पर जहाँ -जहाँ मन जाता है ,वहाँ -वहाँ समाधि ही है अर्थात जिस दिन इस नित्य शाश्वत सत्य का बोध हो जाता है कि देह नाशवान है और आत्मा अविनाशी ,तो समझो यह समाधि की अवस्था है।
समस्त कामनाओं का पूर्ण होना विधि के अधीन है ,इसलिए पूरे प्रयत्न के उपरांत जितना मिल रहा है ,उसी में संतुष्ठ हो जाना चाहिए। यही सुखी रहने का उपाय है।
बिछड़ा हुआ बछड़ा जिस प्रकार सहस्त्रों गायों के मध्य भी अपनी ही माँ के पास पहुँच जाता है ,उसी तरह कर्ता के कर्मों का फल भी उस तक पहुँच जाता है। जो लक्ष्यहीन होकर जीता है ,वह ना समाज में रहकर सुख पाता है और ना जंगल में रहकर सुख पाता है। जैसे धरती का खनन करने पर जल प्राप्त होता है ,वैसे ही गुरु सेवा का फल शिष्य को प्राप्त होता है।
यद्यपि फल पुरुष के कर्म के अधीन रहता है और बुद्धि कर्म के अनुसार चलती है ,फिर भी विवेकी मनुष्य सोच -विचार कर ही कार्य करते है। जिस मनुष्य ने धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष में से किसी को भी अपने पुरुषार्थ से नहीं साधा तो ऐसे मनुष्य का मानव जीवन व्यर्थ हो गया समझा जाना चाहिए
स्त्री ,भोजन और धन इन तीनों में जितना मिल जाये ,उतने से ही तृप्त हो जाना चाहिए किन्तु विद्या प्राप्ति ,तप और दान इन तीनों से कभी संतुष्ठ नहीं होना चाहिए।
जो एकाक्षर मन्त्र प्रदान करने वाले गुरु की वन्दना नहीं करता ,वह कुत्ते की सौ योनियाँ भोग भी चांडाल कुल में में जन्म लेता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार युगांत में सुमेरु पर्वत भी अस्थिर हो जाता है ,और कल्प के अंत में समुंद्र अपनी सीमा लांघने लगता है किन्तु सत्य व्रती अपने संकल्प से लेशमात्र भी विचलित नहीं होते।
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