आलोकवृत्त खण्डकाव्य का सारांश
आलोक वृत्त -गुलाब खण्डेलवाल
प्रथम सर्ग –
प्रथम सर्ग में भारत के अतीत तत्कालीन दासता का वर्णन हुआ है। भारत वह देश है जो वेदों की भूमि रहा है,जिसने संसार को सर्वप्रथम ज्ञान की ज्योति दी थी , किन्तु हम भारतवासी यह भूल गये कि हमारे देश की संस्कृति कितनी गौरव और महिमामयी रही थी .इसी भूल के कारण हम भारतवासी सैकड़ों वर्ष तक दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहे। सन् 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध पहली क्रांति हुई ,तत्पश्चात पश्चात् गुजरात के पोरबन्दर की भूमि पर गाँधी का अभ्युदय जुआ जिसने दासता की जंजीरों में जकडे हुए भारतवासियों को मुक्त करवाया।
द्वितीय सर्ग –
द्वितीय सर्ग में गाँधी जी के जीवन के प्रारंभिक जीवन का वर्णन हुआ है । वे बचपन में गांधीजी कुसंगति में फँस गये थे किन्तु शीघ्र उन्हें अपनी भूल का अनुभव हो गया और अपने पिता के समक्ष अपनी भूल का पश्चात्ताप करते हुए दुर्गुणों को छोड़ने की दृढ प्रतिज्ञा की । कस्तूरबा के साथ गाँधी जी का विवाह हुआ। विवाह के कुछ समय पश्चात् गांधीजी के पिताजी का निधन हो गया। गंध्जी जब उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड जा रहे थे उनकी माँ ने विदेश में रहकर मांस-मदिरा का सेवन न करने की शपथ दिलाई ।
इंग्लैण्ड में रहते हुए माँ के संसकारों का दृढ़ता से पालन किया । एक बार ऐसा क्षण भी आया जब सात्त्विकता और पवित्रता खो देने की स्थति बन गई ,किन्तु गांधीजी ने अपने चरित्र की दृढ़ता से स्वयं को अपवित्र होने से बचा लिया। गांधीजी बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। गांधीजी बैरिस्टर बनकर भारत लौटेने के पश्चात् माता का देहांत हो गया ।
तृतीय सर्ग –
तृतीय सर्ग में गाँधी जी के अफ्रीका प्रवास का वर्णन हुआ है। एक बार ट्रेन में सफ़र करते हुए एक अंग्रेज ने उन्हें रंग भेद के कारण अपमानित करके ट्रेन से उतार दिया। रंगभेद की नीति से गाँधी जी के हृदय को गहरा आघात लगा। गांधीजी प्रवासी भारतीयों के साथ होनेवाले दुर्व्यवहार और की दुर्दशा देखकर व्यथित हो उठे। अंग्रेजों की रंगभेद नीति के विरुद्ध आवाज़ उठने के लिए असत्य और हिंसा के सिद्धांत का प्रयोग किया । गाँधी जी ने सत्य और अहिंसा का ढाल बनाकर अन्याय के प्रतिकार का संकल्प लिया-सत्य और अहिंसा के अपने इस सिद्धांत को उन्होंने सत्याग्रह का नाम दिया। गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में अन्याय के विरुद्ध संघर्ष सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया।
चतुर्थ सर्ग –
चतुर्थ सर्ग में गाँधी जी के दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आने के पश्चात् भारत की राजनीति में प्रवेश कर राजनितिक गतिविधियों का वर्णन हुआ हैं। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर गाँधी जी ने भारतीयों में स्वतन्त्रता की अलख जगाने का यज्ञ प्रारंभ किया । साबरमती नदी के तट पर अपना आश्रम बनाया। डॉ० राजेन्द्र प्रसाद , जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल , विनोबा भावे ,राजगोपालाचारी, सरोजिनी नायडू ,दीनबन्धु, मदनमोहन मालवीय सुभाषचन्द्र बोस जैसे अनेकानेक देशभक्त गाँधी जी के अनुयायी होते चले गये । ब्रिटिश हुकूमत देश की जनता पर जुल्म और अत्याचार चरम पर था । बिहार में नील की खेती करनेवाले किसानों पर अत्याचार हो रहा था , गाँधी जी ने चम्पारन की यात्रा कर नील की खेती को लेकर आन्दोलन किया। एक अंग्रेज अफसर ने गांधीजी की हत्या का करने के लिए अपनी पत्नी के हाथों गाँधी जी को विष देने तक का प्रयास किया गया ,किन्तु गाँधी जी के दर्शन कर अंग्रेज अफसर की पत्नी का हृदय-परिवर्तन हो गया। इसी सर्ग में खेड़ा-सत्याग्रह और सत्याग्रह में सरदार वल्लभभाई पटेल की भूमिका का भी वर्णन किया है।
पंचम सर्ग –
इस सर्ग में कवि ने वर्णित किया है कि किस प्रकार गाँधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन पूरे देश में फैलता चला गया । जैसे –जैसे गाँधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन तीव्र हो रहा था ,वैसे-वैसे अंग्रेजों की दमन-नीति भी बढ़ती जा रही थी । नागपुर में कांग्रेस-अधिवेशन हुआ , गाँधी जी के नेतृत्व में स्वतन्त्रता-सेनानी नागपुर पहुँचे । नागपुर के कांग्रेस-अधिवेशन में गाँधी जी के ओजस्वी भाषण ने देशवासियों की शिराओं में नई चेतना संचारित किन्तु अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति ने हिन्दुओं-मुसलमानों में साम्प्रदायिक दंगे करवा दिये। गाँधी जी को गिरफ्तारकर बन्दीगृह में डाल दिया गया,इसके सत्याग्रह स्थगित कर दिया। बन्दीगृह से छूटने के बाद उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता, शराब-मुक्ति , हरिजनोत्थान, खादी-प्रचार जैसे रचनात्मक कार्य प्रारंभ किये । हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए गाँधी जी ने इक्कीस दिनों का अनशन किया । लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी गई ।
षष्ठ सर्ग
इस सर्ग में गाँधी जी के नमक-सत्याग्रह का वर्णन हुआ है। गाँधी जी 24 दिन तक पैदल कर समुद्र किनारे डाण्डी पहुंचे । नमक आन्दोलन के दौरान हजारों आन्दोलनकारियों को बन्दी बना लिया गया। ब्रिटिश हुकूमत की ओर से लन्दन में गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया , लन्दन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में गाँधी जी को भी शामिल किया गया। इस सम्मलेन के बाद के सन् 1937 ई० में प्रान्तीय स्वराज्य की स्थापना की गई ।
सप्तम सर्ग –
द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ हो चुका था । ब्रिटिश हुकूमत ब्रिटिश सेना को मज़बूत बनाने के भारतीयों से इस युद्ध में सहयोग लेना चाहती किन्तु इसके बदले में भारतीयों को पूर्ण अधिकार देना नहीं चाहती थी। क्रिप्स मिशन के विफल होने के बाद 1942 ई० में गाँधी जी ने अंग्रेजो भारत छोड़ो का नारा दिया। गाँधी जी द्वारा दिए गए अंग्रेजो भारत छोड़ो के नारे ने पूरे देश में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला भड़का दी। बम्बई में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ ।बम्बई अधिवेशन के बाद गाँधी जी सहित भारतीय नेताओं को बंदी बना लिया गया ।
इस सर्ग में कवि ने गाँधी जी एवं कस्तूरबा के बीच हुई बातचीत के माध्यम से गाँधी जी के मानवीय स्वभाव और कस्तूरबा की सेवा-भावना मूक त्याग और बलिदान का भी वर्णन किया है।
अष्टम सर्ग –
इस सर्ग में कवि ने स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् देशभर में हुए हिन्दू-मुस्लिम-साम्प्रदायिक दंगे का वर्णन किया है । देशभर में हुए हिन्दू-मुस्लिम-साम्प्रदायिक दंगों से गाँधी जी का ह्रदय आहत होता है । गांधीजी ईश्वर से देश में फैली दंगे की आग बुझाने, देश को सत्पथ दिखाने की प्रार्थना करते है,इसी प्रार्थना के साथ खण्डकाव्य समाप्त हो जाता है।
आलोकवृत्त खण्डकाव्य के आधार पर गाँधी जी के चरित्र चित्रण –
देशप्रेम से अत-प्रोत – देशप्रेम गांधीजी की नस –नस में समाया हुआ था । देश प्रेम के कारण ही अनेक बार जेल गए ,अंग्रेजों के अत्याचार सहे ।उन्होंने अपना सर्वस्व देश के लिए न्यौछावर कर दिया।
सत्य और अहिंसा के पुजारी -गाँधी जी देश की स्वतन्त्रता के लिए उन्होंने सत्य और अहिंसा के सिद्धांत को ही अपना अस्त्र-शस्त्र बनाया हैं। समग्र स्वतन्त्रता संग्राम उन्होंने असत्य और हिंसा पर लड़ा । वे हिंसा को पशुबल मानते थे । गाँधी जीका मानना था कि आत्मा की शक्ति से बड़े से बड़े शत्रु को भी पराजित किया जा सकता है ।
ईश्वर की सत्ता में अटूट विश्वास – गाँधी जी यद्यपि पुरुषार्थ में विश्वास रखते थे किन्तु ईश्वर की सत्ता में भी उनका अटूट विश्वास था । उनका मानना था कि कर्म का साधन पवित्र होना चाहिए और कर्म का परिणाम ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। ईश्वरीय आस्था केकारण ही वह अपना प्रत्येक कार्य ईश्वर को साक्षी मानकर करते थे ।
स्वतन्त्रता ही जीवन का ध्येय-– स्वतन्त्रता ही गांधीजी के जीवन का ध्येय था । वे भारत की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार थे । परतन्त्रता की बेड़ियाँ काटने के लिए देशवासियों में भी यही भाव भरना चाहते थे ।
मानवतावादी दृष्टिकोण – गाँधी जी मानव-मानव में अन्तर न कर वे सबके लिए समानता के सिद्धान्त में विश्वास करते थे । उन्होंने ऊँच-नीच जाति-पाँति और रंग-भेद का पुरजोर विरोध किया। जाति के आधार भेदभाव देखकर उन्हें बहुत दुख होता था, अछूत उद्धार के लिए वे भीं सतत प्रयत्नशील रहे ।
एकतत्वता का भाव – गांधीजी सभी को सुखी व समृद्ध देखना चाहते थे, इसी भाव के कारण गांधीजी विश्वबन्धुत्व और ‘वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का समर्थन करते थे। गांधीजी ने समस्त भारतवासियों को एकता के सूत्र में बाँधने प्रयास किया । गाँधी जी राष्ट्रीय एकता के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता को आवश्यक मानते थे ,इसीलिए हिन्दू-मुसलमानों को भाई-भाई की तरह रहने की प्रेरणा देते थे ।
सकारात्मक सोच और आत्मविश्वासी- सकारात्मक सोच और आत्मविश्वासी होना गाँधी जी के व्यक्तित्व को और अधिक प्रखर बनता है । गांधीजी ने अपने जीवन के सभी कार्य और निर्णय सकारात्मक सोच और आत्मविश्वास के साथ किये ।
स्वयं के दोषों को स्वीकार करने का साहस – गाँधी जी ने स्पष्टतासे स्वीकार किया है कि आरम्भिक जीवन में उन में भी सामान्य मनुष्य की भाँति मानवीय दुर्बलताएँ थी। उन्होंने मांस-भक्षण ,ध्रूमपान जैसे त्याज्य कार्य किया था ।
निष्कर्ष रूप में कह सकते है कि एक महान व्यक्तित्व होक लिए जिन गुणों की अपेक्षा की जाती है , गाँधीजी उन सभी मानवोचित गुणों से परिपूर्ण थे।
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