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October 9, 2022
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लक्ष्मण मूर्छा और राम विलाप, तुलसीदास

गोस्वामी तुलसीदास

(क) कवितावली

1.

 किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी,भाट,

चाकर, चपला नट, चोर, चार, चेटकी।

पेटको पढ़त, गुन गुढ़त, चढ़त गिरी,

 अटत गहन-गन अहन अखेटकी।।

ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,

पेट ही की पचित, बोचत बेटा-बेटकी।।

‘तुलसी ‘ बुझाई एक राम घनस्याम ही तें,

आग बड़वागितें बड़ी हैं आग पेटकी।।

भावार्थ – तुलसीदास कहते हैं कि संसार के अधिकांश लोग पेट भरने के लिए ही संघर्ष कर रहे है .मजदूर मज़दूरी करता है  पेट के लिए , किसान खेती करता है  , पेट के लिए व्यापारी व्यापार  करता है  , पेट के लिए भिखारी भीख मांगता है , पेट के लिए  चारणनाच-गान करतेहै   , पेट के लिए नौकर नौकरी करता है , पेट के लिए चंचल नट रस्सी पर खेल दिखाते है , पेट के लिए चोरचोरी करता है , पेट के लिए दूत सन्देश वाहक का कार्य करता है , पेट के लिए बाजीगर बाजीगरी दिखता है पेट के लिए  । कोई विद्या अध्ययन भी पेट भरने के लिए किया जाता है , नया कौशल भी पेट के लिए ही  सीखता है,  पेट के लिए ही कोई पर्वत पर चढ़ता है तो कोई दिन भर गहन जंगल में शिकार की खोज में भटकता है। पेट की खातिर  लोग धर्मका मार्ग -अधर्म  करते है । पेट के लिए माता-पिता अपनी संतान तक को बेचने के लिए विवश हो जाते है । किन्तु जो लोग प्रभु श्री राम की भक्ति करते है उन्हें पेट भरने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता .तुलसीदास कहते हैं कि मेरे प्रभु राम बादल के समान  कृपा की वर्षा करने वाले है . पेट की आग तो समुद्र की आग से भी भयंकर  होती है। पेट की इस  आग को भगवान राम रूपी बादल अपनी कृपा रुपी वर्षा से ही  बुझ सकती है।

2.

खेते न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,

बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी

जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,

कहैं एक एकन सों ‘ कहाँ जाई, का करी ?’

बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,

साँकरे स सबैं पै, राम ! रावरें कृपा करी।

दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !

दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।

भावार्थ – उक्त काव्यांश में कवि ने अपने समय की सामाजिक आर्थिक स्थिति का चित्रण किया है .अनुमान के अनुसार दुर्भिश के कारण खेती नष्ट हो गई हो गई होगी .जिसके कारण स्थिति यह हो गई कि  किसान के पास खेती का अवसर नहीं रहा , भिखारी को  भीख  नहीं मिलती, भेंट देने के लिए कुछ न बचा , व्यापारी के पास  व्यापार के अवसर नहीं रहे ,सेवकों के पास सेवा का अवसर नहीं रहा सब  तरफ बेरोजगारी की स्थिति उत्पन्न हो गई । आजीविका के साधन न रहने से सभी दुखी तथा चिंतित  हैं। मार्ग में यदि कोई किसी को मिल जाए तो  एक-दूसरे से यही प्रश्न करते थे –कहाँ जाएँ? क्या करें?

तुलसी दास जी  कहते है संकट के समय प्रभु श्री राम ही सहायता करते है .वेदों-पुराणों में ऐसा कहा गया है और संसार में  भी ऐसा देखा गया है कि जब-जब भी संकट उपस्थित हुआ, तब-तब राम ने सब पर कृपा की है। तुलसी अपने प्रभु श्री राम से प्रार्थना करतेहुए कहते  है कि हे दीनबंधु! इस  दरिद्रतारूपी रावण ने समूचे संसार को त्रस्त कर रखा है । चारों तरफ पाप की अग्नि जलता देखकर में तुलसी आपसे निवेदन करता हूं कि इस पाप की अग्नि का शमन कीजिये , आप तो नाशक है , ।

3.

धूत कहो, अवधूत कहों, रजपूतु कहीं, जोलहा कहों कोऊ।

कहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सौऊ।

तुलसी सरनाम गुलामु हैं राम को, जाको रुच सो कहें कछु आोऊ।

माँग कै खैबो, मसीत को सोइबो, लेबोको एकु न दैबको दोऊ।।

भावार्थ – तुलसी न सिर्फ भक्त कवि थे अपितु समाज सुधारक भी थे .उनके समय में उनके कुछ विरोधी भी थे जो तुलसी से विरोध रखते थे .  प्रस्तुत पद्यांश में तुलसी ने अपने विरोधियों को संबोधित किया है .तुलसी कहते है कि समाज मुझे  चाहे धूर्त कहे या पाखंडी, संन्यासी कहे ,जाति से  राजपूत कहे  अथवा जुलाहा कहे, मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे किसी के बेटी से अपने बेटे का विवाह नहीं करना और न ही किसी की जाति बिगाड़नी है अर्थात  मै संत-संन्यासी हूं ,मुझे सामाजिक व्यवहार से कोई सरोकार नहीं .मै तो सिर्फ इतना जानता हूं कि  मैं  अपने प्रभु राम का दास  हूँ, : जिसे जो अच्छा लगे, वह कहे। मुझे तो  माँगकर खाना है  , मस्जिद में सोना है. मुझे किसी से  न कुछ लेना है और न किसी को कुछ देना  है।

(ख) लक्ष्मण-मूच्छी और राम का विलाप

दोहा

1.

तव प्रताप उर राखि प्रभु, जैहउँ नाथ तुरंत।

अस कहि आयसु पाह पद, बदि चलेउ हनुमत।

भरत बाहु बल सील गुन, प्रभु पद प्रीति अपार।

मन महुँ जात सराहत, पुनि-पुनि पवनकुमार।।

भावार्थ – हनुमानजी भरत से कह रहे है कि  हे प्रभो!! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरंत अपने स्वामी के पास पहुँच जाऊंगा .। ऐसा कहकर हनुमान जी ने भरत जी से आज्ञा मांगी और  भरत जी के चरणों की वंदना करके हनुमान जी गंतव्य की ओर बढ़ गए ।हनुमानजी आकाश मार्ग से लंका की ओर जा रहे है तथा मन ही मन भरतजीकी प्रशंसा करते हुए कह रहे हैं कि भरतजी  बाहुबलको धारण करनेवाले है , शील स्वभाव के है तथा प्रभु राम के चरणों में  अपार भक्ति भाव रखते है .

2.

उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसार।।

अर्द्ध राति गई कपि नहिं आयउ। राम उठाड़ अनुज उर लायउ ।।

सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधू  सदा तव मृदुल सुभाऊ।।

सो अनुराग कहाँ अब भाई । उठहु न सुनि मम बच बिकलाई।।

जों जनतेउँ बन बंधु बिछोहू। पिता बचन मनतेऊँ नहिं ओहू।।

 भावार्थ – लक्ष्मण को निहारते हुए श्रीराम सामान्य मनुष्य की भांति  विलाप करते हुए कह रहे है  कि आधी रात बीत गई है किन्तु  अभी तक हनुमानजी  नहीं आए।ऐसा कहते हुए  राम ने मूर्छित  लक्ष्मण को ह्रदय से  लगा लिया। श्री राम मूर्छित लक्षमण को संबोधित करते हुए कहते है  कि “ तुम मुझे कभी दुखी नहीं देख सकते  थे। तुम्हारा स्वभाव सदैव मेरे प्रति कोमल व विनम्र रहा है । मेरे लिए ही तुमने माता-पिता का  त्याग किया और मेरे साथ जंगल –जंगल भटकते हुए सर्दी,गर्मी ,वर्षा और आँधी- तूफ़ान सहे ,  किन्तु अब तुम मेरे व्याकुल वचनों को सुनकर भी  प्रतिक्रिया व्यक्त  क्यों नहीं कर रहे ?शायद अब तुम्हारा प्रेम पहले जैसा नहीं रहा . यदि मुझे  यह ज्ञात  होता कि तुम्हे अपने साथ वन लाने पर इस तुम्हारा  तुम्हारा वियोग सहना पड़ेगा तो मैं पिता की आज्ञा न मानकर वन आना स्वीकार नहीं करता .

3.

बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारह बारा।।

अस बिचारि जिय जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।।

जथा पंख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना।।

अस मम जिवन बंधु बिनु तोही। जों जड़ दैव जिआर्वे मोही।।

जैहउँ अवध कवन मुहुँ लाई। नारि हेतु प्रिय भाड़ गवाई।।

बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बुसेष छति नहीं।।

भावार्थ – व्यथित  श्रीराम  कहते हैं कि संसार में पुत्र, धन, स्त्री, भवन और परिवार यें सब तो एक बार खो जाने पर पुन: मिल जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं, किंतु संसार में सगा भाई दुबारा नहीं मिलता। यह विचार करके, हे तात, तुम जाग जाओ।

हे लक्ष्मण! तुम्हारे बिना मेरा जीवन वैसा ही व्यर्थ है जिस प्रकार पंख के बिना पक्षी, मणि के बिना साँप, सूंड के बिना हाथी का जीवन हो जाता हैं, अर्थात हे लक्ष्मण ! तुम्हारे बिना यदि दुर्भाग्य ने मुझे जीवित रखा  तो मेरा जीवन भी पंखविहीन पक्षी, मणि विहीन साँप और सँड़ विहीन हाथी के समान हो जाएगा। राम इस बात से भी चिंतित होते है कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या लौटने पर यदि अयोध्यावासी लक्षमण के बारे में पूछेंगे तो उन्हें क्या उत्तर देंगे ?

सोचते है कि मै क्या मुँह लेकर अयोध्या जाऊंगा ? लोग कहेंगे कि पत्नी के लिए  भाई की बलि चढ़ा दी  । मैं पत्नी की रक्षा न कर पाने का  अपयश तो सहन कर लूँगा , क्योंकि नारी की हानि विशेष नहीं होती।भाई के वियोग से अति क्षुब्ध  श्री राम नारी के बारे अनजाने में ऐसा कह जाते है .

4.

अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहहि निठुर कठोर उर मोरा।।

निज जननी के एक कुमारा । तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।।

सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी।।

उतरु काह दैहऊँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई।।

बहु बिधि सोचत सोचि बुमोचन। स्त्रवत सलिल राजिव दल लोचन।।

उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपालु देखाई।।  [CBSE (Delhi) (C) & Foreign, 2009; (Outside), 2011]

सोरठ

प्रभु प्रलाप सुनि कान, बिकल भए बानर निकर।

आइ गयउ हनुमान, जिमि करुना महं बीर रस।।  [(पृष्ठ-50) (CBSE (Outside), 2011)]

भावार्थ लक्ष्मण के होश में न आने पर राम विलाप करते हुए कहते हैं कि मेरा निष्ठुर व कठोर हृदय अपयश और तुम्हारा शोक दोनों को सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र हो तथा उसके प्राणों के आधार हो। उसने सब प्रकार से सुख देने वाला तथा परम हितकारी जानकर ही तुम्हें मुझे सौंपा था। अब उन्हें मैं क्या उत्तर दूँगा? तुम स्वयं उठकर मुझे कुछ बताओ। इस प्रकार राम ने अनेक प्रकार से विचार किया और उनके कमल रूपी सुंदर नेत्रों से आँसू बहने लगे। शिवजी कहते हैं-हे उमा ! श्री रामचंद्र जी अद्वितीय और अखंड हैं। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान ने मनुष्य की दशा दिखाई है। प्रभु का विलाप सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए। इतने में हनुमान जी आ गए। ऐसा लगा जैसे करुण रस में वीर रस प्रकट हो गया हो।

5.

हरषि राम भेंटेउ हनुमान। अति कृतस्य प्रभु परम सुजाना ।।

तुरत बँद तब कीन्हि उ पाई। उठि बैठे लछिमन हरषाड़।।

हृदयाँ लाइ प्रभु भेटेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता।।

कपि पुनि बँद तहाँ पहुँचवा। जेहि बिधि तबहेिं ताहि लह आवा।। (पृष्ठ-50)

भावार्थ हनुमान के आने पर राम ने प्रसन्न होकर उन्हें गले से लगा लिया। परम चतुर और एक समझदार व्यक्ति की तरह भगवान राम ने हनुमान के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की। वैद्य ने शीघ्र ही उपचार किया जिससे लक्ष्मण उठकर बैठ गए और बहुत प्रसन्न हुए। लक्ष्मण को राम ने गले से लगाया। इस दृश्य को देखकर भालुओं और वानरों के समूह में खुशी छा गई। हनुमान ने वैद्यराज को वहीं उसी तरह पहुँचा दिया जहाँ से वे उन्हें लेकर आए थे।

6.

यह बृतांत दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ।।

ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा ।।

जागा निसिचर देखिअ कैस। मानहुँ कालु देह धरि बैंस ।।

कुंभकरन बूझा कहु भाई । काहे तव मुख रहे सुखाई।। (पृष्ठ-50)

भावार्थ- जब रावण ने लक्ष्मण के ठीक होने का समाचार सुना तो वह दुख से अपना सिर धुनने लगा। व्याकुल होकर वह कुंभकरण के पास गया और कई तरह के उपाय करके उसे जगाया। कुंभकरण जागकर बैठ गया। वह ऐसा लग रहा था मानो यमराज ने शरीर धारण कर रखा हो। कुंभकरण ने रावण से पूछा-कहो भाई, तुम्हारे मुख क्यों सूख रहे हैं?

7.

कथा कही सब तेहिं अभिमानी। कही प्रकार सीता हरि आनी।।

तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा संघारे महा।।

दुर्मुख सुररुपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकंपन भारी।।

अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा।।

दोहा

सुनि दसकंधर बचन तब, कुंभकरन बिलखान।।

जगदबा हरि अनि अब, सठ चाहत कल्यान।।

भावार्थ – अभिमानी रावण ने जिस प्रकार से सीता का हरण किया था उसकी और उसके बाद तक की सारी कथा उसने कुंभकरण को सुनाई। रावण ने बताया कि हे तात, हनुमान ने सब राक्षस मार डाले हैं। उसने महान-महान योद्धाओं का संहार कर दिया है। दुर्मुख, देवशत्रु, नरांतक, महायोद्धा, अतिकाय, अकंपन और महोदर आदि अनेक वीर युद्धभूमि में मरे पड़े हैं। रावण की बातें सुनकर कुंभकरण बिलखने लगा और बोला कि अरे मूर्ख, जगत-जननी जानकी को चुराकर अब तू कल्याण चाहता है ? यह संभव नहीं है।

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