राष्ट्र का स्वरूप डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल -पाठ का सारांश
प्रस्तुत निबन्ध में लेखक वासुदेवजी ने इस तथ्य को स्थापित करने का प्रयास किया है कि हैं कि किसी भी राष्ट्र का स्वरूप पृथ्वी , जन और संस्कृति से मिलकर बना है.
1-पृथ्वी
पृथ्वी के प्रति उस पर निवास करनेवालों का कर्तव्य और दायित्व –
देवताओं द्वारा इस भूमि का निर्माण किया गया है तथा अनन्तकाल से इसका अस्तित्व विद्यमान है।
इस भूमि के प्रति सचेत रहना , इसके रूप को विकृत न होने देना तथा इसे समृद्ध बनाने की दिशा में सजग रहना मानव जाति का यह कर्तव्य है .
यदि हम भूमि के पार्थिव स्वरूप के प्रति जागरूक रहेंगे, तो हमारी राष्ट्रीयता की भावना भी उतनी ही बलवती होगी.
यह पृथ्वी ही हमारी समस्त विचारधाराओं की जननी है।
वासुदेव जी का मानना है कि यदि राष्ट्रीय विचारधारा पृथ्वी से सम्बद्ध नहीं होती, तो वह आधारविहीन होगी और थोड़े समय में ही उसका अस्तित्व नष्ट हो जायेगा ।
वासुदेव जी कहते है कि राष्ट्रीयता का आधार जितना सशक्त होगा, राष्ट्रीयता की भावनाएँ भी उतनी ही अधिक विकसित होंगी .
प्रत्येक मनुष्य का आवश्यक धर्म है कि वह प्रारम्भ से अन्त तक पृथ्वी के भौतिक स्वरूप की जानकारी रखे तथा इसके रूप-सौन्दर्य, उपयोगिता एवं महिमा को पहचाने .
पृथ्वी के प्रति उस पर निवास करनेवालों का कर्तव्य और दायित्व है कि सब मिलकर पृथ्वी को समृद्ध बनाये.
पृथ्वी : हमारी माता
यह पृथ्वी हमारी माँ है, इसके अन्न-जल से ही हमारा भरण-पोषण होता है,इसी से हमारा अस्तित्व बना हुआ है।
धरती माता की कोख अमूल्य निधियाँ भरी हुई हैं, धरती माता की इन अमूल्य निधियाँ उनसे हमारा आर्थिक विकास हुआ है और भविष्य भी होता रहेगा।
पृथ्वी एवं आकाश के मध्य जो सामग्री भरी हुई है, पृथ्वी के चारों ओर फैले सागर में जो जलचर एवं रत्नों की राशियां हैं, हमारे जीवन पर इन सबका गहरा प्रभाव पड़ा है।
अत: जितने भी प्रकृति प्रदत्त पदार्थ है उन सबके प्रति हमें आत्मीय चेतना चाहिए । पृथ्वी और इसकी सामग्रियों के आत्मीय चेतना
रखने से हमारी राष्ट्रीयता की भावना विकसित हो सकेगी .
2-जन
जन अर्थात मनुष्य, राष्ट्र का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग
वासुदेवजी के अनुसार कि पृथ्वी हमारे लिए तब ही महत्त्वपूर्ण हो सकती, जब हम इस भूमि पर निवास करने वाले मनुष्य को साथ में जोड़कर देखे ।
जनविहीन भूमि को राष्ट्र नहीं कहा जा सकता।
राष्ट्र के स्वरूप के निर्माण के लिए पृथ्वी और जन दोनों की अनिवार्यता है।
’पृथ्वी मेरी माता है और मैं उसका आज्ञाकारी पुत्र हूँ’, इस भावना के साथ प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों और अधिकारों के प्रति सजग हो सकता है।
पृथ्वी पर रहने वाले जनों का विस्तार बहुत विस्तृत है ,इसकी विशेषताओं में भी विविधता हैं।
अत:किसी भी राष्ट्र के लिए जन का महत्त्व सर्वाधिक है। जन के बिना राष्ट्र की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
समानता के भाव द्वारा ही राष्ट्र की प्रगति सम्भव
जैसे माता अपने सभी पुत्रों को समान भाव से प्रेम करती है, इसी प्रकार पृथ्वी भी उस पर रहने वाले सभी मनुष्यों को समान भाव से चाहती है,
पृथ्वी माता के लिए सभी जन समान हैं।
धरती माता अपने सभी पुत्र जनों को बिना कोई भेदभाव किये समान रूप से समस्त सुविधाएँ प्रदान करती है।
पृथ्वी पर निवास करने वाले जन भले ही विभिन्न जातियों, धर्मों, समुदायों में बंटे हों, किन्तु फिर भी ये सभी पृथ्वी माता के पुत्र हैं, पृथ्वी माता के साथ जन का जो सम्बन्ध है, उसमें कोई भेदभाव उत्पन्न नहीं हो सकता।
पृथ्वी पर सब जातियों, धर्मों, समुदायों के लिए एक समान क्षेत्र है।
इसलिए सभी मनुष्यों का देश की प्रगति और उन्नति में समान अधिकार है।
कोई भी राष्ट्र किसी एक जन को पीछे छोड़कर प्रगति नहीं कर सकता।
अत: सभी को बिना किसी भेदभाव से एक समान प्रगति और उन्नति करने का अवसर मिलना चाहिए
वासुदेवजी कहते है कि प्रत्येक जन का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने निजी स्वार्थों को त्यागकर तथा संकुचित दायरे से बाहर निकलकर सभी के प्रति उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण अपनाएँ , क्योकि समानता के भाव द्वारा ही राष्ट्र की प्रगति सम्भव है।
3-संस्कृति
मनुष्य के मस्तिष्क का प्रतीक है -संस्कृति
वासुदेवजी का मानना है कि संस्कृति ही किसी भी राष्ट्र के जन का मस्तिष्क है.
राष्ट्र की वृद्धि वहां की संस्कृति के विकास एवं अभ्युदय पर निर्भर होती है ।
राष्ट्र के समग्र रूप में जितना महत्त्व भूमि और जनका होता है ,उतना ही महत्त्व संस्कृति का भी होता है ।
पृथ्वी और जन को संस्कृति से पृथक कर कोई भी राष्ट्र प्रगति नहीं कर सकता।
संस्कृति किसी भी राष्ट्र के लिए उसकी जीवनधारा है।
प्रत्येक जाति अपने-अपने तरीकें से संस्कृति को विकसित करती है।
अत:कहा जा सकता है कि प्रत्येक जन अपनी भावनानुसार अलग-अलग संस्कृतियों को राष्ट्र के रूप में विकसित करता है।
पारस्परिक सहिष्णुता एवं समन्वय की भावना सभी संस्कृतियों का मूल आधार है।
यही पारस्परिक सहिष्णुता एवं समन्वय की भावना अनेक संस्कृतियों के एक साथ रहने के बावजूद हमारे बीच पारस्परिक प्रेम एवं भाईचारे का स्रोत है
विविधताओं के उपरांत भी यही पारस्परिक सहिष्णुता एवं समन्वय की भावना राष्ट्रीयता की भावना को संबल प्रदान करती ता है।
वासुदेवजी कहते है कि जो मनुष्य सहृदय होता है ,वह भिन्न संस्कृति के आनन्द पक्ष को भी वैसे ही स्वीकार करता है जैसे अपनी संस्कृति के आनन्द पक्ष को .
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