काले मेघा पानी दे
‘काले मेघा पानी दे’ निबन्ध का प्रतिपाद्य
निबन्ध का प्रतिपाद्य यह है कि विज्ञान तर्क की कसौटी पर खरी उतरने वाली बात को ही सत्य मानता है। साथ ही विश्वास भावना के आधार पर अनहोनी-होनी सबको सत्य मान लेता है। भारतीय समाज में अन्धविश्वास होते हुए भी उनमें सामाजिक कल्याण की भावना सांस्कृतिक चेतना एवं संस्कारों से पल्लिवत होती है।
‘काले मेघा पानी दे’ निबन्ध लोकजीवन के विश्वास एवं उनसे उत्पन्न हुई मान्यताओं पर आधारित है। विज्ञान के तर्क एवं लोगों का विश्वास दोनों अपनी जगह सत्य हैं इस बात को पुष्ट करता है। भीषण गर्मी के कारण पानी की कमी से बेहाल गाँव के लोग वर्षा कराने के उद्देश्य से पूजा-पाठ और कथा-विधान करके जब थक-हार जाते हैं तब वर्षा कराने का अंतिम उपाय के रूप में इन्द्र सेना निकलती है।
इन्द्र सेना नंग-धडंग बच्चों की टोली है, जो कीचड़ में लथपथ होकर गली-गली पानी माँगने निकलती है। लोग घरों की छतों से उन पर पानी फेंकते हैं। लोगों की मान्यता है कि इन्द्र बादलों के स्वामी और वर्षा के देवता हैं। इन्द्र की सेना पर पानी डालने से इन्द्र भगवान प्रसन्न होकर पानी बरसायेंगे।
‘मेढक-मण्डली’ ‘इंद्र सेना’.
नगर के कुछ लोगों को लड़कों का नंग-धडंग होकर कीचड़ में लथपथ होना और इस तरह इंद्रा देवता से वर्षा की पुकार लगाना अंध विश्वास और पाखंड लगता था। वे उनके अन्धविश्वास एवं ढोंग से चिढ़ते थे। इस कारण वे उन लड़कों की टोली से चिढ़ने के कारण ‘मेढक-मण्डली’ नाम से पुकारते थे।
‘इन्द्र सेना’ में गाँव के दस-बारह वर्ष से सोलह-अठारह वर्ष के सभी लड़के नंग-धडंग उछल-कूद, शोर-शराबे के साथ कीचड़-मिट्टी को शरीर पर मलते हुए घर-घर.जाते थे और ‘बोल गंगा मैया की जय’ का नारा लगाते हुए पानी की माँग करते थे। वे आस्था के कारण इन्द्र देवता से बारिश करने के लिए प्रार्थना करते हुए ऐसा करते हैं।लड़कों की वह टोली वर्षा के देवता इन्द्र से वर्षा करने की प्रार्थना करती थी। वे लोक-विश्वास के आधार पर इन्द्रदेव के दूत बनकर सबसे पानी इसलिए माँगते थे, ताकि इन्द्रदेव भी उन्हें वर्षा का दान करें। इसी से वे अपने आपको ‘इन्द्र सेना’ कहकर बुलाते थे।
इन्द्रसेना पर पानी फेंकने के पक्ष में जीजी का तर्क
जीजी ने लेखक को बताया कि देवता से कुछ माँगे जाने से पहले उसे कुछ चढ़ाना पड़ता है। किसान भी तीस-चालीस मन गेहूँ पाने के लिए पहले पाँच-छ: सेर गेहूँ की बुवाई करता है। इन्द्र सेना पर भी यही बात लागू होती है। इन्द्र वर्षा के देवता हैं। इन्द्र सेना को पानी देने से इन्द्र देवता प्रसन्न होते हैं और बदले में झमाझम वर्षा करते हैं। एक प्रकार से इन्द्र सेना पर पानी फेंकना वर्षा-जल की बुवाई है। इस तरह पहले कुछ त्याग करो, फिर उसका फल पाने की आशा करो।
तब जीजी ने उसके मुँह में मठरी डालते हुए समझाया कि इन्द्र सेना पर पानी फेंकना पानी की बर्बादी नहीं है, यह पानी का अर्घ्य चढ़ाना है। जो चीज हमारे पास कम हो और प्रिय भी हो, उसका दान करना ही सच्चा त्याग है। इन्द्र सेना को पानी देने से इन्द्र देवता प्रसन्न होंगे और वे हमें पानी देंगे अर्थात् वर्षा करेंगे।
‘पानी दे गुड़धानी दे’ मेघों से पानी के साथ-साथ गुड़धानी की माँग का औचित्य
पानी के साथ ही गुड़धानी की माँग एक तुकबन्दी भी है और विशेष अभिप्राय भी है। मेघ जब पानी देंगे तो अनाज उगेगा, गुड़-चना आदि की उपज होगी और पेट-पूर्ति के साधन सुलभ होंगे। उसी कारण पीने, नहाने-धोने एवं खेती के लिए पानी चाहिए, तो खाने के लिए गुड़धानी अर्थात् अनाज चाहिए। अतएव इन दोनों की माँग एकसाथ की जाती थी।
त्याग व दान के विषय में जीजी के विचार
इस सम्बन्ध में जीजी के विचार थे कि जो चीज मनुष्य पाना चाहता है, उसे पहले खुद देना पड़ता है—त्याग करना पड़ता है। बिना त्याग के दान नहीं होता है। जो चीज बहुत कम है, उसका त्याग करने से ही लोक-कल्याण होता है। इससे स्वार्थ-भावना कम होती है और परोपकार भावना बढ़ती है।
पानी की बुवाई
किसान को अगर तीस-चालीस मन गेहूँ उगाना है तो वह पाँच-छ: सेर अच्छा गेहूँ लेकर उसकी जमीन में बुवाई कर देता है। इस तरह बुवाई करने से उसको कई गुना अनाज प्राप्त होता है। इसी प्रकार इन्दर सेना पर हम जो पानी फेंकते हैं, वह भी पानी की बुवाई है। इससे बादलों से कई गुना अधिक पानी मिलता है। हम जीजी के इस तर्क से सहमत नहीं हैं, क्योंकि इसमें अन्धविश्वास की अधिकता है।
भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में लेखक के विचार
लेखक ने वर्तमान काल में पनप रहे भ्रष्टाचार पर आक्षेप किया है। आज भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है। आज हर किसी के भ्रष्टाचार पर बातें खूब की जाती हैं, परन्तु स्वयं के भ्रष्टाचरण पर सब चुप रहते हैं। इससे समाज, देश तथा मानवता का पतन हो रहा है।
आज भारत में लोगों का आचरण स्वार्थी हो गया है। स्वार्थपरता के कारण वे दूसरों की कठिनाइयों एवं कष्टों की कोई चिन्ता नहीं करते हैं। लोग परमार्थ और परोपकार को भूलते जा रहे हैं। समाज के प्रति अपने कर्तव्यों का ध्यान नहीं रखते परन्तु अपने अधिकारों की बात करते हैं। अब देशप्रेम कोरे उपदेश का विषय बन गया है।
“यह सच भी है कि यथा प्रजा तथा राजा।” कथन का आशय
कहावत प्रसिद्ध है – ‘यथा राजा तथा प्रजा’, अर्थात जैसा राजा होगा, प्रजा भी वैसी ही होगी। राजा दानी, त्यागी और परोपकारी होगा, तो प्रजा भी उसी के अनुरूप आचरण करेगी, परन्तु प्रजा के आचरण का प्रभाव राजा पर भी पड़ता है। जनता त्याग-भावना का आचरण करती है तो तब राजा अर्थात् देवता भी त्याग करते हैं, जनता की प्रार्थना सुनकर इच्छित फल देते हैं।
विरोध के बावजूद लेखक का पूजा अनुष्ठान करने का कारण
लेखक आर्यसमाजी प्रभाव के कारण इन्द्र सेना के आचरण को, धार्मिक परम्पराओं को अन्धविश्वास और पाखण्ड मानता था। परन्तु उनके सामने यह मुश्किल थी कि जीजी के प्यार के कारण अनिच्छा से वह पूजा-पाठ एवं गहरी श्रद्धा होने से उनका साथ देता था और उनके स्नेह के कारण मजबूरी में सारे धार्मिक अनुष्ठान करता था।
पचास साल बाद जीजी के कथन की सार्थकता
लेखक को पचास वर्ष जीजी ने दान और त्याग के साथ ही आचरण को लेकर जो कुछ कहा था, वह बात आज के सन्दर्भ में लेखक को कचोटती है, क्योंकि आज लोग त्याग और दान को भूल गये हैं। देश एवं समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को नहीं निभाते हैं। केवल स्वार्थ, भ्रष्टाचार, अधिकार-प्राप्ति और छल-कपट रह गया है।
“गगरी फूटी की फूटी रह जाती है, बैल पियासे के पियासे रह जाते हैं।” इस कथन की व्यंजना
यह कथन प्रतीकात्मक है। वर्तमान में हमारे देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जनता के कल्याण के लिए बनने वाली विकास योजनाओं रूपी गगरी में भ्रष्टाचार के छेद हो गये हैं। योजनाएँ तो खूब बनती हैं, पर उनका लाभ आम जनता को नहीं मिलता है, इस तरह उक्त कथन से समकालीन भ्रष्ट शासन की व्यंजना की गई है।
लेखक ने अनुसार भारतीयों का अंग्रेजों से पिछड़ने व .. उनका गुलाम बनने का क्या कारण
लेखक ने भारतीयों का अंग्रेजों से पिछड़ने एवं उनका गुलाम होने का कारण पाखण्ड और अन्धविश्वास बताया है। भारतीयों में रूढ़िवादी धार्मिक मान्यता एवं सांस्कृतिक परम्पराओं के कारण अशिक्षित या अर्द्ध-शिक्षित लोग अन्धविश्वासों से छुटकारा नहीं पाते हैं। रूढ़ संस्कारों के कारण चाहते हुए भी इस स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है।
मेघों का बरसना ,मटकी का फूटा होना और बैलों का प्यासा होने का प्रतीकात्मक अर्थ –
भ्रष्टाचार में लिप्त रह कर देश और समाज को लूटते हैं। सरकार द्वारा चलाई गई योजनाओं का लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच रहा है। काले मेघा के दल उमड़ रहे हैं पर आज भी गरीब की गगरी फूटी हुई है।
मेंढक मंडली पर पानी डालने को लेकर लेखक और जीजी के विचारों में अंतर
मेंढक मंडली पर पानी डालने को लेकर लेखक का तर्क था कि गर्मी के इस मौसम में जहाँ पानी की बहुत किल्लत है ऐसे समय में व्यर्थ में पानी फेंकना, पानी की बर्बादी है। लोगों को पीने के लिए, जीवन यापन के लिए पानी नहीं मिल रहा वहाँ मंडली पर झूठे विश्वास के तहत पानी फेंकना गलत है।
इसके विपरीत, जीजी इंद्र सेना पर पानी फेंकना, पानी की बुवाई मानती थी। वे कहती हैं कि जिस तरह ढेर सारे गेहूँ प्राप्त करने के लिए कुछ मुट्ठी गेहूँ पहले बुवाई के लिए डाले जाते हैं वैसे ही वर्षा प्राप्त करने हेतु कुछ बाल्टी पानी फेंका जाता है। उनका यह तर्क कि सीमित में से ही दिया जाना त्याग कहलाता है और त्याग करने से ही सच्चा लोक-कल्याण होता है।
आजादी के पचास वर्ष बाद की स्थिति
लेखक आजाद भारत के पचास वर्ष व्यतीत होने के पश्चात् भी लोगों के विचारों में सकारात्मकता का भाव नहीं पाता है। वह लोगों के स्वार्थी एवं भ्रष्टाचार में लिप्त व्यवहार को देख कर दुःखी है। वह कहता है कि क्या हम भारतीय आज पूर्णतः स्वतंत्र हैं? हम अपनी देश की सभ्यता और संस्कृति को पूरी तरह समझ पाये हैं? देश के राष्ट्र निर्माण में क्यों हम अभी तक पीछे हैं।
भारतीय त्याग में विश्वास न करके भ्रष्टाचार में क्यों लिप्त रहते हैं? सरकार द्वारा चलाई जा रही सरकारी योजनाएँ तथा उनसे प्राप्त होने वाला लाभ गरीबों तक क्यों नहीं पहुंच पाता है? इन तमाम प्रश्नों एवं विचारों से क्षुब्ध लेखक दुःखी है। वर्षों की गुलामी झेलने के बाद भी भारतीयों की समझ विकसित नहीं हो पाई है। वे देश के विकास को भूल कर सिर्फ स्वयं के विकास में ही तत्पर हैं।
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