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भक्तिन’ महादेवी जी का प्रसिद्ध संस्मरणात्मक रेखाचित्र है। जिसमें लेखिका ने अपनी सेविका भक्तिन के व्यक्तित्व का परिचय देते हुए उसके अतीत और वर्तमान का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है।
लक्ष्मी के जीवन का प्रथम परिच्छेद –
लक्ष्मी झूसी के गाँव के प्रसिद्ध अहीर की इकलौती बेटी थी। माँ चल बसी थी इसलिए उसका लालन-पालन उसकी सौतेली माँ ने किया। शास्त्रों में वर्णित कन्यादान का पुण्य कमाने के लिए पाँच वर्ष की उम्र में लक्ष्मी का विवाह हडिया गाँव के एक गोपालक के पुत्र के साथ कर दिया गया था। नौ वर्ष की उम्र में सौतेली माँ गौनाकर लक्ष्मी को ससुराल भेज दिया । लक्ष्मीं के ससुराल जाने के बाद पिता गंभीर रूप से बीमार हो गया .मरने से पहले वसीयत लक्ष्मी के नाम न कर दे इस आशंका से उसने लक्ष्मी के पिता के बीमार होने की खबर लक्ष्मी को नहीं भेजी ,खबर तब भेजी जब लक्ष्मी के पिता की मृत्यु हो गई सास ने रोने पीटने के अपशकुन से बचने के लिए पिता की मृत्यु का समाचार नहीं सुनाया बल्कि उसे पीहर यह कहकर भेज दिया कि वह बहुत दिनों से गई नहीं है,सो मायके चली जा ।गाँव में प्रवेश करते ही गाँव के लोगों ने अस्पष्ट भाषा में जो कुछ कहा उससे लक्ष्मी आशंकित हो गई और मायके आने का सारा उत्साह ठंडा पद गया . मायके जाने पर सौतेली माँ के दुर्व्यवहार किया तो वह बिना पानी पिए ही ससुराल वापस चली आई। ससुराल लौटकर कर सास को खरी-खोटी सुनाई तथा पति के ऊपर गहने फेंककर पिता की मृत्यु का शोक व्यक्त किया ।
लक्ष्मी के जीवन का दूसरा परिच्छेद –
लक्ष्मीं के ससुराल में के अलावा तीन बेटें और तीन बहूएँ है .लक्ष्मिन सास के सबसे छोटे बेटे की पत्नी है .लक्ष्मीं के ससुराल में बेटा पैदा करने की परंपरा रही थी । लक्ष्मिन की सास भी तीन बेटो को जन्म देकर इस परंपरा को आगे बढाया .दिया ,फिर लक्ष्मिन की जेठानियों ने भी दो-दो बेटें पैदा करके इस परंपरा को बनाये रखा .इस परंपरा को लक्ष्मिन ने तीन -तीन बेटियां पैदा कर तोडा . तीन- तीन बेटियां पैदा करने के कारण सास व जेठानियों ने उसकी उपेक्षा करनी शुरू कर दी। बेटों को जन्म देने के कारण जेठानियाँ घर का कोई काम नहीं कराती बल्कि चारपाई पर बैठकर खातीं रहती तथा बेटियों को जन्म देने के कारण घर का सारा काम-चक्की चलाना, कूटना, पीसना, खाना बनाने का काम लक्ष्मिन को करना पड़ता था । इतना काम करने के उपरांत भी लक्ष्मिन को खाने में काले गुड़ की डली, मट्ठा दिया जाता . लक्ष्मिन की बेटियों गोबर उठातीं तथा कंडे थापती थीं जबकि जेठ -जेठानियाँ के लड़को दिन भर खेलते रहने के बावजूद दूध व मलाई मिलती और लक्ष्मिन की बेटियों को चने-बाजरे की घुघरी मिलती थी। सिर्फ एक बात लक्ष्मिन के पक्ष में थी -वह थी लक्ष्मिन के पति का लक्ष्मिन के प्रति प्रेम .पति-प्रेम के बल पर उसने सम्पति का बंटवारा करवा लिया । पति के साथ मिलकर खूब मेहनत की और जेठ-जेठानियों की तुलना में आर्थिक रूप से संपन्न हो गई । पति ने बड़ी बेटी का विवाह धूमधाम से किया। इसके बाद 36 वर्ष की आयु में लक्ष्मिन का पति चल बसा। इस समय भक्तिन मात्र 29 वर्ष की थी। लक्ष्मिन की संपत्ति देखकर जेठ और जेठ के लड़कें लक्ष्मिन की सम्पति हड़पने का उपाय सोचने लगे । उन्होंने लक्ष्मिन के सामने दूसरे विवाह का प्रस्ताव रखा किन्तु लक्ष्मिन ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। पुन:विवाह का विचार भी मन में न आए इसलिए उसने उसने बाल कटवा दिए तथा गुरु से मंत्र लेकर कंठी धारण कर ली।उसने शेष दोनों बेटियों की भी शादी कर दी और पति के चुने दामाद को घर-जमाई बनाकर रख लिया ।
लक्ष्मी के जीवन का तीसरा परिच्छेद –
दुर्भाग्य उसका पीछा नहीं छोड़ रहा था । उसकी बड़ी बेटी भी विधवा हो गई। जेठ और जेठ के लड़कों की की दृष्टि लक्ष्मी संपत्ति पर पर पहले से ही थी। उसका जेठ का बेटा अपनी विधवा बहन के विवाह के लिए अपने तीतर लड़ाने वाले साले को बुला लाया ताकि विधवा बहन का विवाह अपने तीतर लड़ाने वाले साले से हो जाने पर सब कुछ उन्हीं के अधिकार में हो जायेगा ।
किन्तु लक्ष्मिन की बेटी ने उसे नापसंद कर दिया। माँ-बेटी मन लगाकर अपनी संपत्ति की देखभाल करने लगीं। एक दिन भक्तिन की अनुपस्थिति में उस तीतरबाज वर ने बेटी की कोठरी में घुसकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया और उसके समर्थक गाँव वालों को बुलाने लगे। लड़की ने उसकी खूब मरम्मत की तो पंच समस्या में पड़ गए। अंत में पंचायत ने कलियुग को इस समस्या का कारण बताया और अपीलहीन फैसला हुआ कि दोनों को पति-पत्नी के रूप में रहना पड़ेगा। यह संबंध सुखकर नहीं रहा ।
दामाद निश्चित होकर तीतर लड़ाता था, जिसकी वजह कि लक्ष्मिन की सारी सम्पति बर्बाद हो गई ,हालत यह हो गई कि ज़मीदार का लगान अदा करना भी मुश्किल हो गया। लगान न चुकाने पर जमींदार ने भक्तिन कोदिन-भर कड़ी धूप में खड़ा रखा ।यह अपमान उसे सहन न हुआ और उसने फैसला कर लिया कि अब वह इस गांव में नहीं रहेंगी .शहर जाकर मज़दूरी कर अपना शेष जीवन व्यतीत करेंगी .
लक्ष्मी के जीवन का चौथा परिच्छेद –
शहर आकर लक्ष्मिन घुटी हुई चाँद, मैली धोती तथा गले में कंठी पहने लेखिका महादेवी वर्मा से मिलती है और काम देने का देने का निवेदन करती है । लेखिका महादेवी वर्मा द्वारा यह पूछने पर कि वह क्या काम कर सकती है इस वह कहती है कि वह दाल- रोटी बनाने का काम करने की बात कह सकती है ।लेखिका महादेवी वर्मा लक्ष्मिन को खाने बनानेका काम सौप देती है .
लक्ष्मिन लेखिका महादेवी वर्मा से निवेदन करती है कि उसका नाम लक्ष्मिन है ,यह बात किसी को न बताये लेखिका महादेवी वर्मा घुटी हुई चाँद, माथे पर तिलक तथा गले में कंठी पहने देखकर उसे इसी वेश भूषा के आधार पर भक्तिन नाम दे देती है .इस प्रकार लक्ष्मी ,लक्ष्मिन से भक्तिन बन जाती है , लेखिका कहती है वैसे तो इस संसार में सभी को अपने-अपने नाम के विरोधाभास के साथ जीना ही पड़ता है। सभी अपने नाम के विपरीत ही होते हैं ।
भक्तिन सेवा धर्म का पालन करने में हनुमानजी से प्रतिस्पर्द्धा करती है ।
भक्तिन धार्मिक स्वभाव ,अन्धविश्वास और छुआछूत वाली स्त्री है . लेखिका की धुली धोती भी जल के छींटों से पवित्र करने के बाद पहनी। रोजाना निकलते सूर्य व पीपल को जल चढ़ाती है , दो मिनट जप करती है . कोयले की मोटी रेखा खींचकर चौके की सीमा निर्धारित कर देती है ।
खाना बनाना शुरू किया। भोजन के समय भक्तिन ने लेखिका को दाल के साथ मोटी काली चित्तीदार चार रोटियाँ परोसीं ,उसने सब्जी न बनाकर दाल बना दी। इस खाने पर प्रश्नवाचक दृष्टि होने पर वह अमचूरण, लाल मिर्च की चटनी या गाँव से लाए गुड़ का प्रस्ताव रखा।
भक्तिन के लेक्चर के कारण लेखिका रूखी दाल से एक मोटी रोटी खाकर विश्वविद्यालय पहुँची और न्यायसूत्र पढ़ते हुए शहर और देहात के जीवन के अंतर पर विचार करने लगी। गिरते स्वास्थ्य व परिवार वालों की चिंता निवारण के लिए लेखिका ने खाने के लिए अलग व्यवस्था की, किंतु इस देहाती वृद्धा की सरलता से वह इतना प्रभावित हुई कि वह अपनी असुविधाएँ छिपाने लगी। भक्तिन स्वयं को बदल नहीं सकती थी। वह दूसरों को अपने मन के अनुकूल बनाने की इच्छा रखती थी। लेखिका देहाती बन गई, लेकिन भक्तिन को शहर की हवा नहीं लगी। उसने लेखिका को ग्रामीण खाना-खाना सिखा दिया, परंतु स्वयं ‘रसगुल्ला’ भी नहीं खाया।उसने लेखिका को अपनी भाषा की अनेक दंतकथाएँ कंठस्थ करा दीं, परंतु खुद ‘आँय’ के स्थान पर ‘जी’ कहना नहीं सीखा।
भक्तिन में दुर्गुणों का अभाव नहीं था। वह इधर-उधर पड़े पैसों को किसी मटकी में छिपाकर रख देती थी जिसे वह बुरा नहीं मानती थी। पूछने पर वह कहती कि यह उसका अपना घर ठहरा, पैसा-रुपया जो इधर-उधर पड़ा देखा, सँभालकर रख लिया। यह क्या चोरी है! अपनी मालकिन को खुश करने के लिए वह बात को बदल भी देती थी। वह अपनी बातों को शास्त्र-सम्मत मानती थी।
उसके अपने तर्क थे। लेखिका ने उसे सिर घुटाने से रोका तो उसने ‘तीरथ गए मुँड़ाए सिद्ध।’ कहकर अपना कार्य शास्त्र-सिद्ध बताया। वह स्वयं पढ़ी-लिखी नहीं थी। अब वह हस्ताक्षर करना भी सीखना नहीं चाहती थी। उसका तर्क था कि उसकी मालकिन दिन-रात किताब पढ़ती है। यदि वह भी पढ़ने लगे तो घर के काम कौन करेगा।
भक्तिन अपनी मालकिन को असाधारणता का दर्जा देती थी। इसी से वह अपना महत्व साबित कर सकती थी। उत्तर-पुस्तिका के निरीक्षण-कार्य में लेखिका का किसी ने सहयोग नहीं दिया। इसलिए वह कहती फिरती थी कि उसकी मालकिन जैसा कार्य कोई नहीं जानता।
वह स्वयं सहायता करती थी। कभी उत्तर-पुस्तिकाओं को बाँधकर, कभी अधूरे चित्र को कोने में रखकर, कभी रंग की प्याली धोकर और कभी चटाई को आँचल से झाड़कर वह जो सहायता करती थी उससे भक्तिन का अन्य व्यक्तियों से अधिक बुद्धिमान होना प्रमाणित हो जाता है। लेखिका की किसी पुस्तक के प्रकाशन होने पर उसे प्रसन्नता होती थी। उस कृति में वह अपना सहयोग खोजती थी।
लेखिका देर रात तक लेखन कार्य करती और कभी कभी इच्छा न होने पर खाना भी नहीं खाती तो भक्तिन कभी दही का शरबत अथवा कभी तुलसी की चाय पिलाकर उसे भूख के कष्ट से बचाती थी।
भक्तिन में सेवा-भाव था। छात्रावास की रोशनी बुझने पर जब लेखिका के परिवार के सदस्य-हिरनी सोना, कुत्ता बसंत, बिल्ली गोधूलि भी-आराम करने लगते थे, तब भी भक्तिन लेखिका के साथ जागती रहती थी। वह उसे कभी पुस्तक देती, कभी स्याही तो कभी फ़ाइल देती थी। भक्तिन लेखिका के जागने से पहले जागती थी तथा लेखिका के बाद सोती थी।
बदरी-केदार के पहाड़ी तंग रास्तों पर वह लेखिका से आगे चलती थी, परंतु गाँव की धूलभरी पगडंडी पर उसके पीछे रहती थी। लेखिका भक्तिन को छाया के समान समझती थी।
युद्ध के समय लोग पलायन कर रहे थे , भक्तिन के बेटी-दामाद भक्तिन को अपने साथ गाँव ले जाने के लिए आते है किन्तु वह बेटी-दामाद के आग्रह पर उनके साथ न जाकर लेखिका के साथ रहती है । युद्ध की बात सुनकर वह लेखिका को अपने गाँव ले जाना चाहती थी। वहाँ वह लेखिका के लिए हर तरह के प्रबंध करने का आश्वासन देती थी। वह अपनी सारी जमा पूँजी भी लेखिका को देने के लिए तैयार हो जाती है । लेखिका कहती है कि उनके बीच स्वामी-सेवक का संबंध नहीं था। इसका कारण यह था कि वह उसे इच्छा होने पर भी हटा नहीं सकती थी और भक्तिन चले जाने का आदेश पाकर भी हँसकर टाल देती थी। भक्तिन लेखिका के जीवन को घेरे हुए थी।
भक्तिन छात्रावास की बालिकाओं के लिए चाय बना देती थी। वह लेखिका के परिचितों व साहित्यिक बंधुओं से भी परिचित थी। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करती थी जैसा लेखिका करती थी।वह उन्हें आकार प्रकार, वेश-भूषा या नाम के अपभ्रंश द्वारा जानती थी। कवियों के प्रति उसके मन में विशेष आदर नहीं था,दूसरे के दुख से वह कातर हो उठती थी। किसी विद्यार्थी के जेल जाने पर वह व्यथित हो उठती थी।
वह कारागार से डरती थी, परंतु लेखिका के जेल जाने पर खुद भी उनके साथ चलने का हठ किया। अपनी मालकिन के साथ जेल जाने के हक के लिए वह बड़े लाट तक से लड़ने को तैयार थी। महादेवी जी भी भक्तिन को अपने व्यक्तित्व का अंश मानकर उसे खोना नहीं चाहती। वह भक्ति के चौथे परिच्छेद को पूरा नहीं करना चाहती।
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